विचार / लेख
-रमेश अनुपम
आखिरकार 30 जुलाई सन् 1963 को महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की संपत्ति कोर्ट ऑफ वार्ड्स से मुक्त कर दी गई।
महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की समस्या केवल कोर्ट ऑफ वार्ड्स से अपनी संपत्ति को मुक्त करवाकर अपने राजमहल के भीतर बैठकर सुख वैभव भोगना ही रहता तो कोई बात नहीं थी। लेकिन उनकी असल समस्या तो बस्तर के भोले-भाले और निरीह आदिवासी थे, जो आजादी के पन्द्रह वर्षों बाद भी राष्ट्र की मुख्यधारा से कटे हुए नारकीय जीवन जीने के लिए मजबूर थे।
बस्तर के आदिवासियों की समस्याओ को लेकर महाराजा ने न जाने कितने पत्र प्रधानमंत्री को लिखे होंगे। उनके लिखे हर पत्र में केवल आदिवासियों की समस्याएं और उनकी पीड़ा का उल्लेख है जिसमें वे देश के वजीरे आजम से आदिवासियों की रक्षा की गुहार लगाया करते थे।
जब इस से आलाकमान को कोई फर्क नहीं पड़ा तो उन्हें 12 जनवरी सन् 1965 को दिल्ली जाकर अनशन पर बैठने के लिए बाध्य होना पड़ा। इसका एक कारण यह भी था कि देश के गृहमंत्री गुलजारीलाल नंदा ने उनसे मिलने से इंकार कर दिया था।
आजादी के बाद सारे राजा-महाराजाओं को अच्छी खासी रकम प्रीविपर्स के रूप में मिला करती थी। देश के सारे राजा-महाराजा उसी में गद-गद थे। लेकिन बस्तर के महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव तो किसी और ही मिट्टी के बने हुए थे।
धीरे-धीरे बस्तर में स्थिति बद से बदतर होती जा रही थी।
शासन-प्रशासन इस सबसे बेखबर बना रहा। न उन्हें महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव से कोई मतलब था और न ही आदिवासियों के दुख दर्द से।
18 मार्च सन् 1966 राजमहल के सामने दंतेश्वरी मंदिर के पास सुरक्षा बल के जवान सैंकड़ों की संख्या में एकत्र हो रहे थे, उनके हाथों में बंदूक थी। इधर राजमहल के भीतर भी सैंकड़ों की संख्या में आदिवासी मौजूद थे। उस दिन राजमहल में स्थित महाविद्यालय में परीक्षा होने के कारण छात्र-छात्राओं का भी काफी जमावड़ा था।
स्थिति कॉफी विस्फोटक थी। राजमहल के भीतर और बाहर दोनों ओर तनाव साफ-साफ दिखाई दे रहा था। आदिवासी तीर कमान निकाल चुके थे और उधर पुलिस अपनी बंदूक ताने खड़े हो गए थे। उस दिन कुछ भी हो सकता था।
महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव को समझते देर नहीं लगी। वे पलक झपकते पुलिस बल के सामने पहुंच गए। पुलिस और प्रशासन के अधिकारियों को फटकार लगाते हुए कहा कि इतनी बड़ी संख्या में यहां पुलिस बल क्यों इक_ी है।
अधिकारियों ने कहा आदिवासी कभी भी बलवा कर सकते हैं। महाराजा के चेहरे की रंगत बदल गई थी उनके गोरे मुख मंडल पर रक्तिम आभा सी दिखाई देने लगी। स्वभाव के विपरीत वे रोष से बोले बलवा क्या होता है जानते हो?
महाराजा रुके नहीं पुलिस और प्रशासन के अधिकारियों को चुनौती देते हुए कहा अगर हिम्मत है तो चलाओ गोली।
महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की डांट-फटकार ने काम किया। अधिकारी राजमहल के भीतर गए और बातचीत की। उस दिन मामला जैसे-तैसे निपट गया।
महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की सूझ-बूझ से अप्रिय स्थिति टल गई थी। उस दिन जगदलपुर रक्त में डूबने से बच गया था। इंद्रावती में ढेर सारा रक्त बहने से रह गया था।
अगर उस दिन महाराजा हस्तक्षेप नहीं करते तो राजमहल में सैकड़ों की संख्या में उपस्थित आदिवासी और छात्र-छात्राओं का क्या होता ?
बस्तर के इतिहास में 18 मार्च सन् 1966 को भी नहीं भूलाया जा सकता है। यह वही तारीख है जिसने 25 मार्च सन् 1966 की आधारशिला रखी थी।
यह वही काली तारीख है जिसने 25 मार्च सन् 1966 की उससे भी काली और भयावह तारीख की इबारत बयां कर दी थी। आने वाले खतरे का संकेत इस तारीख में छिपा हुआ था।
क्या शासन और प्रशासन 25 मार्च का ब्लू प्रिंट पहले ही अपने लैब में तैयार कर चुके थे जिसे केवल अमली जामा पहनाना भर बाकी था ?
क्या 25 तारीख को बस्तर का खूनी इतिहास लिखे जाने की तारीख 18 मार्च के बहिखाते में पहले ही दर्ज किया जा चुका था?
ये सारे अनगिनत सवाल बस्तर की खामोश फिजाओं में तैर रहे थे।
(बाकी अगले हफ्ते)