अंतरराष्ट्रीय

रहने को कितनी जगह चाहिए: सह-आवास पर ध्यान देने का वक्त
22-Jan-2022 12:28 PM
रहने को कितनी जगह चाहिए: सह-आवास पर ध्यान देने का वक्त

आने वाले दशकों में शहरों की बढ़ती आबादी को देखते हुए लाखों घरों की जरूरत होगी. निर्माण सेक्टर ग्रीन हाउस गैसों का प्रमुख उत्सर्जक है, ऐसे में सीओटू में कटौती को लेकर उद्योग जगत के पास क्या उपाय हैं, ये सवाल उभरे हैं.

  डॉयचे वैले पर नताली मुलर की रिपोर्ट-

जर्मनी के पर्यावरण मंत्रालय के अनुसार यहां निर्माण परियोजनाएं हर रोज 52 हेक्टेयर जमीन निगल रही हैं. ये फुटबॉल के 73 मैदानों के बराबर है. इन परियोजनाओं का एक बड़ा हिस्सा आवासों के साथ साथ उद्योग और वाणिज्य ठिकानों के निर्माण पर केंद्रित है. लगातार निर्माण, पर्यावरण पर भी असर डालता है- वो वन्यजीव रिहाइश, कृषि योग्य मिट्टी, कार्बन भंडारण और बाढ़ के पानी की निकासी को भी प्रभावित कर सकता है.

सरकार ने 2030 तक 30 हेक्टेयर नयी भूमि पर ही विकास की सीमा निर्धारित करने का फैसला किया है. इसी दौरान, सस्ते आवास की गंभीर किल्लत से निपटने के लिए हर साल उसने चार लाख नयी इकाइयों के निर्माण का संकल्प भी किया है. जर्मन सस्टेनेबेल बिल्डिंग काउंसिल में शोध और विकास की निदेशक आना ब्राउने के मुताबिक जलवायु संकट से जूझते हुए और शहरी आवास की मांग को पूरा करते हुए, जगह के समुचित इस्तेमाल के बारे में फिर से सोचे जाने की जरूरत भी है.

ग्रीन फेंस पॉडकास्ट पर उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "पिछले 50 साल में हमने अपनी निजी स्पेस को दोगुना किया है. हमें अभी भी बड़ी जगहों का ही ख्याल आता है, परिवार के लिए निर्माण करने का, अगर बच्चे हैं तो आमतौर पर 20 साल के लिए ही ये ठिकाना इस्तेमाल होता है. और फिर सब इधर-उधर चले जाते हैं और कुछ और करने लगते हैं. मैं नहीं समझती कि यह भविष्य के लिए बहुत आकर्षक है.”

1960 में औसत जर्मन व्यक्ति के पास सिर्फ 19 वर्ग मीटर की लिविंग स्पेस हुआ करती थी. तीन दशक बाद वो स्पेस बढ़कर 34 वर्ग मीटर हो गई. और आज तीस साल और हो चुके हैं ये स्पेस 47 वर्गमीटर है. इसकी बहुत सी वजह हैं, जैसे कि संपत्ति का ऊंचा होता स्तर, ज्यादा से ज्यादा अकेले रहते लोग, और बूढ़ी होती आबादी क्योंकि उम्र के साथ अकेले रहने वालों का अनुपात बढ़ता जाता है. वरिष्ठ नागरिकों वाले घरों में अक्सर एक या दो लोग ही होते हैं और प्रति व्यक्ति औसत लिविंग स्पेस (60 वर्ग मीटर) युवा घरों (40 वर्गमीटर) के मुकाबले ज्यादा पाई जाती है.
ज्यादा स्पेस का मतलब है ज्यादा सीओटू

हमारे घरों का आकार महत्त्वपूर्ण है क्योंकि आमतौर पर जगह जितना ज्यादा होगी, उतना ज़्यादा निर्माण सामग्री की जरूरत होगी और गर्मी या ठंडक के लिए उतनी ही ज्यादा ऊर्जा की जरूरत होगी. ब्राउने कहती हैं, "प्रत्येक वर्ग मीटर की बचत का मतलब है आधा टन कार्बन उत्सर्जन में कटौती.” यूं समझिए कि यहां आधा टन सीओटू उत्सर्जन उतना ही है जितना की लंदन से सिंगापुर की एकतरफा उड़ान में प्रति यात्री होने वाला सीओटू उत्सर्जन.

जर्मनी में निर्माण से करीब 40 फीसदी ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन होता है. ऊर्जा के बेहतर इस्तेमाल और जलवायु अनुकूल सामग्रियों के इस्तेमाल से कार्बन फुटप्रिंट को कम किया जा सकता है. फिर भी ब्राउने कहती हैं कि जगह की भूमिका को लेकर और अधिक जागरूकता होनी चाहिए.  उनके मुताबिक 47 वर्ग मीटर के बजाय 20-30 वर्ग मीटर जगह एक औसत व्यक्ति के लिए उपयुक्त होनी चाहिए.

यूरोपीय औसत की अपेक्षा जर्मनों के पास थोड़ा ज्यादा लिविंग स्पेस होती है. नाइजीरिया के लोगों की स्पेस का ये करीब आठ गुना ज्यादा है. उधर अमेरिका में यूरोपीय लोगों की स्पेस की करीब दोगुना स्पेस का दावा किया जाता है.
भविष्य में निर्माण की चुनौती

कार्बन उत्सर्जन पर काबू रखते हुए, दुनिया की बढ़ती हुई आबादी के लिए पर्याप्त आवास व्यवस्था मुहैया कराना आने वाले दशकों में एक बहुत बड़ी चुनौती बनने वाला है. इमारत और निर्माण के वैश्विक गठबंधन के मुताबिक 2060 में जितनी इमारतें अस्तित्व में आ जाने का अनुमान लगाया गया है, उनकी आधी अभी बनी भी नहीं हैं.

अगले 30 साल में और ढाई अरब लोग शहरों का रुख कर रहे होंगे, खासकर अफ्रीका और एशिया में. ब्राउने कहती हैं, "इसमें कोई शक नहीं है कि उन तमाम लोगों के लिए हमें जगह बनानी होंगी लेकिन अभी सवाल ये है कि वो हम कैसे करेंगे और कहां हम उन्हें मुहैया कराएंगे- न सिर्फ मकान बल्कि साफसुथरी जीवन स्थितियां भी.” वह कहती हैं कि शहरी आवास और स्पेस की कमी से निपटने की एक संभावना खुलती है साझेदारी यानी शेयरिंग में.
सह-आवास की अवधारणा का फिर से उदय

ब्रिटेन की न्यूकासल यूनिवर्सिटी में सोशल ज्यॉगफ्री की प्रोफेसर हेलेन जारविस ने ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और दूसरे देशों में सह-आवास व्यवस्थाओं पर शोध किया है. कोहाउसिंग यानी सह-आवास एक ऐसी सामुदायिक व्यवस्था है जो बहुत सारे लोग या परिवार संयुक्त स्वामित्व और प्रबंधन में चलाते हैं. व्यक्तियों के पास अपनी निजी स्पेस विशेषतौर पर रहती है लेकिन वे सबके लिए उपलब्ध कॉमन एरिया का भी उपयोग कर सकते हैं जहां साझा सुविधाएं हैं जैसे कि लॉन्ड्ररी कक्ष, टूल वर्कशॉप या बैठक या डाइनिंग कक्ष.

जारविस कहती हैं, "मैं भविष्य को इस तरह देखती हूं कि वहां शेयरिंग का बुनियादी ढांचा होगा ना कि निजी स्वामित्व. जाहिर तौर पर सस्ती रिहाइश और पारिस्थितिकीय टिकाऊपन जैसी जरूरत को भी वहीं जगह मिलेगी.” वह कहती हैं कि सामूहिक रिहाइश उतनी ही पुरानी है जितना कि आवासीय व्यवस्था फिर भी आज इसमें एक नया उभार तो देखा ही जा रहा है.

छोटी छोटी जगहों का उपयोग
हाल के दशकों में जिस एक और प्रवृत्ति ने ध्यान खींचा है वो है- टाइनी हाउस मूवमेंट यानी लघु आवास आंदोलन. ये आंशिक रूप से पर्यावरणीय चिंताओं और सस्ते आवास की जरूरत से निकला है. बर्लिन स्थित वास्तुकार फान बो ले-मेंत्सेल ने टाइनी हाउस यूनिवर्सिटी नाम से एक एनजीओ 2015 में खोला था. मकसद था उसके दायरे में 10 वर्ग मीटर वाले छोटे छोटे, सस्ते घरों का निर्माण. भले ही वे मानते हैं कि आकार में कटौती एक अच्छा कदम है लेकिन उनका जोर इस बात पर भी है कि छोटी जगहें, समस्या का समाधान नहीं हैं.

ले-मेंत्सेल कहते हैं, "अगर आप जबरन या विवश होकर एक छोटी जगह में रहते हैं, तो कुछ ही समय में आप पागल हो सकते हैं. ” वह कहते हैं कि इसके बजाय, अपेक्षाकृत थोड़ा बड़े घर या सामुदायिक रिहाइश के साझेदारी वाले किसी बड़े घर के एक विस्तार के रूप में- ऐसे लघु घर उपयोगी हो सकते हैं. ले-मेंत्सेल का कहना है, "लेकिन अगर आप ये सुनिश्चित करना चाहते हैं कि सात अरब लोगों को एक सामुदायिक स्पेस मिल सके तो जाहिर है व्यक्तिगत स्पेस को तो छोटा होना ही होगा.”

अपेक्षाकृत छोटी जगहें सस्ती हो सकती हैं और उनसे सीओटू उत्सर्जन भी कम हो सकता है लेकिन ले-मेंत्सेल कहते है कि टाइनी हाउस मूवमेंट को गंभीरता से देखने की जरूरत हैः "छोटे घर के खरीदार अक्सर न सिर्फ एक बल्कि दो अपार्टर्मेंटों और बहुत सारे मकानों के मालिक होते हैं और इसके अलावा अपनी संपत्ति में वो एक प्यारा सा नन्हा घर भी जोड़ लेते हैं.”

मौजूदा इमारतों का दोबारा उपयोग भी, एक अविकसित जमीन को इस्तेमाल किए बिना घर बनाने का एक तरीका है. जर्मनी में डार्मश्टाट टेक्निकल यूनिवर्सिटी और एडुआर्ड पेस्टेल इन्स्टीट्यूट के एक अध्ययन के मुताबिक जर्मनी के अंदरूनी शहरी इलाकों में दफ्तरों, प्रशासनिक भवनों, दवा फैक्ट्रियों और पार्किंग गैरेजों के ऊपर मंजिलें बनाकर करीब 27 लाख अपार्टमेंट निकाले जा सकते हैं.

महामारी से उभरी अकेलेपन की समस्या
कोरोनावायरस की महामारी की वजह से इमारती और निर्माण सेक्टर से होने वाले सीओटू उत्सर्जन में वैश्विक गिरावट देखी गई है. इमारतों और निर्माण की वैश्विक हालात रिपोर्ट के मुताबिक 2007 से ऐसी गिरावट नहीं देखी गई थी. हालांकि माना जाता है कि ये मंदी ज्यादा दिन नहीं रहने वाली है.

प्रोफेसर जारविस कहती हैं कि पिछले दो साल में आवास के मायने बदले भी हैं. वह कहती हैं, "महामारी ने अकेलेपन पर वाकई रोशनी डाली है. अकेले रहते लोग, सामाजिक अलगाव और बूढ़ी होती आबादी- सह-आवास की अवधारणा पर फिर से नजर डालने के लिए एक बड़े उत्प्रेरक की तरह हैं.” उनके मुताबिक, "हमें एकल पारिवारिक रिहाइशों में ही नहीं रहना चाहिए जहां हम चार में से एक व्यक्ति- कई, कई सारे दशकों तक हर हाल में अकेला रहने वाला सिर्फ एक व्यक्ति होगा.” (dw.com)
 

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news