संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सबसे साफ दिखते शहरों का राज उतना साफ नहीं
30-Mar-2022 4:20 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  सबसे साफ दिखते शहरों का राज उतना साफ नहीं

तस्वीर ‘छत्तीसगढ़’

हिन्दुस्तान में शहरों की सफाई एक बड़ा मुद्दा है, और किसी शहर के विकसित होने का एक बड़ा पैमाना भी है। केन्द्र सरकार देश भर के शहरों के बीच मुकाबला करवाती है, और पिछले बरसों में मध्यप्रदेश का इंदौर ऐसे कई मुकाबले जीत चुका है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर जैसे शहर को देखें तो शहर के भीतर ही उसके अलग-अलग हिस्से अलग-अलग साफ या गंदे दिखते हैं। मोटेतौर पर तो पूरा शहर एक ही म्युनिसिपल के तहत आता है, लेकिन अलग-अलग वार्ड के निर्वाचित पार्षद अपनी अधिक और असाधारण कोशिशों से अपने इलाके को अधिक साफ रख पाते हैं। इसमें संपन्न इलाकों में जनभागीदारी से भी खर्च जुटा लिया जाता है, और दिन भर सफाई चलती रहती है, गाडिय़ां दौड़ती रहती हैं। शहरों में ऐसे कुछ सक्रिय पार्षदों वाले इलाकों में इतने अधिक सफाई कर्मचारी काम करते दिखते हैं कि इन इलाकों में रहने वाले लोग अपने घर-दुकान के सामने मनचाहा कचरा फेंक सकते हैं, वह साफ होते रहता है। इसके साथ-साथ अगर सुबह की सैर पर निकलने वाले लोग कचरे और सफाई के इस सिलसिले को ध्यान से देखें तो समझ पड़ता है कि घरों से निकलने वाला कचरा छांटकर अलग नहीं किया जाता, और हर तरह के कचरे को एक साथ मिलाकर फेंक दिया जाता है, या कचरा गाड़ी के लिए रख दिया जाता है। आम लोग इस कचरे को नाली में भी फेंक देते हैं, जहां से इसे निकालना सफाई कर्मचारियों के लिए भी बड़ी मशक्कत का काम रहता है, और वे बड़ी नालियों या गटर में डूब-डूबकर भी ऐसा कचरा निकालते हैं, और इसमें कई बार कई कर्मचारियों की मौत भी होती है।

यह सिलसिला सिरे से गलत है कि वोट देने वाली जनता की इतनी चापलूसी की जाए कि वह मनचाही गंदगी मनचाहे तरीके से फैलाती रहे, और वार्ड का पार्षद या म्युनिसिपल उसे साफ करते रहें। वोट पाने के लिए लोगों की आदत इतनी बिगाडक़र उनके तलुए सहलाने का सिलसिला ठीक नहीं है। पार्षद तो आते-जाते रहते हैं लेकिन जनता की आदत पीढ़ी-दर-पीढ़ी खराब होते चलती है जो कि धरती के सीने पर बोझ बढ़ाते रहती है। हिन्दुस्तान की अधिकतर म्युनिसिपल अपने रहवासियों की आदत सुधारने की जहमत उठाना नहीं चाहती क्योंकि वह अलोकप्रिय काम हो जाएगा, उसके बजाय सफाई कर्मचारियों और गाडिय़ों को बढ़ाकर कचरा उठाना उन्हें ज्यादा आसान लगता है। लेकिन यह बात वैज्ञानिक तथ्य है कि अगर घर, दुकान, हॉस्टल, अस्पताल जैसी जगहों से निकलने वाला कचरा अगर उसी जगह पर छांटकर अलग कर दिया जाता है, तो उसे ढोना भी आसान है, उसका निपटारा भी आसान है, और  उसका तरह-तरह का उत्पादक इस्तेमाल भी हो सकता है। यह कचरा उसी शहर की कमाई बढ़ाने में इस्तेमाल हो सकता है, बजाय इसे महंगे खर्च से उठाने, और निपटाने के। दक्षिण भारत के कुछ म्युनिसिपलों ने कचरे को अलग करके सार्वजनिक जगह पर अलग-अलग डालना अपने नागरिकों की ही जिम्मेदारी बना दी है। शुरुआती प्रतिरोध के बाद लोग इसके आदी हो गए हैं, और म्युनिसिपल कचरे से कमाई कर रहे हैं, सफाई पर कोई खर्च नहीं कर रहे। देश में अव्वल आने वाले इंदौर जैसे शहर में सफाई पर बड़ी रकम खर्च होती है, और चूंकि कामयाब कारोबार वाले शहरों की कमाई खूब होती है, इसलिए वहां कचरे और सफाई पर अनुपातहीन खर्च भी लोगों को खटकता नहीं है।

लेकिन यह पूरा सिलसिला इस बात पर टिका हुआ है कि स्थानीय संस्थाओं के पास कचरे के निपटारे के लिए अंधाधुंध पैसा हमेशा ही बने रहेगा, और इससे भी बड़ी बात समाज का यह भरोसा है कि सफाई कर्मचारी हमेशा ही गंदगी ढोने के लिए, नालियों में उतरने के लिए, और घर-घर जाकर कचरा लाने के लिए तैयार रहेंगे, हासिल रहेंगे। क्या कोई यह सोच सकते हैं कि आमतौर पर दलित दबके से आने वाले सफाई कर्मचारियों ने अगर यह काम करना बंद कर दिया, तो हिन्दुस्तान जैसा देश अपने कचरे को लेकर क्या करेगा? हफ्ते भर के भीतर हर शहर की हर नाली बंद हो चुकी रहेगी, और हर मोड़ कचरे से पट जाएगी। फिर हफ्ते भर के बाद क्या होगा? कोई महामारी फैलना शुरू होगी, और जिस तरह गुजरात के सूरत में एक वक्त प्लेग फैला था, उस तरह की कई बीमारियां लोगों को मारना शुरू कर देंगी। आज लोग जिन सफाई कर्मचारियों को देखना भी पसंद नहीं करते हैं, उन्हीं की वजह से आज हिन्दुस्तान जैसा देश रोजाना देखने लायक बचा हुआ है। लेकिन सामाजिक बेइंसाफी के इस सिलसिले पर टिकी हुई शहरी व्यवस्था जायज नहीं है। सफाई कर्मचारियों का तबका गुलाम नहीं है कि उसकी मर्जी के खिलाफ उससे काम लिया जा सके। और अगर यह तबका सफाई करना बंद कर देगा, कचरा ले जाना और नाली-गटर साफ करना बंद कर देगा, तो देश में इस काम के लिए और तो कोई तबका है नहीं।

सामाजिक न्याय के हिसाब से तो यह बात बेहतर होगी अगर पूरे देश के सफाई कर्मचारी एक हफ्ते की हड़ताल कर दें। लोगों को उनकी जरूरत भी समझ आ जाएगी, और अपने इर्द-गिर्द कचरा देखने के बाद जब उन्हें कचरे को छांटने और निपटारे में भागीदारी सिखाई जाएगी, तो शायद उनके लिए सीखना आसान होगा। आज जहां कचरा पैदा हो रहा है वहीं पर उसे छांटने का सबसे सस्ता और सबसे आसान काम वोटरों की चापलूसी करने के लिए अनदेखा किया जा रहा है, और लोगों की आदतें बिगाडक़र रखी जा रही हैं। यह सिलसिला तुरंत बंद करना चाहिए। लोग महज एक छोटा सा सफाई-शुल्क देकर धरती पर मिलेजुले कचरे का बोझ इस तरह बढ़ाते रहें यह ठीक नहीं है। शहरी सफाई अपने नागरिकों को जागरूक बनाए बिना महज खर्च करके करना ठीक नहीं है। यह जागरूकता न लाकर स्थानीय नेता अपनी महानता और कामयाबी साबित करते हैं, यह बुनियादी तौर पर एक गलत बात है, और नागरिकों को गैरजिम्मेदार बनाना पूरे भविष्य को खराब करना है।
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