संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : जिस समाज में धार्मिक कट्टरता जितनी अधिक, वहां औरत के हक उतने ही कम
27-Mar-2022 5:23 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  जिस समाज में धार्मिक कट्टरता जितनी अधिक, वहां औरत के हक उतने ही कम

फोटो : सोशल मीडिया

अफगानिस्तान में अभी लड़कियों का मिडिल स्कूल खोला गया, और बच्चियां खुशी-खुशी वहां पहुंचीं, लेकिन कुछ घंटों के भीतर ही तालिबान ने स्कूल बंद करने की घोषणा कर दी, और वे ही बच्चियां रोते-रोते घर लौटीं। तालिबान सरकार ने इस फैसले पलटने को लेकर को वजह नहीं बताई है, और कुछ भी कहने से इंकार कर दिया है। लेकिन यह बात अपनी जगह सच है कि अमरीकी फौजों की वापिसी के बाद से जब से तालिबान राज कायम हुआ है, महिलाओं के हक अफगानिस्तान में खत्म हो गए हैं, उनका काम का दायरा सीमित हो गया है, और महज कुछ किस्म के कामों में उन्हें इजाजत है। लेकिन घर के बाहर किसी दूर जगह जाने के लिए उन्हें परिवार के किसी मर्द का साथ होना जरूरी है, उनके अकेले चलने पर बंदिश है। और प्राइमरी स्कूल से ऊपर लड़कियों की पढ़ाई अब तक बंद ही है।

कोई देश या समाज जब अपनी लड़कियों और महिलाओं पर इस किस्म की बंदिशें लगाते हैं तो उनके आगे बढऩे की संभावनाएं भी सीमित हो जाती हैं। दुनिया के जिन देशों में महिलाओं के कोई भी काम करने पर रोक नहीं है, वे देश अपनी आम संभावनाओं से आगे निकल जाते हैं। रूस जैसे देश में महिलाएं दशकों से क्रेन और बुलडोजर जैसी मशीनें भी चलाती आई हैं, और कोई भी काम ऐसा नहीं है जिसमें उन पर रोक हो। नतीजा यह होता है कि ऐसी महिलाएं और उनके परिवार खुद भी आगे बढ़ते हैं, और देश को भी आगे ले जाते हैं। दूसरी तरफ दुनिया के जिन देशों में इस्लामिक व्यवस्था है वहां पर जिस हद तक इस्लामिक कानून को लागू किया जाता है, उसी हद तक महिलाओं की आत्मनिर्भरता घट जाती है। ईरान या अफगानिस्तान में अगर बंदिशें अधिक हैं, तो वहां संभावनाएं कम हैं। दरअसल यह बात खुलकर इसलिए सामने नहीं आ पाती कि इस्लामिक देशों में कुछ देश सउदी अरब किस्म के तेल के कुओं वाले देश हैं जिनमें धरती ही सारी कमाई दे देती है, और महिलाओं के तो क्या, आदमियों के भी काम करने की जरूरत नहीं रहती है। फिर दूसरी तरफ कुछ ऐसे बहुत ही गरीब और फटेहाल मुस्लिम देश हैं जहां पर मजहब ही उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी दौलत रहती है, और वे ईश्वर के नाम पर सभी किस्म की गरीबी और अभाव को बर्दाश्त कर जाते हैं। यमन जैसे देश में कुपोषण से बड़ी संख्या में मौतें होती हैं लेकिन कट्टरपंथी आतंकी समूह वहां मजहब के नाम पर जान लेने और देने पर उतारू रहते हैं। अतिसंपन्न और अतिविपन्न, दोनों ही किस्म की अर्थव्यवस्थाओं में यह अंदाज लगाना मुश्किल रहता है कि वहां महिलाओं की भागीदारी की कमी की वजह से अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ा है, या कि समाज पर क्या असर हुआ है।

अफगानिस्तान और उस किस्म के कुछ और देशों में धार्मिक कट्टरता से लोकतंत्र और इंसानियत का जो बड़ा नुकसान हुआ है उससे बाकी दुनिया को भी सबक लेने की जरूरत है। आज जब इंसान पिछले कई सौ बरसों से लगातार विज्ञान और टेक्नालॉजी की मेहरबानी से अपनी सहूलियतें बढ़ा रहे हैं, दुनिया को बेहतर जगह बना रहे हैं, तो कई देशों में धर्म लोगों को विज्ञान और टेक्नालॉजी के पहले के वक्त पर ले जाने पर उतारू है, और उसे कहीं कम तो कहीं अधिक कामयाबी भी मिल रही है। लेकिन दुनिया का इतिहास एक बात बताता है कि अगर प्राकृतिक साधन एक बराबरी के हों, तो वे देश ही तरक्की करते हैं जो कि महिलाओं को बराबरी का दर्जा देते हैं, उन्हें बराबरी का हक और बराबरी की संभावनाएं देते हैं। किसी जानकार विद्वान ने जरूर ही ऐसा तुलनात्मक अध्ययन किया होगा कि किसी देश की प्राकृतिक और ऐतिहासिक क्षमता के मुकाबले उस देश के आगे बढऩे में वहां की महिलाओं की भागीदारी का कितना हाथ रहा है। लोगों को अपने आसपास के प्रदेश, शहर, समाज और परिवार, इन सबको देखना चाहिए कि महिलाओं को दबाकर रखने वाले समाज किस तरह पीछे रह जाते हैं। आज न सिर्फ तालिबान को, बल्कि दुनिया के बाकी समाजों को भी यह देखने की जरूरत है कि वे लड़कियों को विकसित होने के बराबरी के, और हिफाजत वाले मौके मुहैया कराने में कितनी दिलचस्पी ले रहे हैं। आधी दुनिया, और बेहतर आधी दुनिया को कुचलकर बाकी आधी दुनिया किसी तरह से भी एक बेहतर जगह नहीं बन सकती। चूंकि कुदरत ने महिलाओं को गर्भधारण और बच्चों को बड़ा करने जैसी अतिरिक्त जिम्मेदारियां दी हैं, जिन्हें पुरूषवादी समाज ने औरत की कमजोरी बनाकर रख दिया है, इसलिए देश के कानून को महिलाओं को खास हक और खास हिफाजत दिलवाने का काम करना चाहिए। तालिबान की जो सोच है, वह उनसे कुछ कम कट्टरता के साथ और उनसे कुछ कम हिंसा के साथ दुनिया में जगह-जगह फैली हुई है। तालिबान को कोसना आसान है, अपने आपको आईने में देखना कुछ मुश्किल है। फिर भी लोगों को अगर एक सभ्य समाज बनना है, दुनिया के बेहतर लोकतंत्रों की तरह आगे बढऩा है, तो उन्हें अपनी सोच के अलग-अलग कोनों में छुपी बैठी तालिबानी सोच से छुटकारा पाना होगा। हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र में भी कई प्रदेशों में ऐसे मुख्यमंत्री बैठे हैं जो औरत को एक सामान से अधिक नहीं देखते हैं, और जिनकी बातों में तालिबानी डीएनए झलकता है। उनका तालिबानी सोच से कुछ पीढिय़ों पहले का रिश्ता दिखता है, और इस सोच से भी हिन्दुस्तानी लोकतंत्र को छुटकारा पाना चाहिए। जहां धार्मिक कट्टरता जितनी अधिक है, वहां औरत के हक उतने ही कम पाए जाते हैं।
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