संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : गरीबी-बेरोजगारी को नैतिक और सामाजिक पतन से भी जोडक़र देखने की जरूरत है
23-Jan-2022 11:57 AM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  गरीबी-बेरोजगारी को नैतिक और सामाजिक पतन से भी जोडक़र देखने की जरूरत है

भारत में रोजगार को लेकर पिछले दिनों सामने आई खबरों को देखने की जरूरत है। देश के एक आर्थिक सर्वे संस्थान, सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनामी, सीएमआईई, के मुखिया महेश व्यास ने अभी-अभी यह कहा है कि कोरोना महामारी के दौर में एक करोड़ से ज्यादा लोगों ने अपना काम खोया है। उन्होंने एक लाख से अधिक घरों में किए गए एक सर्वे के आधार पर यह नतीजा सामने रखा है कि महामारी की वजह से पिछले बरस देश के 97 फीसदी घरों की कमाई कम हुई है। उन्होंने यह भी कहा कि इनमें से संगठित क्षेत्र के रोजगार, लोगों को वापस मिलना मुश्किल होगा, और उसमें बहुत वक्त लगेगा, लेकिन असंगठित क्षेत्र के रोजगार लोगों को वापस मिल सकते हैं। इस संस्थान की यह रिपोर्ट देश में आज बेरोजगारी के कुल आंकड़ों को भी बतलाती है कि आज करीब 5 करोड़  30 लाख लोग बेरोजगार हैं और इनमें बड़ा-बड़ा हिस्सा महिलाओं का है। यह आर्थिक सर्वे कहता है कि साढ़े तीन करोड़ तो ऐसे लोग हैं जो काम की तलाश कर रहे हैं कमा और करीब पौने दो करोड़ लोग ऐसे हैं जो काम करना तो चाहते हैं लेकिन काम पाने के लिए कुछ कर नहीं रहे हैं। ऐसे में इन 3.5 करोड़ लोगों को काम देना बहुत जरूरी है, और यह एक बहुत बड़ी चुनौती भी है।

इन आंकड़ों को देखें तो यह समझ पड़ता है कि आर्थिक मंदी या बेरोजगारी देश में कितनी है। देश की जीडीपी के आंकड़ों को सामने रखने का कोई मतलब इसलिए नहीं है कि वह एक अंबानी और एक बेरोजगार, इनके आंकड़ों को मिलाकर एक औसत तस्वीर पेश करते हैं जो देश कि अर्थव्यवस्था के विश्लेषण में एक दूसरे काम तो आ सकती है, लेकिन जो बेरोजगारी को समझने में काम नहीं आ सकती, या लोगों की गरीबी का एहसास उससे नहीं हो सकता। अभी-अभी इससे बिल्कुल ही अलग मुद्दे पर एक रिपोर्ट सामने आई है जिसे इससे जोडक़र देखना भी जायज होगा। बीबीसी ने एक रिपोर्ट में याद किया है कि किस तरह 40 वर्ष पहले मुंबई में एक-एक करके कपड़ा मिलें बंद होती चली गईं, और लाखों लोग बेरोजगार हो गए। कपड़ा मिलों में काम करने वाले लोगों का काम चले गया, उनके लिए दूसरे रोजगार थे नहीं, और उन्हें खुद कोई दूसरा काम करना आता भी नहीं था, नतीजा यह निकला कि उनके घरों की अर्थव्यवस्था तबाह हो गई, और उनके नौजवान बच्चे, कम से कम उनमें से बहुत से, जिंदा रहने के लिए जुर्म से जुड़ गए। मुंबई के कुख्यात अंडरवल्र्ड का इतिहास बताता है कि यही वह दौर था जिसमें वहां के माफिया सरगनाओं के गिरोहों में नौजवान जुड़ते चले गए। जो लोग कपड़ा मिलों में ट्रेड यूनियन के नेता थे उनमें से कुछ लोग बड़े मुजरिम हो गए, और उन्होंने अपने गिरोह बड़े कर लिए। वही वक्त था जब देश का सबसे कुख्यात अंडरवल्र्ड सरगना दाऊद इब्राहिम अपने गिरोह को बनाकर, उसे बढ़ाते चले गया क्योंकि स्कूल-कॉलेज छूट जाने पर, और घर की कमाई खत्म हो जाने पर मिल मजदूरों के बच्चे कोई ना कोई काम तलाश रहे थे, और जुर्म की दुनिया की कमाई ने उन्हें अपनी तरफ खींच लिया था।

अमेरिका में 1930 का दशक लोगों को याद है जब वहां की सबसे भयानक मंदी आई थी, और उस दौर में लोगों के जीवन मूल्य तक बदल गए थे, और बहुत सी अमेरिकी लड़कियों और महिलाओं ने जिंदा रहने के लिए या घर चलाने के लिए उस दौर में बदन बेचना भी शुरू किया था। महिलाओं के लिए रोजगार अधिक नहीं थे, और जब आदमी घर बैठ गए थे, तो लड़कियों और महिलाओं को किसी भी किस्म का काम करना पड़ा। उस दौर में सेक्स इतना सस्ता बिकने लगा कि एक मेक्सिकन लडक़ी चौथाई डॉलर में, अफ्रीकी या एशियन लडक़ी आधे डॉलर में, और गोरी या यूरोपियन लडक़ी पौन से एक डॉलर में सेक्स के लिए मिलने लगी थी। जिंदा रहना सबसे अधिक जरूरी रहता है और जब बदन के अलग-अलग अंगों के महत्व को देखा जाता है, तो उनमें पेट की बारी सबसे पहले आती है। पेट चलाने के लिए कई किस्म के काम करने पड़ते हैं और दुनिया भर में वेश्यावृत्ति का इतिहास यही कहता है कि बहुत सी महिलाएं अपने परिवार के लोगों का पेट भरने के लिए मजबूरी में इस काम में आती हैं, और फिर इसी की होकर रह जाती हैं। किसी भी देश में वहां की अर्थव्यवस्था के सारे आंकड़े हकीकत नहीं बताते हैं, बल्कि वे एक गलत तस्वीर पेश करने के हिसाब से भी पेश किए जाते हैं, जिससे ऐसा लगे कि देश के आम लोग खुशहाल हैं।

एक अलग रिपोर्ट यह बतलाती है कि हिंदुस्तान आर्थिक असमानता की एक जलती हुई मिसाल है जिसमें देश के 10 फीसदी सबसे ऊपर के लोग 57 फीसदी राष्ट्रीय आय पाते हैं। इन आंकड़ों को और बारीकी से देखें तो सबसे अधिक कमाने वाले 1 फीसदी लोग देश की 22 फीसदी कमाई पर काबिज हैं, जबकि 50 फीसदी गरीब आबादी की कमाई कुल 13 फीसदी है। यह रिपोर्ट भी पिछले महीने ही जारी हुई है और यह अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट दुनिया के अलग-अलग देशों में आर्थिक असमानता के आंकड़े पेश करती है। हिंदुस्तान के बारे में इसका कहना है यह गरीबी और विकराल आर्थिक असमानता वाला देश है जहां का एक छोटा तबका अति संपन्न है। देश के सकल राष्ट्रीय उत्पादन के आंकड़े या प्रति व्यक्ति आय के आंकड़े फर्जी होते हैं। वे जिंदगी की हकीकत की एक झूठी तस्वीर पेश करते हैं। लोगों को याद होगा कि छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाके दंतेवाड़ा की प्रति व्यक्ति आय कुछ बरस पहले सबसे अधिक बता दी गई थी क्योंकि वहां से भारत सरकार की एक सबसे बड़ी खनन कंपनी एनएमडीसी लोहा खोदकर निकालती थी। उस जिले की लौह अयस्क की कमाई को वहां की प्रति व्यक्ति आय में जोडक़र एक नाजायज तस्वीर पेश की गई थी जिसमें आम आदिवासी लाखों रुपए कमाते दिख रहे थे। जिन लोगों को आर्थिक मंदी या बेरोजगारी बहुत बड़ी बात नहीं लगती है उन्हें यह समझना चाहिए कि इसी दौर में लोगों का इलाज छूट जाता है, बच्चों की पढ़ाई छूट जाती है, खुद बेरोजगार लोग बुरी आदतों में फंस जाते हैं, परिवारों का खान-पान कमजोर हो जाता है। यही वक्त रहता है जब परिवार के लोग किसी गलत राह को पकड़ सकते हैं। अमेरिका का आर्थिक मंदी का इतिहास यह बताता है कि किस तरह उसी दौर में बेरोजगारी से जूझ रहे लोग अलग-अलग जुर्म में शामिल होने लगे थे। यही बात मुंबई की कपड़ा मिलों के बंद होने पर वहां देखने मिली और अंडरवल्र्ड के गिरोह ओपन पर पनपे।

इसलिए आर्थिक मंदी और बेरोजगारी के, या आर्थिक असमानता के आंकड़ों को एक सामाजिक नजरिये के साथ भी देखा जाना चाहिए क्योंकि हर कोई रोजगार मिलने का इंतजार करते बैठे नहीं रहते हैं, उनमें से बहुत से लोग और उनके परिवार के लोग मजबूरी में गलत राह इसलिए भी पकड़ लेते हैं कि सही राह पर चलने की कोई राजनीतिक प्रेरणा आज हिंदुस्तान में रह नहीं गई है। ऐसी कोई मिसालें नहीं रह गई हैं कि सही काम करना देश को आगे बढ़ाने का काम है क्योंकि लोग जब देश के नेताओं की तरफ देखते हैं तो उन्हें ऐसी कोई चीज नहीं सूझती कि तकलीफ पाते हुए भी सही राह पर चलना चाहिए। देश के नेताओं को अपनी खुद की मिसाल देखनी चाहिए कि वे लोगों को किन बातों के लिए प्रेरित कर रहे हैं, और फिर यह देखना चाहिए कि देश की आर्थिक बदहाली, बेरोजगारी, गरीबी, और आर्थिक असमानता मिलकर जुर्म के लिए किस तरह एक उपजाऊ जमीन पेश कर रहे हैं। साम्प्रदायिकता, और धर्मान्धता कोई आर्थिक विकल्प नहीं हैं, उसके झांसे में पड़े हुए लोग अपनी बेरोजगारी को कुछ वक्त भूल सकते हैं, लेकिन फिर उनके सामने गलत काम करने या बेरोजगार रहने के ही रास्ते रहेंगे।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news