संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : देश में मुस्लिम विरोधी उन्माद उफान पर, कोई सुनवाई नहीं..
20-Jan-2022 4:42 PM
 ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : देश में मुस्लिम विरोधी उन्माद उफान पर, कोई सुनवाई नहीं..

मध्य प्रदेश से गुजर रही अजमेर जा रही एक मुसाफिर रेलगाड़ी में सफर कर रहे एक मुस्लिम आदमी और उसकी पारिवारिक परिचित एक हिंदू शादीशुदा महिला को बजरंग दल के लोगों ने ट्रेन से घसीटकर उतारा और उज्जैन रेलवे स्टेशन पर पुलिस के हवाले किया। उनका आरोप था कि यह लव जिहाद का मामला है। दूसरी तरफ जब पुलिस ने दरयाफ्त की तो पता लगा कि दोनों परिवार एक-दूसरे को अच्छी तरह जानते हैं, और दो परिवारों के ये लोग सिर्फ साथ में सफर कर रहे थे। लंबी पूछताछ के बाद बयान दर्ज करके पुलिस ने इन लोगों को तो जाने दिया लेकिन इन्हें ट्रेन से उतारकर, घसीटकर लाने वाले बजरंग दल के लोगों पर कोई कार्यवाही नहीं की, जबकि उसका वीडियो और उनके नाम पुलिस के पास थे, वे खुद ठाणे में मौजूद थे। पुलिस ने कहा कि इस आदमी-औरत ने बजरंग दल के लोगों के खिलाफ कोई शिकायत नहीं की इसलिए कोई जुर्म दर्ज नहीं हुआ. यह बात आज हैरान भी नहीं करती है कि आज के हिंदुस्तान में जिन गुंडों की मर्जी हो वे ट्रेन से किसी को भी उतार सकते हैं, घसीटकर पुलिस के पास ला सकते हैं, और उनके बेकसूर साबित होने के बाद, बालिग साबित होने के बाद भी पुलिस ऐसी गुंडागर्दी करने वालों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं करती।

यह हिंदुस्तान में आज एक सामान्य बात हो गई है, और इस तरह की सांप्रदायिकता, इस तरह की सांप्रदायिक हिंसा का इस तरह का नवसामान्यीकरण लोगों को हैरान करता है. यही वजह है कि आज ब्रिटेन से लेकर अमेरिका तक, तरह-तरह के मंचों पर भारत में सांप्रदायिकता की स्थिति और धार्मिक स्वतंत्रता के खात्मे को लेकर सवाल उठ खड़े हो रहे हैं। पश्चिम के विकसित लोकतंत्र में यह बात आम है कि वहां की संसदों में दूसरे देशों के आंतरिक मामले भी बहस के लिए उठाए जाते हैं और ऐसे मामलों को देखते हुए उन देशों के साथ पश्चिम के ये देश अपने रिश्ते तय करते हैं। हिंदुस्तान का इतिहास इस बात का गवाह है कि यहां पर जब सांप्रदायिक हिंसा के बड़े-बड़े मामले हुए तो पश्चिम के कई देशों ने हिंदुस्तान के सत्तारूढ़ लोगों को बरसों तक वीजा नहीं दिया था। और आज एक बार फिर उस तरह की नौबत आ रही है जब राह चलते अल्पसंख्यक लोगों को इस तरह घसीटकर उनके बीच दहशत पैदा की जा रही है, उनकी धार्मिक आजादी खत्म की जा रही है। लोगों को याद होगा कि कुछ महीने पहले छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में जब हिंदू संगठनों से जुड़े हुए कुछ लोगों ने एक ईसाई प्रार्थना सभा पर हमला किया और पुलिस थाने में लाने के बाद वहां पुलिस मौजूदगी में ईसाई पास्टर को सांप्रदायिक गुंडों ने जूतों से पीटा, तो उसके बाद ऐसे हमलावरों को जेल होने पर वह जेल छत्तीसगढ़ के भाजपा नेताओं के लिए तीर्थ जैसी हो गई थी, और सांप्रदायिक हिंसा करने वाले से मिलने के लिए नेताओं का तांता लग गया था। आज हिंदुस्तान के बहुत बड़े हिस्से में कानून सिर्फ उन्हीं के लिए रह गया है जिन लोगों को उन राज्यों की सरकार अपने साथ का मानती है अपना हिमायती और वोटर मानती है। जिन लोगों को राज्य सरकारें नापसंद करती हैं उनके कोई बुनियादी अधिकार नहीं रह गए हैं और ऐसे लोग लगातार प्रताडि़त हो रहे हैं, निशाने पर हैं, उनकी धार्मिक स्वतंत्रता खतरे में है। अब बहुत सी राज्य सरकारें तो दिखावे के लिए भी किसी किस्म की धर्मनिरपेक्षता या किसी किस्म की निष्पक्षता की बात भी नहीं करती हैं। सत्तारूढ़ नेता जो कि संविधान की शपथ लेने के बाद, या ईश्वर की शपथ लेने के साथ संविधान के मुताबिक सरकारी काम करने की शपथ लेते हैं, वे भी संविधान के ठीक खिलाफ काम करते हुए वोटों के ध्रुवीकरण में लगे हुए हैं। सत्तारूढ़ लोग जिन पर कानून के राज को चलाने की जिम्मेदारी है, वे रात-दिन सांप्रदायिकता की आग उगल रहे हैं क्योंकि इस देश की न्यायपालिका को अब इस बात की कोई परवाह नहीं दिखती है कि शपथ लेकर सत्ता में आने वाले लोग किस तरह संविधान कुचलते हुए देश में धर्मांधता और सांप्रदायिकता को बढ़ावा दे रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि एक-एक करके अलग-अलग राज्यों को लोकतंत्र के बजाय धर्मतंत्र बनाने की कोशिश हो रही है। यह सिलसिला बहुत ही खतरनाक है और इसने हिंदुस्तान के इतिहास की बहुत मुश्किल से बनाई गई एक सामाजिक चादर को छिन्न-भिन्न कर दिया है। जो लोग यह मानकर चलते हैं कि तानों को बानों से अलग करने के बाद भी सामाजिक चादर बनी रहेगी, उन्हें कुछ वक्त हाथकरघे पर खड़े रहकर देखना चाहिए कि जो वे कर रहे हैं, उससे समाज किस तरह का रह जाएगा, और वह कपड़ा न रहकर महज खुले धागे ही रह जाएंगे।

एक तरफ तो कहने के लिए हिंदुस्तान का सुप्रीम कोर्ट यह कहता है कि बालिग जोड़ा बिना किसी शादी के भी होटल के किसी कमरे में एक साथ रह सकता है, एक साथ जिंदगी जी सकता है, और उस पर कोई रोक नहीं लगाई जा सकती। दूसरी तरफ जब खुलकर सार्वजनिक जगहों पर सांप्रदायिक हिंसा इस तरह सिर चढक़र बोलती है तो न तो भाजपा के राज वाले मध्यप्रदेश में मानवाधिकार आयोग की नींद खुलती, न महिला आयोग की नींद खुलती, न भाजपा सरकार के मनोनीत अल्पसंख्यक आयोग के लोग कुछ कहते जबकि ट्रेन से घसीट कर उतारे गए हिंसा के शिकार आदमी के मुस्लिम होने की बात 2 दिनों से खबरों में आ रही है, और उसके वीडियो भी तैर रहे हैं। यह पूरा सिलसिला बताता है कि सत्ता पूरी बेशर्मी से अपने सांप्रदायिक एजेंडा को लागू कर रही है और चुनिंदा गुंडों की पीठ पर सत्ता का ऐसा मजबूत हाथ धरा हुआ है कि उन्हें किसी की परवाह नहीं है। वे न सिर्फ पुलिस की नजरों से दूर हिंसा कर रहे हैं, बल्कि हिंसा के साथ लोगों को इस उम्मीदों से थाने लेकर आ रहे हैं कि पुलिस भी उनका साथ देगी। यह एक अलग बात है कि कानून के ठीक खिलाफ काम होते देखने पर पुलिस उनका साथ नहीं दे पाई, लेकिन पुलिस की इतनी हिम्मत भी नहीं हुई कि वह ऐसे गुंडों के खिलाफ केस दर्ज कर सके। हिंदुस्तान आज कमजोर तबकों के खिलाफ बहुत ही हिंसक तौर-तरीकों वाला एक कमजोर और नाकामयाब लोकतंत्र हो गया है। इस लोकतंत्र में कहीं दलितों पर हमले हो रहे हैं, तो कहीं आदिवासियों पर। ईसाई और मुस्लिम अल्पसंख्यक तो अधिकतर राज्यों में स्थाई रूप से निशाने पर हैं। लोगों को अपनी धार्मिक प्रार्थना करने का भी हक अब नहीं रह गया है, अगर सत्ता के मन में उनकी बिरादरी के लिए अधिक मोहब्बत नहीं है तो। यह माहौल पूरी दुनिया में हिंदुस्तान की इज्जत की धज्जियां उड़ा रहा है, लेकिन यहां काम करने वाले सांप्रदायिक संगठन इसे अपने अनुकूल माहौल मानते हुए एक लोकतंत्र की जगह एक धर्मतंत्र बनाने में लगे हुए हैं। आज हिंदुस्तान में 20करोड़  मुस्लिमों के जनसंहार का फतवा खुलेआम दिया जाता है, और उसके महीने गुजर जाने के बाद भी सुप्रीम कोर्ट अब तक उस मामले पर बैठा ही हुआ है. यह सिलसिला खतरनाक है और जैसा कि कुछ हफ्ते पहले देश के बहुत से रिटायर्ड दिग्गज फौजी अफसरों ने चेतावनी दी है कि इस तरह का सांप्रदायिक माहौल देश की सुरक्षा के लिए भी खतरनाक है, और उनकी बात का बड़ा साफ-साफ मतलब यह है कि यह आंतरिक सुरक्षा से परे भी खतरनाक है।
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