संपादकीय

दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : या तो समाज को बदलने की ताकत रखें, या फिर खुद बदलने को तैयार रहें
03-Apr-2022 4:02 PM
दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :   या तो समाज को बदलने की ताकत रखें, या फिर खुद बदलने को तैयार रहें

उत्तरप्रदेश के गोंडा की एक खबर है कि चार बच्चों की एक मां और सत्रह साल के उसके प्रेमी लडक़े ने एक साथ, लेकिन अलग-अलग जगहों पर आत्महत्या कर ली। दोनों ने फांसी लगा ली। इस महिला का पति बाहर रहकर काम करता है, उसके चार बच्चे हैं, जिनमें बड़ी लडक़ी की उम्र मां के इस प्रेमी लडक़े से कुल पांच साल कम है। नवीं कक्षा में पढऩे वाला यह लडक़ा घर के आसपास की ही इस दोगुनी उम्र, 34 बरस की इस महिला के साथ प्रेम-संबंध में था। आसपास के लोगों को जब इसकी खबर लगी तो दहशत में आकर इन दोनों ने अलग-अलग आत्महत्या कर ली।

हिन्दुस्तान में ही नहीं, बल्कि हर देश में ऐसे मामले सामने आते हैं, कुछ समाज व्यवस्थाएं अधिक उदार हैं, और उनमें लोग मनचाहे रिश्ते बना सकते हैं, उन्हें कोई कुछ नहीं कहते। दूसरी तरफ कुछ समाज अधिक तंगदिल होते हैं, और उनमें ऐसे संबंध मरने-मारने की नौबत ले आते हैं। हिन्दुस्तान पढ़-लिख गया है, संपन्न भी हो गया है, लेकिन यहां तो जवान और बालिग प्रेमी जोड़े को भी अपनी पसंद से प्रेम करने या शादी करने की छूट नहीं मिलती है, ऐसे में इस देश में विवाहेत्तर संबंधों को भला कैसे छूट मिल सकती है। फिर जिस घटना से आज यहां लिखने की वजह बन रही है उसमें तो यह लडक़ा नाबालिग था, और महिला अधेड़ थी, शादीशुदा थी, और चार बच्चों की मां भी थी। लेकिन जैसा कि जिंदगी की हकीकत में होता है, प्रेम और देह संबंध न तो उम्र का फासला देखते हैं, और न ही रिश्तों के वर्जित होने से उनमें कोई बाधा आती है। लोगों के तन और मन की जरूरतें जाति और समाज व्यवस्था से लाखों बरस पुरानी हैं, और अधिक बुनियादी हैं। वे जरूरत पडऩे पर तमाम व्यवस्थाओं को तोडक़र अपने इंसान होने का दावा करने लगती हैं।

यह भी समझने की जरूरत है कि विकास होने के साथ-साथ क्या दुनिया में सामाजिक प्रतिबंध कहीं पर कम हो रहे हैं, और कहीं पर बढ़ रहे हैं? दुनिया के जिन देशों में लोगों के बीच बेरोजगारी अधिक है, जहां लोग ठलहा बैठे हुए हैं, जहां महिलाओं को काम करने के मौके कम हैं, और जहां घरेलू काम और पड़ोस के गॉसिप तक सीमित रहना उनकी मजबूरी है, उन जगहों पर समाज के प्रतिबंध बढ़ते चलते हैं। दूसरी तरफ जिन देशों में खूब आर्थिक विकास है, जहां पर हर किसी के पास या तो रोजगार है, या फिर जीने के और तरीके हैं, वहां पर समाज व्यवस्था भी उदार होने लगती है क्योंकि तमाम लोग अपने आपमें मस्त रहते हैं। जहां लोगों के पास अपने वक्त का इस्तेमाल नहीं रहता है, वहां पर उन्हें धार्मिक आध्यात्मिक प्रवचनों में फंसाकर रखा जाता है, और वहां संकीर्णता पनपने लगती है।

वैसे दुनिया के सबसे विकसित और संपन्न देशों को देखें तो वहां पर भी एक कमउम्र नाबालिग, और दूसरे अधेड़ के बीच के सेक्स संबंध जुर्म के दायरे में ही आते हैं, और उत्तरप्रदेश के गोंडा का यह ताजा मामला उसी दर्जे का है। लोगों को याद होगा कि अभी कुछ अरसा पहले ही छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में ऐसा एक मामला सामने आया था जिसमें एक अधेड़ शिक्षिका ने अपने एक नाबालिग छात्र से जबर्दस्ती सेक्स-संबंध बना लिए थे, और फिर उस लडक़े ने थक-हारकर तनाव में खुदकुशी कर ली थी, और उसकी छोड़ी चिट्ठी की बिना पर उस शिक्षिका को गिरफ्तार भी किया गया था।

जब कभी अपने आसपास की आम और औसत समाज व्यवस्था से बहुत परे जाकर तन या मन के कोई संबंध बनते हैं, तो वे कई बार मरने या मारने तक पहुंच जाते हैं। धर्म, जाति, या परिवार ऐसे लोगों को मारने पर उतारू हो जाते हैं, या फिर उन्हें इतना प्रताडि़त किया जाता है कि वे खुदकुशी कर लें। भारत चूंकि विविधताओं वाला देश है, और यहां पर न सिर्फ धर्म और जाति की विविधता है, बल्कि क्षेत्रीय रीति-रिवाजों, और स्थानीय संस्कृतियों की विविधता भी है, और इतने किस्म की समाज व्यवस्था लोगों की निजी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को कुचलने के लिए काफी रहती हैं। जैसे-जैसे शहरीकरण बढ़ रहा है, जैसे-जैसे लड़कियों की आर्थिक आत्मनिर्भरता बढ़ रही है, वैसे-वैसे सामाजिक दबाव से बाहर निकलने की संभावनाएं बढ़ रही हैं। फिलहाल आत्मघाती हिंसा के ऐसे मामलों को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि लोगों को अगर सामाजिक बंधनों को तोडक़र अपने हिसाब से जीना है, तो उन्हें अपनी जगह और अपनी आर्थिक क्षमता के बारे में पहले सोचना चाहिए। गोंडा में जिस तरह बाहर कमाने गए एक गरीब कामगार की बीवी ऐसे रिश्ते में पड़ी, उसके बजाय अगर वह किसी महानगर में रहने वाली करोड़पति महिला होती, और अपने आसपास के किसी नाबालिग लडक़े से उसका रिश्ता हो गया रहता, तो उन दोनों के मरने की नौबत उतनी आसान से नहीं आई रहती। मतलब यह कि एक ही देश, एक ही धर्म, समान समाज व्यवस्था में भी अलग-अलग आर्थिक क्षमता के लोगों के लिए सामाजिक नियम अलग-अलग रहते हैं। करोड़ों के किसी फ्लैट में साथ रहने वाले गैरशादीशुदा लडक़े-लडक़ी को अड़ोस-पड़ोस के ऐसे किसी विरोध का सामना नहीं करना पड़ता जैसा कि किसी मोहल्ले में एक कमरा लेकर रहने वाले अविवाहित लडक़े-लडक़ी को झेलना पड़ेगा। मतलब यह कि पैसे की ताकत लोगों को कई किस्म की तथाकथित अनैतिकता की ताकत भी दे देती है।

लोगों को अपने दायरे को देखते हुए ही अपना चाल-चलन तय करना चाहिए, वरना लोग उन्हें मार डालेंगे, या खुदकुशी के लिए मजबूर कर देंगे।  जब कांच के मछलीघर में मछलियों को रखा जाता है, तो वे पानी की पीएच वेल्यू अपने हिसाब से बदल लेती हैं, और अगर नहीं बदल पातीं, तो मर जाने का खतरा ढोती हैं। इंसानों को भी या तो समाज की सोच को बदलना होगा, या उसकी तलवार के सामने अपनी गर्दन रखनी होगी।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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