संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : क्या सचमुच लोगों को इतनी रफ़्तार से एक-एक सामान की खरीदी की जरूरत है ?
24-Jan-2022 5:31 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  क्या सचमुच लोगों को इतनी रफ़्तार से एक-एक सामान की खरीदी की जरूरत है ?

हिंदुस्तान जैसे देश में एक वक्त घर पर माँ, या नानी-दादी साल भर के मसाले, और साल भर के लिए चार की तैयारी एक साथ कर लेती थीं। लेकिन अब बाजार में अचार मिलने लगा है तो घरों में बनना कम भी हो गया है। शहरी जिंदगी में न तो घरों में अचार-पापड़ बनाने के लिए अधिक जगह रहती, और न ही कामकाजी महिला वाले घर में इसके लिए वक्त रहता। इसलिए बाजार ने पापड़, बड़ी, अचार जैसे परंपरागत घरेलू सामानों को अब छोटे या बड़े कारखानों में बनाना शुरू कर दिया है। ठीक इसी तरह अब साल भर के सामान किसी मसाले के मौसम में बनाकर रखने की जरूरत कम रह गई है क्योंकि अब बाजार से टेलीफोन या ऑनलाइन आर्डर करके सामान मंगवाए जा सकते हैं। यह बात बढ़ते-बढ़ते यहां तक आ गई है कि हिंदुस्तान जैसे बाजार में अब कुछ कंपनियों ने कई शहरों में 10 मिनट में राशन पहुंचाने का काम शुरू किया है और इनके मोबाइल-एप्प पर आर्डर करके महिलाएं पकाना शुरू कर देती हैं कि 10 मिनट में बाकी सामान पहुंच जाएगा। एक वक्त रहता था कि साल भर का सामान घर पर रहता था, अब पकाना शुरू हो गया है और आखिर में डालने वाला मसाला भी खरीदा जा रहा है ! टेक्नोलॉजी और बाजार ने मिलकर जिंदगी के तौर-तरीकों को इतना बदल दिया है कि अब लोग 30 मिनट के भीतर पका हुआ खाना, और 10 मिनट के भीतर सूखा राशन न मिलने पर कंपनी से जुर्माने की उम्मीद करते हैं। कुछ शहरों में कुछ फास्ट फूड कंपनियां 30 मिनट से देर होने पर खाना मुफ्त में देकर जाती हैं। लेकिन जो बात लगातार सुनाई पड़ रही है कि मोटरसाइकिल पर ऐसा खाना या ऐसा राशन पहुंचाने वाले लोगों पर ट्रैफिक के नियम कायदों को तोड़ते हुए अंधाधुंध और रफ्तार से जाने का जो दबाव है, वह उन पर बहुत बड़ा तनाव बनकर खड़ा रहता है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि जब कारोबारी मिनटों के भीतर इस तरह की डिलीवरी का वायदा करते हैं, तो वह जायज वायदा नहीं रहता क्योंकि ट्रैफिक के नियमों को तोड़े बिना ऐसा कर पाना मुमकिन भी नहीं रहता। डिलीवरी करने वाले लोग दिखने में पैंट-शर्ट पहने हुए और मोबाइल फोन लिए हुए मोटरसाइकिल चलाते दिखते हैं, लेकिन अगर उनके पीठ पर सामानों का बोझ देखें तो ऐसा लगता है कि वे 21वीं सदी के नए गुलाम हैं जो कि मोटरसाइकिल पर चलते हैं।

लेकिन सामान पहुंचाने वाले लोगों की दिक्कतें इस पूरे मुद्दे का एक पहलू भर है, हम तो इसके बारे में सोचते हुए इसके कुछ दूसरे पहलुओं पर अधिक सोच रहे हैं कि किस तरह बाजार की सहूलियत ने लोगों की सोच को खत्म करना शुरू कर दिया है। शहरों में जब बड़े-बड़े बाजार खुले तब भी लोग घर से लिस्ट बनाकर निकलते थे और महीने भर का राशन एक साथ लेकर आते थे। लिस्ट से परे भी जो सामान वहां सजे दिखते थे, उनमें से कुछ और खरीदना भी हो जाता था। लेकिन अब कुछ तो पिछले डेढ़ बरस में कोरोना और लॉकडाउन के चलते हुए, और कुछ लोगों के घर बैठे ऑनलाइन खरीदारी की आदत बढऩे से, अब लोग महीने भर का राशन भी लेकर नहीं आते, और घर बैठे छोटी-छोटी चीजों को बुलाते चलते हैं। ऐसी हर छोटी-छोटी खरीदारी के पीछे पैकिंग भी रहती है, और एक-एक सामान को पहुंचाने वाले लोगों की गाड़ी का पेट्रोल भी जलता है, लागत जरूर कम आ सकती है और लोगों को लग सकता है कि ऑनलाइन खरीदारी सस्ती है, लेकिन वह लागत धरती दूसरी तरह से ढो रही है जिसमें कूरियर से आने वाले एक-एक सामान की पैकिंग शामिल रहती है, और उसे डिलीवर करने वाले लोगों की गाडिय़ों का ईंधन। लेकिन इससे परे एक और बात यह है कि लोगों की सोच एक असंगठित और नियोजित सोच के बजाय लापरवाह होती चल रही है क्योंकि अब लोग आधी रात को भी ऑनलाइन किसी सामान का आर्डर कर देते हैं, उसी वक्त भुगतान कर देते हैं, और यह करते हुए उन्हें यह मालूम ही नहीं रहता कि कितने अलग-अलग शहरों से उनके सामान आने वाले हैं। यह एक नई बाजार व्यवस्था तो है जिसमें अदृश्य बाजार और अदृश्य दुकानें दुनिया भर के अलग-अलग हिस्सों से सामान पहुंचाती हैं, और किसी एक शहर की 2-4 बड़ी दुकानों से जो काम चल जाता था, उसकी जगह अब लोग पता नहीं कितने शहरों से अपने लिए पार्सल रवाना करवाते हैं। सामान मिलने के बाद पसंद ना आए तो उसे वापस भी भेज देते हैं।

बाजार व्यवस्था के तहत जो मुनाफा दुकानों में कमाया जाता था, वह अब घटकर कम हो गया है और लोगों को शायद सामानों के दाम कुछ कम पड़ रहे हैं, लेकिन दामों से परे पर्यावरण भी एक दाम चुका रहा है जिसमें छोटे-छोटे सामान की अलग-अलग पैकिंग और उनका अलग-अलग ट्रांसपोर्ट शामिल है। यह भी है कि लोग अब अपनी जिंदगी की जरूरतों को बैठकर ठंडे दिल-दिमाग से तय करने के बजाए मनमाने वक्त पर मनमाने तरीके से तय करते हैं। लोग अब मोबाइल फोन हासिल हो जाने से, पहले रवाना हो जाते हैं और उसके बाद फोन पर बात करते हुए जाने की जगह का पता लगाते हैं। लोग अब रसोई में पकाना शुरू कर देते हैं, और बाजार से मसाले बाद में बाद में आर्डर करते हैं। क्या इससे जिंदगी का चीजों को सुनियोजित तरीके से करने का एक सिलसिला खत्म नहीं हो रहा है? या फिर ऑनलाइन दाम कम होने से किसी और चीज की फिक्र करने की जरूरत नहीं रह गई है? टेक्नोलॉजी और बाजार के नए तौर-तरीकों ने सब कुछ बदलकर रख दिया है, कई चीजों को सस्ता कर दिया है, लेकिन आज जितनी आसानी से तरह तरह का पका हुआ खाना घर पहुंच जाता है, उसे देखकर लगता है कि क्या इतनी जल्दी-जल्दी बाहर का खाना खाकर लोग अपनी सेहत को कुछ खतरे में नहीं डाल रहे हैं? और क्या खाने पर कुछ अधिक खर्च नहीं कर रहे हैं? जब बाजार से पका हुआ आता है, और अब तो एक कप चाय तक बनी हुई डिलीवर हो जाती है, तो क्या लोगों का गैर जरूरी खाना-पीना नहीं बढ़ रहा है? रेस्तरां में भी खाने का एक वक्त रहता था, अब तो रेस्तरां बंद हो जाने के बाद भी महानगरों में शायद पूरी रात खाने की डिलीवरी चलती रहती है। तो यह इतनी किस्म की ऐसी सहूलियतें हो गई हैं कि अब न लोगों के तन को पहले से कुछ सोचना पड़ता, और न उनके मन को। इससे जिंदगी का तौर-तरीका जिस तरह बदल रहा है, उसे भी देखना होगा कि इससे नफा कितना हो रहा है और नुकसान कितना? बहुत तेजी से, बहुत आसानी से हासिल हो जाने से मिजाज जितना लापरवाह, और बिना जरूरत गैरजिम्मेदार हो गया है, उसके खतरे भी समझने की जरूरत है।
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