संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : क्या हाईकोर्ट में अफसरों के हलफनामे से लोगों की जिंदगी तबाह होना थमेगी?
10-Apr-2022 5:10 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : क्या हाईकोर्ट में अफसरों के हलफनामे से लोगों की जिंदगी तबाह होना थमेगी?

छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में राजधानी रायपुर के अफसरों ने हलफनामा दिया है कि वे ध्वनि प्रदूषण को रोकने के लिए हाईकोर्ट के आदेश का शब्दश: पालन करेंगे। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के कई बार के आदेश के बावजूद छत्तीसगढ़ के शहरों में भयानक ध्वनि प्रदूषण किया जाता है, और उसे रोकने का जिम्मा जिन अफसरों पर है वे पूरी तरह उसकी अनदेखी करते हैं। ऐसे में रायपुर में अदालती अनदेखी करने को लेकर अफसरों के खिलाफ अवमानना याचिका लेकर लोग हाईकोर्ट गए थे, और वहां पर अदालत को अफसरों ने यह भरोसा दिलाया है। अदालत तक बार-बार जाने वाले लोगों में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी और सरकार के बड़े करीबी लोग भी शामिल हैं, जिससे जाहिर है कि सरकार तक उनकी पहुंच शोरगुल को कम करने में काम नहीं आ रही है। राजधानी रायपुर के कुछ सामाजिक कार्यकर्ता लगातार सोशल मीडिया पर होटलों और शादी-ब्याह, जुलूस और शोभायात्राओं के लाउडस्पीकरों के वीडियो भी लगातार सोशल मीडिया पर पोस्ट होते हैं, लेकिन अफसरों पर इनका कोई असर नहीं होता। सौ जगहों पर कानून तोड़ा जाता है तो दो जगहों के चालान को अफसर अपनी कार्रवाई के सुबूत की तरह पेश कर देते हैं। और ऐसा लगता है कि जब किसी प्रदेश की राजधानी ही इस हद तक अराजक रहे तो उसका एक मतलब यह भी होता है कि सत्ता को भी उस मुद्दे से कोई फर्क नहीं पड़ रहा। जिला स्तर के अफसरों के ऊपर के बड़े अफसरों और मंत्रियों तक अदालत की अवमानना के मामले आमतौर पर नहीं पहुंचते, और इसलिए किसी की आंखें भी नहीं खुलतीं। जिस प्रदेश के डीजीपी और मुख्य सचिव को कटघरे में खड़ा किया जाता है, उस प्रदेश में जिले के अफसरों के हाथ-पैर हिलने लगते हैं।

ध्वनि प्रदूषण जब कारोबारी और संगठित रूप से होता है, जब वह एक जलसे और जुलूस की शक्ल में होता है, तो वह फटाखा जलाकर भाग जाने जैसा काम नहीं होता है, बल्कि वह सोच-समझकर, खर्च करके, नुमाइश करके, और अपनी शान दिखाने के लिए किया गया काम होता है, जो कि स्थानीय पुलिस और दूसरे अफसरों की नजरों से बचा नहीं रहता, और जो कानून और अदालती हुक्म को एक सीधी चुनौती जैसा रहता है। जब बड़ी-बड़ी गाडिय़ों पर ढेर सारे लाउडस्पीकर बांधकर, तरह-तरह की रौशनी एक-एक किलोमीटर तक लोगों की आंखों में फेंकते हुए सडक़ों पर रास्ता जाम करते हुए जुलूस निकलते हैं, तो भला कोई अफसर अपने आपको उससे अनजान कैसे बता सकते हैं?

अदालत ने अभी यह भी कहा है कि अफसर लोगों को फोन नंबर मुहैया कराएं जिस पर लोग शिकायत कर सकें। यह काम तो वैसे भी होना चाहिए, और हर जिले के अफसरों को न सिर्फ शोरगुल के लिए बल्कि किसी भी दूसरे तरह के कानून तोडऩे के खिलाफ शिकायत के लिए सोशल मीडिया के पेज भी मुहैया कराने चाहिए, और फोन नंबर भी। आज किसी अराजकता की वीडियो रिकॉर्डिंग करके उसे पोस्ट करना या वॉट्सऐप पर भेजना बड़ा आसान हो गया है, और यह पुलिस के लिए मुफ्त में हासिल होने वाली मुखबिरी जैसी है। साथ-साथ अब चूंकि यह मामला अदालत में अफसरों के दिए हुए हलफनामे पर भी जाकर टिक गया है, तो ऐसे संदेश और पोस्ट की गई ऐसी शिकायतें एक सुबूत की तरह भी काम करेंगी। आज दिक्कत यह है कि इन सुबूतों के रहते हुए भी अफसर इतना मामूली जुर्माना करते हैं कि अगले दिन से फिर वही गाड़ी वाले वही स्पीकर लगाए फिर कानून तोड़ते हुए, और लोगों का जीना हराम करते हुए निकल पड़ते हैं। ऐसी गाडिय़ां राजसात करना, इनका रजिस्ट्रेशन रद्द करवाना, ऐसे सामान जब्त करना, ऐसा कारोबार करने वाले लोग और उन्हें भाड़े पर लेने वाले लोगों को गिरफ्तार करना अगर शुरू किया जाए तो अगले दिन से तस्वीर बदल जाएगी।

इस बार सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अफसरों के खिलाफ हाईकोर्ट में जिस तरह की घेरबंदी की है, उसमें आम लोगों को भी साथ देना चाहिए। आम लोगों को भी कानून तोडऩे के सुबूत जुटाकर उन्हें मीडिया को भी भेजना चाहिए, और सोशल मीडिया पर भी पोस्ट करना चाहिए। होटल और मैरिज गार्डन किस्म के जो कारोबार लगातार कानून तोड़ते हैं, उनके खिलाफ रिकॉर्डिंग करके हाईकोर्ट को भी भेजना चाहिए ताकि स्थानीय अफसरों पर अपने असर का इस्तेमाल करके उनका बचना जारी न रहे। हाईकोर्ट बरसों से अफसरों को चेतावनी देते आ रहा है, और अफसर बरसों से उसके हुक्म को कचरे की टोकरी में फेंकते आ रहे हैं। अब लोहा गर्म हो चुका है, और अब भी अगर लोगों की जिंदगी को हराम करने का यह सिलसिला जारी रहता है, तो ऐसा करने वाले लोगों, और उन्हें छूट देने वाले अफसरों को अदालती कटघरे तक ले जाने के सुबूत लोगों को जुटाने चाहिए।

हमारा ख्याल है कि जिन सामाजिक कार्यकर्ताओं ने हाईकोर्ट तक जाकर जनहित याचिका लगाई थी, और जो बार-बार अवमानना याचिका भी लगा रहे हैं, उन्हें सोशल मीडिया पर इसके लिए पेज बनाकर उसका प्रचार करना चाहिए, ताकि लोग वहां पर कानून तोडऩे के सुबूत पोस्ट कर सकें। इसके बाद अफसरों के लिए भी यह आसान नहीं रहेगा कि वे जानकारी न होने या शिकायत न मिलने का बहाना बना सकें। आज शहरी जिंदगी में लोगों पर इतना काम रहता है, लोगों को फोन पर और दूसरी तरह से भी इतना काम करना पड़ता है कि पास घंटों बजते हुए लाउडस्पीकर उनकी जिंदगी का सुख-चैन तो खत्म करते ही हैं, उनकी उत्पादकता भी खत्म करते हैं। दिलचस्प बात यह है कि राजधानी में प्रशासन ने राजभवन और मुख्यमंत्री निवास के आसपास के इलाके में लाउडस्पीकर बजाने पर स्थायी रूप से रोक लगा रखी है। क्या इन्हें नागरिकों से ऊपर का कोई बुनियादी हक मिला हुआ है? या फिर आम नागरिकों की कीमत आम की गुठली जितनी है जिन्हें कि किसी भी तरह के शोरगुल से, प्रदूषण से हलाकान किया जाए। अब अदालती आदेश के बाद छत्तीसगढ़ के शहरों की जनता की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह सक्रिय हो, कानून तोडऩे की रिकॉर्डिंग करे, और उसे सोशल मीडिया पर पोस्ट करे, अपने इलाके के अफसरों को भेजे।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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