विचार / लेख

कांग्रेस को विरोधाभासों से उबरना होगा ?
18-Jan-2022 3:30 PM
कांग्रेस को विरोधाभासों से उबरना होगा ?

-डॉ. लखन चौधरी

पिछले दिनों जयपुर कांग्रेस रैली में राहुल गांधी जिस अडाणी को कोस रहे थे, राजस्थान की गहलोत सरकार ने उन्हें 1600 हेक्टेयर जमीन देने का निर्णय केबिनेट में ले लिया है। अडाणी ग्रुप और राजस्थान सरकार ने सोलर पार्क के लिए जॉइंट वेंचर कंपनी बनाई है। उसी कंपनी को जमीन आवंटन की मंजूरी दी गई है।

उल्लेखनीय है कि राहुल गांधी ने अडाणी-अंबानी को फायदा पहुंचाने के मुद्दे पर केंद्र सरकार को निशाने पर लेते हुए रैली में कहा था कि ‘पीएम सुबह उठते ही कहते हैं, अडाणी-अंबानी को क्या दें ? एयरपोर्ट, कोल मांइस, सुपर मार्केट ? जहां देखो वहां दो ही लोग दिखेंगे। चलो आज एयरपोर्ट दे देते हैं। आज किसानों के खेत दे देते हैं, खान दे देते हैं।’

कुछ दिनों पहले अडानी कोलकाता में ममता बेनर्जी के साथ चर्चाओं में थे। उस ममता बेनर्जी के साथ, जिन्होनें कुछ सालों पहले टाटा समूह को नैनो ड्रीम प्रोजेक्ट के लिए जमीन देने से इंकार करते हुए देशभर में पूंजीवादी ताकतों के खिलाफ अपनी मजबूत विचारधारा की छवि बनाते हुए सुर्खियां बटोरी थीं। बाद में टाटा समूह को गुजरात की यही मोदी सरकार ने न केवल जमीन दिया बल्कि तमाम तरह की रियायतें एवं छूट देकर वाहवाही लूटी थी। यह अलग मामला है कि भारतीयों के सपनों के लिए लाई गई नैनो ड्रीम प्रोजेक्ट बुरी तरह असफल हो गई, और टाटा समूह को नैनो कार बंद करने का निर्णय लेना पड़ा। कुछ दिनों या कुछ महिनों पहले इसी तरह की सुर्खियां छत्तीसगढ़ में भी देखने को मिली थी। बस्तर से लेकर कोरबा-सरगुजा तक के कई महत्वपूर्णं खदानों एवं परियोजनाओं के संबंध एवं संदर्भ में भूपेश बघेल एवं अडानी के अंर्तसंबंधों की बातें सामने आईं थीं। जिनकों लेकर छत्तीसगढ़ सरकार के भीतर ही मतभेद की खबरों की चर्चाएं थीं।

बहरहाल मुद्दे की बात यह है कि क्यों ऐसा होता है कि जिन बातों एवं विचारधाराओं की बातें राजनीतिक दलों के मुखिया करते हैं, उन्हीं की सरकारें उसे नहीं मानती हैं? राजनीतिक दलों के नेताओं के रैलियों एवं भाषणों में जिस तरह की सोच एवं नैतिकता दिखलाई देती है, या दिखलाई जाती है; हकीकत उस तरह की होती क्यों नहीं है? योजनाओं, घोषणाओं, कार्यक्रमों में नीतियों को जिस तरह से दिखाया, बताया जाता है, इसके परिणाम उसी तरह क्यों नहीं होते हैं ? सवाल यह भी उठता है, या उठना या उठाना लाजिमी है कि क्या बड़े कार्पोरेट घरानों की सहायता के बगैर सरकार चलाना असंभव या नामुमकिन है ?

गुजरात की मोदी सरकार या केन्द्र की मोदी सरकार के बारे में तो बातें साफ एवं स्पष्ट रहीं हैं या रहती हैं। भाजपा की विचारधारा के बारे में भी स्थितियां लगभग साफ होती हैं, लेकिन ममता बेनर्जी, गहलोत या भूपेश सरकार के बारे में इस तरह की चर्चाएं क्यों होती हैं? महत्वपूर्णं सवाल कि क्या कांग्रेस या विपक्ष इसी तरह की दोमुंही विचारधारा से भाजपा का मुकाबला करेगें ? क्या कांग्रेस या विपक्ष इसी तरह मोदी सरकार या भाजपा को 2024 या उससे आगे चुनौती देगें?क्या कांग्रेस या विपक्ष इसी तरह दोहरी नीतियों को लेकर जनता के पास वोट मांगने जायेंगे?

महत्वपूर्णं सवाल कि आखिर राहुल गांधी की बातों, निर्णयों को उन्हीं की कांग्रेस सरकारें मानती क्यों नहीं हैं? एक तरह कांग्रेस का ही एक वर्ग राहुल गांधी को नेतृत्व देना चाहता है, तो दूसरा धड़ा इससे सहमत नहीं होता, दिखता है। कई बार स्वयं राहुल गांधी नेतृत्व करने से भागते दिखते हैं। अनेक मामलों में कांग्रेस नेतृत्व को लेकर कांग्रेस ही राहुल गांधी की सोच एवं विचारधारा की विरोधी दिखती एवं बयानबाजी करती है। जब कांग्रेस नेतृत्व को लेकर राहुल गांधी ने ही गांधी परिवार के बाहर के किसी व्यक्ति को नेतृत्व देने की बात की थी, तो कांग्रेस के ही एक धड़े ने इसे सिरे से खारिज कर दिया था। अब ऐसी खबरें दिखाई जाती हैं कि गांधी परिवार के बाहर कांग्रेस का अस्तित्व नहीं है। पूंजीवादी सोच एवं ताकतों के खिलाफ कांग्रेस कितनी तैयार है ?

क्या इस तरह की विरोधाभासों एवं दोहरी सोच से कांग्रेस 2024 में मोदी-भाजपा की बहुमत वाली मजबूत सरकार का मुकाबला कर पायेगी? क्या इस तरह की नीतियों एवं निर्णयों से कांग्रेस या राहुल गांधी को देष की जनता अपना जनमत देगी? क्या इस तरह की दोहरी मानसिकताओं से कांग्रेस मोदी सरकार को सत्ता से उखाड़ बाहर कर सकती है? बहुत जरूरी सवाल बनता है कि क्या कांग्रेस 2024 के चुनाव में इसी तरह की विरोधाभासी नीतियों से चुनाव के लिए तैयार हो रही है?

इस बात में कोई दो मत या दो राय नहीं है कि कोरोना कालखण्ड में मोदी सरकार की गैर जरूरी नीतियों एवं निर्णयों से देष को जनजीवन से लेकर अर्थव्यवस्था तक अनेक समस्याओं एवं परेषानियों का सामना करना पड़ा। रोजगार, विकासदर, मौतें सभी मसलों में सरकार की अव्यवस्थाएं उजागर हुईं हैं। असंगठित क्षेत्र के करोड़ो लोगों की नौकरियां चली गईं। सडक़ों, अस्पतालों में हजारों लोगों की जानें गई हैं। महामारी से निपटने में सरकार असफल रही है। कोरोना कालखण्ड की तमाम अव्यवस्थाओं, नाकामियों एवं असफलताओं के बावजूद सरकार के विरूद्ध जनमत तैयार करने में कांग्रेस एवं विपक्ष असफल रहे हैं। यह भी एक सच्चाई है, जिसको कांग्रेस को ध्यान में रखकर आगे की नीतियां बनाने की जरूरत है।

बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार, सार्वजनिक क्षेत्रों के निजीकरण जैसे अनेकों ज्वलंत मुद्दे हैं, जिनकों लेकर आमजनता के बीच मोदी सरकार के प्रति नाराजगी है। मोदी-भाजपा के समर्थकों का एक बड़ा वर्ग है जो मोदी सरकार की इन नीतियों से इत्तफाक नहीं रखता है, नाखुश है। इसके बावजूद इन अहम मसलों को लेकर कांग्रेस एवं विपक्ष मोदी सरकार के विरोध में बड़ा जन आंदोलन खड़ा करने में आखिर असफल क्यों हो रही है ? या बेबस क्यों दिखती, लगती है ? सडक़ों पर कभी-कभार उतरने, लडऩे, आवाज उठाने के बावजूद कांग्रेस को लोगों का जन समर्थन क्यों नहीं मिल रहा है ? कांग्रेस के पक्ष में जनमत दिखता क्यों नहीं है ?

कांग्रेस, जब तक इस तरह के सवालों पर चिंतन-मंथन नहीं करेगी, तब तक केन्द्र की सत्ता में आने की सोचना भी कठिन है। पूंजीवादी सोच और ताकतों के विरूद्ध केवल रैलियों एवं भाषणों में बयानबाजी करने से जनसमर्थन मिलेगा, ऐसा सोचना बेवकूफी होगी। कांग्रेस को यदि 2024 या उससे आगे सत्ता चाहिए तो अब विरोधाभासी नीतियों एवं निर्णयों से उपर उठना होगा। आज भी देश में कांग्रेस का एक बड़ा समर्थक वर्ग है जो चाहता है कि केन्द्र में इस बार सत्ता परिवर्तन होना चाहिए। सवाल है कि क्या कांग्रेस स्वयं इसके लिए तैयार है ?

 

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