संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : वोटों के लिए सरकारी तोहफों के वायदों को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट फैसला जरूरी
27-Jan-2022 4:14 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  वोटों के लिए सरकारी तोहफों के वायदों को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट फैसला जरूरी

Photo credit The New Indian Express

सुप्रीम कोर्ट में चुनाव कानून में सुधार के लिए एक दिलचस्प मामला चल रहा है। हालांकि यह जनहित याचिका भाजपा से जुड़े हुए एक वकील ने दायर की है और याचिका में पंजाब, उत्तर प्रदेश जैसे चुनावी राज्यों में राजनीतिक दलों द्वारा वोटरों से किए जा रहे तोहफों के वायदों को लेकर इसे भ्रष्ट चुनावी आचरण मानने की अपील की है और कहा है कि इस पर आईपीसी की कुछ धाराओं के तहत इसे जुर्म मानकर सजा दी जाए। सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका की भावना से सहमति जताई है और चुनाव आयोग और केंद्र सरकार को नोटिस भेजा है कि वह बतलाए कि चुनावों में मुफ्त के उपहार का लालच देने वाले राजनीतिक दलों की मान्यता खत्म की जानी चाहिए या नहीं। यह मामला बहुत सालों से अदालत में चल रहा है और अलग-अलग समय पर चुनाव आयोग ने हाथ खड़े कर दिए हैं कि उसे मिले अधिकारों में वह ऐसी कोई कार्यवाही नहीं कर सकता। उल्लेखनीय है कि मुफ्त सामान देने के वायदों के कारण कुछ पार्टियां कर्ज में डूबे हुए राज्यों में भी सरकार बनाने की संभावनाएं पा लेती हैं. देश की एक प्रतिष्ठित संस्था एडीआर ने 2019 के लोकसभा चुनाव में एक सर्वे किया था जिससे यह पता लगा था कि देश के सभी 534 लोकसभा क्षेत्रों में 40 फ़ीसदी मतदाताओं ने यह माना था कि वे किस पार्टी या नेता को वोट देंगे यह तय करने में मुफ्त के उपहार के वायदों की बड़ी भूमिका होती है। हम अपने आसपास जितने चुनाव देखते आए हैं उनमें वायदों से परे भी हकीकत में बहुत से तोहफे बंटते हैं. चुनाव के वक्त वोटिंग के ठीक पहले शराब, कंबल, बिछिया, पायजेब, और नगदी जैसे सामान बंटते हैं और ट्रक भर-भरकर कुकर या बर्तन जब्त होते हैं। इसलिए हिंदुस्तानी चुनाव निष्पक्ष होने की एक खुशफहमी भर चली आ रही है, हकीकत में ये चुनाव पूरी तरह से खरीद-बिक्री का सामान बन गए हैं. इसमें बहुत सारा भुगतान वोट डालने के पहले नगद या शराब की शक्ल में हो जाता है, और बाकी का भुगतान चुनावी वायदों की शक्ल में किया जाता है।

सवाल यह है कि जो राजनीतिक दल अभी सत्ता में आया नहीं है और जिसने कोई बजट विधानसभा में पेश नहीं किया है, वह किस आधार पर सैकड़ों और हजारों करोड़ के चुनावी वायदे करे? इसलिए सुप्रीम कोर्ट को महज यह तकनीकी आपत्ति नहीं करना चाहिए कि यह याचिका लगाने वाले भाजपा से जुड़े हुए वकील सिर्फ 2-3 गैरभाजपाई दलों के वायदों का जिक्र याचिका में क्यों कर रहे हैं, यह तो सुप्रीम कोर्ट का अधिकार रहता है कि वह किसी भी याचिका के दायरे का कितना भी विस्तार कर सकता है, और इस बार 5 विधानसभा चुनावों के पहले तो कोई फैसला नहीं हो सकता, लेकिन इसके बाद लगातार सुनवाई करके सुप्रीम कोर्ट को हिंदुस्तान के चुनावों को भ्रष्ट वायदों के इस धंधे से अलग करना चाहिए। कोई भी राजनीतिक दल आसानी से यह सिलसिला खत्म करना नहीं चाहेंगे क्योंकि जो इसका विरोध करेंगे वे लार टपकाते हुए वोटरों द्वारा निपटा दिए जाएंगे।

चुनावों में और भी कई किस्मों के सुधारों की जरूरत है. अधिक खर्च करने जैसे भ्रष्टाचार पर तो चुनाव आयोग एक हद तक नजर रख सकता है, खुले चुनावी वायदों और मुफ्त के तोहफों पर तो चुनाव आयोग भी कुछ नहीं कर पा रहा है। इसलिए यह आखिरी मौका दिख रहा है कि अदालत में इस मामले पर निपटारा हो ही जाए। भारत के वामपंथी दलों को भी इस याचिका में हिस्सेदार बनना चाहिए क्योंकि न तो उनके पास ऐसे फिजूल के वायदों के लिए पैसे रहते हैं, और न ही वोटरों को रिश्वत बांटने के लिए। इसलिए अभी चल रही याचिका चाहे दायर किसी ने की हो, उसका विस्तार किया जाना चाहिए और उस पर लगातार सुनवाई करनी चाहिए। अलग-अलग राज्यों के बजट का बड़ा हिस्सा अगर चुनाव के वक्त किए गए फिजूल के वायदों पर खर्च होना जारी रहेगा, तो कभी भी देश-प्रदेश का संतुलित विकास नहीं हो सकेगा क्योंकि कोई भी संतुलित बात करके तो वोट लुभाए भी नहीं जा सकते हैं।

अभी सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका पर चुनाव आयोग और केंद्र सरकार, इन्हीं से राय मांगी है, लेकिन हमारा ख्याल है कि अदालत को बिना देर किए हुए देश के सभी मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय और प्रादेशिक राजनीतिक दलों को भी नोटिस जारी करना चाहिए और उनसे भी इस मुद्दे पर राय मांगनी चाहिए क्योंकि उनकी राय के बिना कोई भी फैसला इस मामले में हो नहीं पाएगा क्योंकि वे इस धंधे का एक अनिवार्य हिस्सा हैं, इसलिए उन्हें भी बोलने का मौका मिलना चाहिए। हिंदुस्तान में तमिलनाडु जैसे कुछ राज्य एक अलग किस्म की मिसाल रहे जहां मुख्यमंत्री जयललिता ने अंधाधुंध चुनावी, और चुनाव से परे के भी, तोहफों के सैलाब वोटरों के सामने बिखेर दिए थे। अभी भी एक-एक करके कई पार्टियों ने पंजाब और उत्तर प्रदेश, या गोवा में कहीं महिलाओं को हर महीने मुफ्त रकम देने का वायदा किया है, तो कहीं छात्र-छात्राओं को। कुछ जगहों पर मुफ्त गैस और कॉलेज जाने वाले छात्र-छात्राओं को स्मार्टफोन या दुपहिया देने का वायदा भी किया गया है। कर्ज से लदे हुए राज्यों में मुफ्त बिजली का वायदा भी किया गया है। इस याचिका में ही गिनाया गया है कि जिन राज्यों में सरकार बनाने के लिए पार्टियां इस तरह के वायदे कर रही है वे आज भी कितने कितने लाख करोड़ रुपए के कर्ज में डूबे हुए हैं।

 हमारा यह भी मानना है कि भारत में चुनाव सुधार को सिर्फ चुनावी वायदों की हद तक सुधारने की बात काफी नहीं होगी। हमने कुछ महीनों में इसी जगह पर लगातार लिखा है कि दलबदल भारतीय चुनावी राजनीति में एक अलग किस्म की बीमारी बन गया है जिसे हर पार्टी अपने-अपने फायदे के लिए लगातार बेजा इस्तेमाल करती है. सुप्रीम कोर्ट की याचिका में जोडऩे की जरूरत है दलबदल करने वाले लोग अगले बरस के लिए नई पार्टी के निशान पर भी चुनाव लडऩे के हकदार ना रह जाएं। जिस दिन ऐसा हो जाएगा उस दिन दलबदल की यह गंदगी भी खत्म हो जाएगी। कोई भी नेता इसलिए दलबदल नहीं करते अगले कई बरस बाद जाकर कोई चुनाव लड़ेंगे। चुनाव लडऩा नेताओं की कमाई के लिए और उनके आगे की संभावनाओं के लिए बहुत जरूरी होता है, और यह मौका छीन लेने पर दल-बदल की उनकी हसरत ठंडी पड़ेगी। इस बारे में भी वामपंथी दलों को इस जनहित याचिका में शामिल होने की कोशिश करनी चाहिए और इसे एक व्यापक चुनाव सुधार याचिका में बदलना चाहिए। दल-बदल के गंदे धंधे में वामपंथी ही सबसे कम शामिल होते हैं और उन्हें अपने खुद के अस्तित्व के लिए भी राजनीति को बेहतर, कम खर्चीला, और ईमानदार बनाना चाहिए क्योंकि ऐसा होने पर ही उनके लिए बराबरी की कोई संभावनाएं बन सकती हैं।
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