संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : हिजाब पर कर्नाटक हाईकोर्ट का फैसला बहुत ही कमजोर
22-Mar-2022 5:22 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : हिजाब पर कर्नाटक हाईकोर्ट का फैसला बहुत ही कमजोर

भाजपा सरकार वाले कर्नाटक में सरकार द्वारा मुस्लिम स्कूली छात्राओं के हिजाब पर लगाई गई रोक को कर्नाटक हाईकोर्ट ने सही ठहराया है, और कहा है कि हिजाब इस्लाम धर्म का अनिवार्य हिस्सा नहीं है। इस बारे में मुस्लिम छात्राओं ने याचिका लगाई थी जिसे खारिज करते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि स्कूल-कॉलेज में छात्र-छात्राएं यूनिफॉर्म पहनने से मना नहीं कर सकते हैं। वहां जब से सरकारी स्कूलों में यूनिफॉर्म से हिजाब पर बंदिश लगाई गई थी, बहुत से परंपरागत मुस्लिम परिवारों ने अपनी लड़कियों को स्कूल भेजना बंद कर दिया था। अब समाज में इस प्रचलित व्यवस्था के चलते हुए इन लड़कियों की पढ़ाई का क्या होगा यह एक बड़ा सवाल इस अदालती फैसले के बाद खड़ा हुआ है, और सुप्रीम कोर्ट के सामने यह सवाल रहेगा कि जब तक सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच के 9 जज इससे जुड़े हुए कुछ बुनियादी सवालों पर आखिरी फैसला नहीं लेते हैं, तब तक मुस्लिम लड़कियों को स्कूली पोशाक के साथ-साथ हिजाब की छूट दी जाए या नहीं। अभी सुप्रीम कोर्ट ने इस पर सुनवाई शुरू नहीं की है लेकिन हमारा यह मानना है कि हाईकोर्ट के फैसले के इस हिस्से पर तुरंत ही स्थगन देने की जरूरत है क्योंकि इससे मुस्लिम छात्राओं की पढ़ाई पर एक ऐसा नुकसान पडऩे वाला है जिसकी भरपाई नहीं हो सकेगी। अगर परंपरागत समाज इस मुद्दे पर लड़कियों को स्कूल-कॉलेज भेजना बंद कर देता है तो वह भारत में लड़कियों की आत्मनिर्भरता के खिलाफ भी जाएगा।

अब कर्नाटक हाईकोर्ट के इस फैसले को अगर देखें तो इसमें संविधान की कुछ बुनियादी बातों को अनदेखा किया गया है। बहुत सी बातें संविधान की मूल धाराओं में लिखी हुई है जिनमें धार्मिक स्वतंत्रता, और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसी बातें हैं जिनमें पोशाक की पसंद भी शामिल है। यह फैसला ऐसी बातों का कोई न्यायसंगत निपटारा नहीं कर रहा है कि पोशाक की व्यक्तिगत पसंद और धार्मिक परंपरा का स्कूली पोशाक के साथ एक सहअस्तित्व भी हो सकता है। संविधान के जानकार लोगों ने इस फैसले को बहुत ही निराशाजनक और खामियों वाला माना है, और उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से इस पर अमल तुरंत रोकने की उम्मीद भी की है। हम कानूनी बारीकियों के जानकार नहीं हैं, लेकिन प्राकृतिक न्याय की हमारी साधारण समझ यह सुझाती है कि धर्म के कट्टर प्रतीकों से परे भी धर्म के ऐसे प्रतीक हो सकते हैं जो लोग अपनी साधारण मान्यताओं के तहत मानना चाहते हैं, और इनमें हिजाब भी एक हो सकता है जो कि इस्लाम के तहत अनिवार्य चाहे न हो, वह इस्लाम को मानने वाले लोगों में एक धार्मिक परंपरा की तरह है। अब हिजाब या ऐसा कोई भी दूसरा प्रतीक किसी धर्म का अनिवार्य हिस्सा है, या उन धर्मावलंबियों के लिए वह एक प्रचलित परंपरा है, ऐसे महीन फर्क के बीच जब कर्नाटक हाईकोर्ट के जज फर्क करने बैठे हैं, तो उससे लोगों के बुनियादी हक खत्म हो रहे हैं। बाकी बहुत से धर्मों के बहुत से ऐसे प्रतीक हैं जिनका इस्तेमाल स्कूली पोशाक के साथ टकराव नहीं माना जाता। हिन्दू, सिक्ख, ईसाई धर्मों के कई प्रतीकों का इस्तेमाल छात्र-छात्राएं करते हैं, और उन पर एक हमलावर अंदाज में रोक अगर लगाई जाएगी, तो उससे इस देश में विविधता की बुनियादी खूबी खत्म होगी, और बहुत से तबके के लोगों को यह लगेगा कि देश में उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक समझा जा रहा है।

कर्नाटक की भाजपा सरकार का शुरू किया गया यह बखेड़ा उसकी राजनीतिक ध्रुवीकरण की बदनीयत की एक हिंसक मिसाल है। उत्तरप्रदेश चुनाव के वक्त इसे शुरू किया गया था, और अब चुनाव के बाद कर्नाटक हाईकोर्ट ने भी अपने बहुत ही तंगनजरिए की व्याख्या से सरकार और राजनीतिक ताकतों की इस कोशिश की आग में घी डालने का काम किया है। दिल्ली नेशनल लॉ स्कूल में संविधान पढ़ाने वाले एक प्रोफेसर ने सुप्रीम कोर्ट के बहुत से ऐसे फैसलों को गिनाया है जिनको कर्नाटक हाईकोर्ट की इस बेंच ने अनदेखा किया है। उनका कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले तब तक कानून रहते हैं जब तक संसद कोई नया कानून बनाकर उन्हें पलट न दे। ऐसे में हाईकोर्ट ने यह बहुत ही खराब और सामाजिक अन्याय का फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट के बहुत से फैसलों को अनदेखा किया है।

अभी दरअसल सुप्रीम कोर्ट में धर्म के रीति-रिवाज को लेकर एक मामला चल रहा है, और संविधानपीठ उसकी सुनवाई कर रही है। इस मामले के बहुत से पहलू हैं, और उनमें से कुछ का अंतिम निपटारा होने तक कर्नाटक हाईकोर्ट के इस फैसले की अमल पर रोक लगानी चाहिए, और हिजाब की छूट दी जानी चाहिए। भारत के संविधान की बुनियादी समझ रखने वाले आम लोग भी यह बतला सकते हैं कि स्कूल-कॉलेज में यूनिफॉर्म का नियम साधारण धार्मिक परंपराओं को कुचले बिना लागू करने का एक आसान रास्ता जब है, तब एक अल्पसंख्यक तबके पर हमला करने की यह सरकारी सोच लोकतंत्र से बहुत परे की है। आज यह हमला सोच-समझकर मुस्लिम समुदाय पर हो रहा है, लेकिन बाकी धार्मिक अल्पसंख्यकों को यह समझ लेना चाहिए कि अगली बारी उनकी हो सकती है।

इस मुद्दे से जुड़ा हुआ एक दूसरा सामाजिक सवाल यह भी है कि क्या इस्लाम के तहत मुस्लिम समुदाय में पोशाक की हर तरह की बंदिश लड़कियों और महिलाओं पर ही लादने के इस सिलसिले को खत्म करना सारे देश की जिम्मेदारी नहीं है? आज जब किसी एक समाज को कुचलने की नीयत से कर्नाटक में यह सरकारी फैसला लागू किया गया है, तो उसे देखते हुए इस फैसले के समाज सुधारक होने का संदेह का लाभ देने की कोई गुंजाइश नहीं बचती है। फिर भी हम इस पहलू की चर्चा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि इसे लादने वाले लोग इसे मुस्लिम महिलाओं और लड़कियों का हिमायती फैसला बताने का तर्क भी दे सकते हैं, और वे कितने बड़े हिमायती हैं, यह बात उनके बाकी दर्जन भर फैसलों से और उनके हिंसक बर्ताव से आए दिन साबित होते रहती है। कुल मिलाकर कर्नाटक हाईकोर्ट का यह बहुत ही कमजोर और बेइंसाफ फैसला सुप्रीम कोर्ट में खड़े होते नहीं दिखता, लेकिन इस पर फैसला जल्द होना चाहिए क्योंकि जब तक इसे खारिज नहीं किया जाएगा तब तक एक तबके के बुनियादी अधिकार छिने रहेंगे।
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