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टीबी के खिलाफ कोविड जैसी लड़ाई लड़ सकेगा भारत?
28-Mar-2022 1:10 PM
टीबी के खिलाफ कोविड जैसी लड़ाई लड़ सकेगा भारत?

कोविड ने टीबी के खिलाफ लड़ाई को भारी नुकसान पहुंचाया तो कुछ सबक भी सिखाए. लेकिन सवाल यह है कि क्या इन सबकों के सही समय पर इस्तेमाल करने को लेकर राजनीतिक इच्छाशक्ति जग पाएगी?

(dw.com)  

2020-21 में जब कोविड ने भारत पर कहर बरपाया और लाखों लोगों की जान ले ली, तब एक और घातक महामारी जारी थी, जिसकी ओर ध्यान छूट गया. वह महामारी थी टीबी. कोविड के खिलाफ लड़ाई ने उस महामारी से निपटने में जरूरी कोशिशों को भी प्रभावित किया. लेकिन अब कोविड के शांत हो जाने के बाद टीबी की ओर ध्यान दोबारा लौट रहा है.

भारत दुनियाभर के टीबी मरीजों में से लगभग एक चौथाई का घर है. एक अनुमान के मुताबिक 2020 में भारत में लगभग पांच लाख लोगों की मौत टीबी से हुई, जो कि पूरी दुनिया में हुई मौतों का एक तिहाई है. करीब एक दशक में पहली बार 2020 में टीबी से मौतों में वृद्धि हुई और विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक सालों की मेहनत पर पानी फिर गया.

हालांकि भारत में 2020 में मिले नए मामलों की संख्या लगभग एक चौथाई घटकर 18 लाख पर आ गई, लेकिन उसकी वजह कोविड के कारण लगे प्रतिबंध थे. इस कारण संसाधनों को टीबी से हटाकर कोविड पर लगा दिया गया और जांच से लेकर इलाज तक हर चरण प्रभावित हुआ.

बीते गुरुवार विश्व टीबी दिवस के मौके पर भारत ने एक नई रिपोर्ट जारी की. इस रिपोर्ट के मुताबिक 2019-21 के दौरान लगभग दो तिहाई लोग ऐसे थे जिनके अंदर टीबी के लक्षण पाए गए लेकिन उन्हें इलाज नहीं मिला.

पीछे हो गई टीबी के खिलाफ जंग
29 साल के आशना अशेष में चार साल पहले टीबी का पता चला था. उनकी टीबी ऐसी थी जिस पर कई दवाओं का असर नहीं होता. उन्होंने देखा कि कैसे उन मरीजों को संघर्ष करना पड़ा जिनके पास लॉकडाउन के कारण नौकरी भी नहीं थी और उन्हें क्वॉरन्टीन में रहना पड़ा.

सर्वाइवर्स अगेंट्स टीबी नाम एक संगठन चलाने वाले अशेष कहते हैं, "वे बेहद डरे हुए थे. वे किसी भी तरह की सूचना, टेस्ट और इलाज आदि के लिए बेचैन थे. असर बहुत बुरा रहा है. कोविड ने टीबी के खिलाफ लड़ाई को बहुत पीछे पहुंचा दिया है. भारत और दुनिया में टीबी के खिलाफ लड़ाई पुनर्जीवित करने के लिए एक योजना की तुरंत जरूरत है.”

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2025 तक, यानी संयुक्त राष्ट्र की समयसीमा से पांच साल पहले देश से टीबी खत्म करने का लक्ष्य तय किया था. लेकिन कोविड के कारण अब इस लक्ष्य को हासिल करना बेहद मुश्किल हो चुका है. यही वजह है कि विशेषज्ञ की मांग है कि ऐसे मामलों को खोजने के लिए जमीनी स्तर पर विशेष अभियान चलाया जाए, जो कोविड के दौरान छूट गए थे. वे अतिरिक्त फंडिंग और टीबी के लिए बड़ी वजह माने जाने वाले कुपोषण के खिलाफ नई लड़ाई की भी मांग कर रहे हैं.

इंटरनेशनल यूनियन अगेंस्ट टीबी ऐंड लंग डिजीज के कुलदीप सिंह सचदेवा कहते हैं कि राज्य सरकारों को घर-घर जाकर जांच और सामूहिक जांच जैसे अभियान बढ़ाने होंगे. सचदेवा कहते हैं, "अब तो टीवी के समूल नाश का यही एक रास्ता है.”
कोविड से मिले सबक

आधिकारिक तौर पर भारत में कोविड से पांच लाख 20 हजार लोगों की जान जा चुकी है लेकिन विशेषज्ञ मानते हैं कि असल संख्या इससे कहीं ज्यादा है. इस बीमारी ने दुनिया का सबसे घातक संक्रामक रोग होने का तमगा टीबी से छीन लिया था. लेकिन एक अच्छी बात हुई. कोविड के कारण मास्क का प्रयोग सामान्य हो गया.

सचदेवा अनुमान लगाते हैं कि मास्क की वजह से टीबी का प्रसार भी 20 प्रतिशत तक कम हुआ होगा. वह कहते हैं कि एक और फायदा यह हुआ है कि कोविड की जांच के लिए खरीदी गईं मशीनें अब टीबी के लिए काम आ सकेंगे.

भारत में टीबी का गढ़ कहा जाने वाले दो करोड़ से ज्यादा की आबादी का शहर मुंबई अब टीबी के लिए विशेष अभियान शुरू कर रहा है, जिसका फायदा सीमा कुंचीकोरवे जैसे युवा लोगों को होगा. टीबी से ठीक हो चुकीं कुंचीकोरवे को पांच साल पहले 20 साल की उम्र में यह बीमारी हुई थी. नई योजना के तहत उन जैसे युवाओं के लिए दवाओं की निगरानी की जाएगी. कुंचीकोरवे जगह-जगह जाकर लोगों को टीबी के प्रति जागरूक करती हैं वह बताती हैं, "इलाज के बहुत से दुष्प्रभाव भी होते हैं जिन्हें मरीज झेल नहीं पाते.”

डॉक्टर विदाउट बॉर्डर्स से जुड़े मुंबई के डॉक्टर विजय चव्हाण पांच साल के बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक हर तरह के टीबी मरीजों का इलाजा करते हैं. वह कहते हैं कि कोविड महामारी ने टीबी महामारी के लड़ाई को लेकर कई सबक दिए हैं. वह कहते हैं, "अगर टीबी के लिए भी कोविड जैसी राजनीतिक इच्छा हो तो अच्छे नतीजे जरूर मिलेंगे.”

वीके/सीके (एएफपी)

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