विचार / लेख

पुष्पा फिल्म से कई तरह की असमहतियां..
21-Jan-2022 12:01 PM
पुष्पा फिल्म से कई तरह की असमहतियां..

-दिनेश श्रीनेत

‘पुष्पा’ फिल्म की काफी तारीफ हो रही है। कुछ वेबसाइट्स पर और जगह-जगह फेसबुक पर भी। किंचित जागरूक और बौद्धिक माने जाने वाले  लोगों की पोस्ट भी पढ़ी। तारीफ की कोई वजह स्पष्ट नहीं है। फिल्म मनोरंजक है, यह बात बार-बार अलग-अलग तरीके से कही गई है। मगर मनोरंजन कैसा? मेरी पुष्पा फिल्म से कई तरह की असमहतियां हैं।

पहली असहमति, यह फिल्म लाल चंदन की तस्करी को ग्लोरीफाई करती है। मैंने यह फिल्म ओटीटी पर देखी मगर नि:संदेह 300 करोड़ कमाने वाली इस फिल्म में जब पुष्पा पुलिस की आँख में धूल झोंककर लकडिय़ों के ल_े नदी में बहाता है तो जरूर सिनेमाहाल में तालियां बजी होंगी। इस वक्त, जब पर्यावरण की चिंताएँ किताबों से निकलकर हमारी आती-जाती सांस पर टिक गई हैं, जब पारिस्थितिकी एक राजनीतिक मुद्दा बन चुका है, ऐसी फिल्म को, ऐसी अवधारणा को कैसे माफ किया जा सकता है?

दूसरी समस्या है कि फिल्म लोकप्रिय सिनेमा की धारा में स्त्री विमर्श के एक बेहतरीन उभार को अवरुद्ध करती है। ‘पुष्पा’ पितृसत्तात्मकता को पुनसर््थापित करने वाली फिल्म है। पुष्पा का सारा कांप्लेक्स इस बात का है कि उसकी पहचान उसके पिता के नाम से नहीं हैं। फिल्म उसकी परवरिश के लिए संघर्ष करती उसकी मां को कहीं भी रेखांकित नहीं करती। पुष्पा इस बात से कुंठित है कि पिता के खानदान में उसकी स्वीकृति नहीं है।

फिल्म बार-बार इस बात को रेखांकित करती है कि पुष्पा के पास कोई फैमिली नेम नहीं है। इससे अच्छी तो सलीम-जावेद की वो पुरानी फिल्में थीं, जिसमें मां के संघर्ष दिखाया जाता था। सत्तर के दशक के अमिताभ का पूरा किरदार पिता से विद्रोह पर टिका था। ‘अग्निपथ’ और ‘दीवार’ के अमिताभ का सारा आंतरिक संघर्ष इस बात पर टिका है कि वह अपनी उस मां से अपने सारे कामों की मान्यता पा जाए, जिनसे वह बड़ा आदमी बना है। वो मां उसे मान्यता दे जो उसकी आदर्श थी।

मगर इस पुष्पा का कोई आदर्श नहीं है। यह तीसरा बड़ा कारण है, जिसकी वजह से इस फिल्म की आलोचना होनी चाहिए। पुष्पा जिस समाज के बीच उठता-बैठता है, उससे उसकी कोई आत्मीयता नहीं है। वह अपने समाज का नेता नहीं है। उसके पास सिर्फ अहंकार है।

‘पुष्पा नाम सुनकर फ्लावर समझा क्या?... फॉयर है मैं।’ यह डायलॉग इन दिनों बहुत हिट हुआ है, मगर यह कौन सा नायक है? इस नायक का कोई आदर्श नहीं है। ‘पुष्पा-द राइज़’ में उसकी लड़ाई चंदन के तस्करों से इसलिए है क्योंकि वह उनकी दुनिया में अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता है। यह न तो किसी वर्ग संघर्ष की कहानी है, न ही उसके अपने निजी संघर्ष की कहानी है।

पुष्पा सत्तर के दशक के अमिताभ की तरह अपने पिता से नफरत नहीं करता है, फिल्म के क्लाइमेक्स में वह अपने रक्त पर गर्व करता है। यह फिल्म दोबारा पितृसत्ता को मजबूती देती है। इस फिल्म की क्यों तारीफ होनी चाहिए यह मेरी समझ से परे है। (फेसबुक से)

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