सामान्य ज्ञान
उत्तरायण अथवा उत्तरायन शब्द उत्तर एवं अयण (अयन) इन दो शब्दों से बना है। अयण का अर्थ होता है चलना। सूर्य के उत्तर दिशा में अयण अर्थात गमन को उत्तरायण कहा जाता है। इस समय में सूर्य देवताओं का अधिपति होता है। मकर रेखा दक्षिणी गोलाद्र्ध में वह अंतिम अक्षांश सीमा है जिसपर सूर्य लम्बवत चमकता है। इसके बाद सूर्य मकर रेखा से उत्तर की ओर बढऩा शुरू कर देता है। इस प्रकार जब सूर्य मकर रेखा से भूमध्य रेखा, तदुपरांत कर्क रेखा की ओर बढ़ता है, उस समय को उत्तरायण काल कहा जाता है। उत्तरायण को सौम्यायन भी कहते हैं। मकर संक्रांति के दिन से कर्क संक्रांति तक की अवधि उत्तरायण कहलाती है। उत्तरायण देवताओं का दिवस है और दक्षिणायन देवताओं की रात्रि।
साल में आधे वर्ष तक सूर्य, आकाश के उत्तर गोलार्ध में रहता है। उत्तरायण के छह महीनों में सूर्य, मकर से मिथुन तक भ्रमण करते हैं। उत्तरायण काल को प्राचीन ऋषि मुनियों ने पराविद्याओं, जप, तप, सिद्धि प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण माना है। मकर संक्रांति उत्तरायण काल का प्रारंभिक दिन है इसलिए इस दिन किया गया दान, पुण्य, अक्षय फलदायी होता है।
सूर्य के धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश के कारण इसे मकर संक्रांति कहते हैं। इसे सौम्य आयण भी कहते हैं। जब सूर्य मकर राशि में अर्थात 21-22 दिसम्बर से लेकर मिथुन के सूर्य तक रहता है। छह मास का समय उत्तरायण कहलाता है। भारतीय मास के अनुसार यह माघ मास से आषाढ़ मास तक माना जाता है।
शिशिर, वसन्त और ग्रीष्म ऋतु उत्तरायण सूर्य का संगठन करती है। इस अयण में नूतन गृह प्रवेश, दीक्षा ग्रहण, देवता, बाग़, कुआं, बाबडी, तालाब आदि की प्रतिष्ठा, विवाह, चूडाकर्म और यज्ञोपवीत आदि संस्कार करना अच्छा माना जाता है।
उत्तरायण को हिंदू धर्म में बहुत ही पवित्र समय माना गया है। महाभारत में भी कई बार उत्तरायण शब्द का जिक्र मिलता है। महाभारत में कथा है कि बाणों की शैया पर पड़े भीष्म पितामह अपनी मृत्यु को उस समय तक टालते रहे, जब तक कि सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण नहीं हो गया। सूर्य के उत्तरायण होने के बाद ही उन्होंने अपने प्राण त्यागे। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने भी उत्तरायण का महत्व बताते हुए गीता में कहा है कि उत्तरायण के छह मास के शुभ काल में, जब सूर्य देव उत्तरायण होते हैं और पृथ्वी प्रकाशमय रहती है तो इस प्रकाश में शरीर का परित्याग करने से व्यक्ति का पुनर्जन्म नहीं होता, ऐसे लोग ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। इसके विपरीत सूर्य के दक्षिणायण होने पर पृथ्वी अंधकारमय होती है और इस अंधकार में शरीर त्याग करने पर पुनर्जन्म लेना पड़ता है।
ऋग्वेद में कहा गया है- सूर्य जड़-चेतन रूपी संपूर्ण जगत की आत्मा हैं। वेद सूर्यदेव की दिव्य शक्तियों का रहस्योद्घाटन करते हुए इन्हें संसार की उत्पत्ति का स्रोत बताते हैं। भारतीय ज्योतिष में सूर्य को आत्मा का कारक ग्रह बताया गया है। आत्मबल क्षीण होने पर ही मनुष्य को कई तरह के मनोरोग होते हैं। ऐसी स्थिति में सूर्योपासना से बड़ा लाभ मिलता है।