संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : दो पड़ोसियों की परेशानी के बीच फंसा हिन्दुस्तान
05-Apr-2022 5:17 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  दो पड़ोसियों की परेशानी के बीच फंसा हिन्दुस्तान

हिन्दुस्तान के पड़ोस में दो देशों में अलग-अलग वजहों से एक भयानक अस्थिरता की नौबत आई हुई है, और इसका भारत पर कई तरह से असर पडऩा तय है। श्रीलंका में जो आर्थिक इमरजेंसी खड़ी हुई है उसमें वहां के लोगों का जीना मुहाल हो गया है, सरकार खत्म हो चुकी है, सत्तारूढ़ कुनबा अपने इस्तीफे देकर विपक्षियों को सरकार में शामिल होने का न्यौता देकर बैठा है, यह एक और बात है कि डूबते हुए जहाज की ऐसी कप्तानी में भागीदारी करना कोई नहीं चाहते। यह एक अजीब सा देश हो चुका था जिसमें राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भाई हैं, और इनके कुनबे के तीन और लोग अलग-अलग मंत्री हैं। अभी जब देश में बगावत की नौबत आ गई, लोगों के पास खाने को नहीं बचा, देश में बिजली-पेट्रोल नहीं बचा, जब राजधानी में लोगों की भीड़ राष्ट्रपति भवन की तरफ बढ़ गई, तब ऐसे जनदबाव में परिवार के तीन लोगों ने मंत्री पद से इस्तीफा दिया क्योंकि राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री छोडक़र सभी मंत्रियों के इस्तीफे ले लिए गए थे। लेकिन नाराज जनता सडक़ों पर नारे लगा रही है कि ये राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री भी जाएं क्योंकि आर्थिक बदहाली के लिए वे ही जिम्मेदार हैं। श्रीलंका से यह सबक लेना जरूरी है कि किस तरह वहां बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक आबादी के बीच चले लंबे गृहयुद्ध ने देश की अर्थव्यवस्था को चौपट किया, फिर श्रीलंका से होने वाले सामानों का निर्यात घटा, और 2019 में राजधानी कोलंबो में होटलों और चर्चों पर आतंकी हमले हुए जिसमें साढ़े तीन सौ से ज्यादा लोग मारे गए, और श्रीलंका का पर्यटन उद्योग पूरी तरह चौपट हो गया। यही तमाम बातें देश की कमाई थी, और सब कुछ खत्म होने के साथ-साथ अभी ठीक एक बरस पहले राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने एक सनकी फैसला लिया कि देश में रासायनिक खाद का इस्तेमाल पूरी तरह बंद किया जा रहा है, और खाद का आना रोक दिया गया, फसल गिर गई, और यह अर्थव्यवस्था के ताबूत की आखिरी कील साबित हुई। आज श्रीलंका दाने-दाने को मोहताज है, और अपने बंदरगाह चीन के पास गिरवी रखकर एक-एक दिन काट रहा है, भारत से मदद की अपील कर रहा है।

भारत के दूसरी ओर पाकिस्तान एक बिल्कुल ही अलग किस्म की राजनीतिक अस्थिरता से घिर गया है, अपनी ही पार्टी में अल्पमत का शिकार होकर प्रधानमंत्री इमरान खान ने संसद के भीतर अविश्वास प्रस्ताव का सामना करने की बात तो कही, लेकिन अपनी ही पार्टी के संसद अध्यक्ष के हाथों अविश्वास प्रस्ताव को खारिज करवाकर उन्होंने राष्ट्रपति के मार्फत संसद भंग करवा दी, और अब देश एक और चुनाव के मुहाने पर पहुंच रहा है। हालांकि अभी सुप्रीम कोर्ट में संसद के फैसले के खिलाफ अपील पर सुनवाई चल रही है, लेकिन यह देश अपने अस्थिर लोकतंत्र की लंबी परंपरा को बढ़ाते हुए आज फिर बुरी तरह अस्थिर खड़ा हुआ है। देश में ऐसे ही मौकों पर फौज ने कई बार सत्ता संभाली हुई है, और इस बार भी अगर ऐसी कोई नौबत आती है तो वह अभूतपूर्व नहीं रहेगी, और न ही ऐतिहासिक रहेगी। दिक्कत यह है कि पाकिस्तान और हिन्दुस्तान जब-जब किसी घरेलू संकट का शिकार होते हैं तो वहां की सरकारें सरहद पार पड़ोस से कोई टकराव खड़ा करके लोगों का ध्यान उधर खींचने का काम करती हैं। ऐसे में पाकिस्तान की घरेलू समस्या कब भारत के लिए कोई समस्या हो सकती है, इसका अंदाज लगाना न बहुत आसान है, और न बहुत मुश्किल। पाकिस्तान से भारत की चल रही तनातनी के चलते हुए वहां का कोई बोझ सीधे-सीधे हिन्दुस्तान पर नहीं पडऩे वाला है, लेकिन कार्यकाल के बीच में बदलने वाली सरकार पता नहीं कैसी अगली सरकार के लिए रास्ता खाली करेगी, और उसकी भारत नीति कैसी रहेगी, यह एक फिक्र की बात तो है ही क्योंकि पाकिस्तान मुस्लिम आतंकियों की पनाहगाह भी है, और एक परमाणु शक्ति भी है। पाकिस्तान में परमाणु शक्ति अगर आतंकी हाथों तक पहुंचती है, तो उसके नतीजे कल्पना से परे के भयानक हो सकते हैं। इसलिए वहां पर लोकतंत्र की शिकस्त को लेकर खुशी मनाने वाले कुछ हिन्दुस्तानी हालात की नजाकत को नहीं समझते हैं।

श्रीलंका में जब कभी गृहयुद्ध होता है, या कोई और आर्थिक संकट आता है तो उसका असर भारत के कुछ हिस्सों पर भी पड़ता है। भारत का तमिलनाडु न सिर्फ श्रीलंका के बहुत करीब है, बल्कि श्रीलंका की तमिल आबादी पहले भी गृहयुद्ध के चलते हुए लाखों की संख्या में तमिलनाडु में आकर शरणार्थी रह चुकी है। अभी भी पिछले कुछ दिनों में श्रीलंका से तमिल लोग तमिलनाडु पहुंच रहे हैं, और यह भारत के लिए एक फिक्र की बात रहेगी, भारत पर एक बड़ा आर्थिक बोझ भी रहेगा। भारत के लिए श्रीलंका एक मजबूरी इसलिए है कि मुसीबत में उसका साथ न देने पर वह चीन की गोद में जाकर बैठने को मजबूर हो जाएगा, और वह भारत के लिए एक बड़ा फौजी खतरा रहेगा। इसलिए पाकिस्तान से अलग, श्रीलंका भारत के लिए एक आर्थिक बोझ रहेगा, और आज हिन्दुस्तान की खुद की हालत ऐसी नहीं है कि वह श्रीलंका को एक सीमा से अधिक मदद कर सके। इतना जरूर है कि जहां श्रीलंका में सत्तारूढ़ नेता जनता का भरोसा पूरी तरह खोकर उसके निशाने पर हैं, जहां पाकिस्तान ने प्रधानमंत्री इमरान खान अपनी पार्टी के सांसदों का भी भरोसा खो चुके हैं, वहां पर हिन्दुस्तान में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश में एक अभूतपूर्व जनसमर्थन वाले नेता बने हुए हैं। लेकिन देश पर पडऩे वाले बोझ और देश की सरहदों पर खड़े खतरे को अनदेखा नहीं किया जा सकता। भारत जैसे बड़े देश का नेता, और यह देश पड़ोसी देशों में हो रही हलचल से अछूता नहीं रह सकता। भारत की विदेश नीति की जटिलताओं को समझने वाले इस बात को बेहतर तरीके से समझ और समझा सकते हैं कि इन दो देशों के अलावा चीन के साथ चल रहे तनावपूर्ण संबंधों को भी साथ-साथ निभाना भारत का एक बड़ा बोझ है। यह देखना भी दिलचस्प है कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों के ऐसे मोर्चे पर इसी महीने भारत में नए विदेश सचिव काम सम्हालने जा रहे हैं, जो कि  अभी तक एक बहुत ही छोटे देश नेपाल में भारत के राजदूत हैं। भारत सरकार की यह नीति भी थोड़ा हैरान करती है कि जो देश का अगला विदेश सचिव होने जा रहा था, उसे नेपाल जैसे छोटे देश में राजदूत रखा गया था। खैर, आने वाले महीने कई देशों के साथ भारत के संबंधों को लेकर बड़े नाजुक बने रहेंगे, आगे-आगे देखें, होता है क्या।
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