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भारत में पढ़ रहे अफगानी छात्रों का क्या होगा
24-Mar-2022 12:36 PM
भारत में पढ़ रहे अफगानी छात्रों का क्या होगा

काबुल के साथ राजनयिक रिश्ता खत्म होने के कारण भारत के विश्वविद्यालयों में फंसे हजारों अफगानी स्टूडेंट. अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने के बाद से बिगड़े हालात.

   डॉयचे वैले पर ऋतिका पाण्डेय की रिपोर्ट-

भारतीय विश्वविद्यालयों में इस समय 13,000 से ज्यादा अफगान छात्रों ने दाखिला लिया हुआ है. यह आंकड़ा नई दिल्ली स्थित अफगान दूतावास से मिला है. उनसे मिले आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि अगस्त 2021 में तालिबान के जबरन सत्ता हथियाने से पहले इनमें से करीब 2,000 छात्र अफगानिस्तान लौट गए थे. उनके वापस लौटने का कारण यह था कि भारत में कोविड 19 महामारी के कारण कॉलेज, यूनिवर्सिटी बंद हो गए थे और लेक्चर, सेमिनार सब ऑनलाइन होने लगे थे.

ऐसे कदमों से वायरस का संक्रमण को फैलने से रोकने की कोशिश की जा रही थी. जब छात्रों को फिर से क्लास में बुलाया जाने लगा उस समय तक अफगानिस्तान में तालिबान का राज आ चुका था और हालात बदल गए थे. काबुल के रहने वाले ईसा सादत बताते हैं, "अब यूनिवर्सिटी खुली है और हमारी क्लास में हाजिरी जरूरी है. लेकिन मेरा तो वीजा ही नहीं मिल सकता है." सादत कुछ महीने पहले तक भारत में पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन एंड इकॉनोमिक्स की पढ़ाई कर रहे थे.

तालिबान के सत्ता में आने से बाद जब भारत ने अफगानिस्तान में अपनी राजनयिक सेवाएं बंद कर दीं तो उनके जैसे कई छात्रों का भविष्य अधर में अटक गया. भारत ने अफगानिस्तान के साथ हवाई यात्रा और बैंक से भुगतान की सुविधाएं भी रोक दीं जिसका सीधा असर भारत में पढ़ने वाले अफगानों पर पड़ा.

ईसा को वीजा के लिए चक्कर लगाते पांच महीने से ज्यादा वक्त हो गया है. वह बताते हैं, "पहले मैंने काबुल में ऑनलाइन अप्लाई किया. लेकिन उससे काम नहीं बना. फिर मैं ईरान गया और वहां तेहरान के भारतीय दूतावास से वीजा के लिए आवेदन किया. वहां मुझे बताया गया कि केवल उन बीमार अफगानों का ही वीजा लग सकता है जो इलाज के लिए भारत जाना चाहते हैं."

ईरान या पाकिस्तान के रास्ते वीजा
ईसा के जैसे और भी कई हैं जो ईरान के रास्ते होकर किसी तरह भारत पहुंचना चाहते हैं. शकील राजी को ही लीजिए जो भारत में डॉक्टरेट कर रहे हैं. शकील तो वीजा के लिए ईरान के साथ साथ पाकिस्तान भी हो आए. दोनों देशों से भारतीय वीजा के लिए कोशिशें कीं लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. अब हताश हो रहे शकील कहते हैं, "मैं अपनी पढ़ाई में बहुत कुछ लगा चुका हूं और अब समय था कि मैं अपनी डॉक्टोरल थीसिस को डिफेंड करता. लेकिन अब मुझे सब कुछ बर्बाद होता नजर आ रहा है. मैं तो अपनी पढ़ाई की फीस भी ट्रांसफर नहीं कर पा रहा हूं."

उनके जैसे कई युवा अफगान छात्रों को लगने लगा है जैसे संकट की घड़ी में भारत ने उनसे मुंह मोड़ लिया है.

तालिबान के वापस सत्ता में आने से पहले के दो दशकों में भारत अफगान युवाओं का एक पसंदीदा ठिकाना बन गया था. 2001 में जब अमेरिका ने तालिबान को सत्ता से हटाया था तबसे अफगानिस्तान में भारत सबसे बड़े क्षेत्रीय दानदाता के रूप में उभरा था. अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में भारत ने करीब 3 अरब डॉलर (2.7 अरब यूरो) का निवेश किया. कई जानकार इसकी व्याख्या पाकिस्तान के मुकाबले अपना प्रभाव बढ़ाने की भारत की कोशिश बताते थे.

भारत ने अफगानिस्तान में ना केवल सड़कें बनवाईं, स्कूल, बांध और अस्पताल बनवाए बल्कि शिक्षा और वोकेशनल ट्रेनिंग के मामले में भी कई अहम कदम उठाए.

साल 2005 से 2011 के बीच, हर साल अफगान छात्रों को 500 छात्रवृत्तियां दी गईं. 2011 से 2021 के बीच तो यह संख्या 1,000 थी. इसके अलावा भी ऐसे बहुत से अफगान छात्र भारत में पढ़ने आए जो अपनी पढ़ाई का खर्चा खुद ही उठाते हैं.

नई दिल्ली में अफगान दूतावास के मुताबिक, पिछले 16 सालों में 60,000 से ज्यादा अफगानों ने अपनी पढ़ाई भारत में पूरी की.
कैसे खोजे जा रहे हैं उपाय

अफगान दूतावास के प्रवक्ता अब्दुलहक आजाद ने डीडब्ल्यू से बताया, "हम भारत सरकार से संपर्क में हैं और साथ ही भारतीय विश्वविद्यालयों के भी, ताकि कोई रास्ता निकाला जा सके."

मौजूदा अफगान दूतावास के प्रमुख अफगानिस्तान की अशरफ गनी की अगुवाई वाली पूर्ववर्ती सरकार द्वारा नियुक्त किए गए थे, जिनकी अब सत्ता नहीं रही. भारत ने अब तक अफगानिस्तान की तालिबान सरकार को मान्यता नहीं दी है.

डीडब्ल्यू से बातचीत में अफगान शिक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता मौलवी अहमद तागी ने कहा कि छात्रों की ऐसी दुर्दशा के लिए तालिबान पर आरोप नहीं मढ़ने चाहिए. उन्होंने जोर देते हुए कहा कि "इस्लामिक एमिरेट्स ऑफ अफगानिस्तान के कारण यह समस्या पैदा नहीं हुई है. दोष तो और देशों का है."

दोषारोपण तो चलता ही जा रहा है लेकिन अफगान शिक्षा मंत्रालय का कहना है कि वे किसी तरह छात्रों की समस्या का जल्दी से जल्दी हल निकालने की कोशिश में हैं. (dw.com)
 

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