संपादकीय
कांग्रेस के लिए कल का दिन एक बड़ा नाटकीय दिन था जब देश के एक बड़े चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर न सिर्फ अचानक सोनिया गांधी के घर पहुंचे, बल्कि वहां आधा-एक दर्जन प्रमुख कांग्रेस नेताओं के सामने उन्होंने 2024 की चुनावी संभावनाओं पर चार घंटे तक अपनी राय और अपना अंदाज सामने रखा। यह राजनीतिक अटकल की बात नहीं है क्योंकि कांग्रेस के एक सबसे बड़े नेता ने इसके बाद औपचारिक रूप से मीडिया से कहा कि प्रशांत किशोर के प्रस्तुतिकरण पर फैसला लेने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष ने एक कमेटी बनाई है जो कि एक हफ्ते में अपनी रिपोर्ट कांग्रेस अध्यक्ष को देगी। ऐसा लगता है कि जिन नेताओं को कल प्रशांत किशोर के साथ की इस बैठक में बुलाया गया था, शायद उन्हीं से यह कमेटी बनी होगी, और इतने बड़े राजनीतिक कदम की घोषणा करने के पहले यह स्वाभाविक ही लगता है कि कांग्रेस और प्रशांत किशोर किसी आपसी सहमति और तालमेल पर पहुंच चुके होंगे, और अब उसकी औपचारिक घोषणा ही बाकी रह गई दिखती है।
जो लोग भारतीय राजनीति को लगातार देखते हैं उन्हें याद होगा कि कई महीने पहले भी प्रशांत किशोर ने ममता बैनर्जी के रणनीतिकार रहते हुए सोनिया, राहुल, और प्रियंका गांधी के साथ बैठक की थी, और भाजपा-एनडीए के मुकाबले देश में एक विपक्षी मोर्चे की वकालत की थी, लेकिन वह बात किसी किनारे पहुंच नहीं पाई थी। प्रशांत किशोर ने नाकामयाब होने के बाद कांग्रेस लीडरशिप के अहंकार को लेकर एक ट्वीट भी किया था, और कांग्रेस लीडरशिप के बचाव में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने एक ट्वीट से प्रशांत किशोर पर हमला भी किया था। खैर, उस दौरान प्रशांत किशोर शरद पवार जैसे कुछ और ताकतवर नेताओं से मिले थे, और कल की कांग्रेस के साथ उनकी बैठक हो सकता है कि कांग्रेस के रणनीतिकार बनने के बारे में न हो, और यह बैठक एनडीए के मुकाबले एक अधिक व्यापक विपक्षी गठबंधन बनाने की एक कोशिश की तरह हो। इन दोनों में से जो कुछ भी हो, ऐसा लगता है कि प्रशांत किशोर देश में मोदी के मातहत चल रही राजनीति की विकराल ताकत का खतरा देख रहे हैं, और उसका विकल्प बनाना चाहते हैं। लोकतंत्र में ऐसी कोई पहल जो कि विपक्ष को मजबूत बना सके, वह कुल मिलाकर लोकतंत्र को भी मजबूत बनाती है। लेकिन प्रशांत किशोर की भूमिका को लेकर हमारे मन में कुछ और बातें सामने आती हैं जिन पर हम पहले लिख भी चुके हैं।
आज देश में सवा सदी से पुरानी कांग्रेस पार्टी किनारे होते-होते हाशिए पर जा चुकी है। अभी सात बरस पहले तक जो सोनिया गांधी दस बरस सरकार चलाने वाली यूपीए की मुखिया थीं, उनके पास आज चलाने के लिए अपनी खुद की पार्टी का भी कोई ढंग का ढांचा नहीं बचा है, और कांग्रेस आज लोगों के मजाक का सामान बन चुकी है, लोगों की हमदर्दी की हकदार दिख रही है। जिस यूपीए ने दस बरस तक देश पर एक मजबूत सरकार चलाई, वह बड़ा गठबंधन कायम नहीं रह पाया, और उसकी मुखिया कांग्रेस पार्टी खुद भी लगातार चुनावी हार के सिवा कुछ हासिल नहीं कर पाई। यह बात कांग्रेस और बाकी विपक्ष के लिए सोचने की है, लेकिन भारतीय लोकतंत्र में आज ऐसे कोई किरदार नहीं दिख रहे हैं जो कि चार पार्टियों को साथ बिठाकर देश के लोकतंत्र को बचाने की उनकी ऐतिहासिक जिम्मेदारी याद दिला सकें, उन्हें साथ ला सकें। लोगों को याद पड़ता है कि किस तरह सत्ता के मोह से परे रहते हुए जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में देश की तमाम गैरकांग्रेस पार्टियों की एकजुटता हुई थी। लेकिन जेपी कोई पेशेवर रणनीतिकार नहीं थे, वे बंद कमरे से काम नहीं करते थे, वे एक जननेता थे, और अपने गांधीवादी मूल्यों को लेकर लोगों के बीच जाने की हिम्मत रखते थे, और उन्होंने 1977 के चुनाव में इमरजेंसी की सरकार को उखाड़ फेंका था। आज लोगों को केन्द्र की मोदी सरकार से लोकतंत्र को खतरे तो बहुत दिखते हैं, लेकिन इस खतरे को घटाने के लिए विपक्ष को जोडऩे का काम करने की ताकत और क्षमता किसी एक नेता में नहीं दिख रही है। नतीजा यह है कि प्रशांत किशोर जैसा एक पेशेवर, और खुद राजनीति से परे रहने वाला इंसान विपक्षी एकता की पहल कर रहा है, ममता बैनर्जी से परे ऐसी पहल कर रहा है। क्या इसका हम यह मतलब निकालें कि किस तरह राजनीति के पुराने जानकार और मंजे हुए लोग विवेकशून्य हो गए हैं, इतने आत्मकेन्द्रित हो गए हैं कि अपनी पार्टी के सबसे बड़े स्वार्थों से परे कुछ भी नहीं सोच पा रहे हैं? ये सारे सवाल जो कि प्रशांत किशोर को इतनी बड़ी भूमिका निभाते देखकर खड़े होते हैं, वे भारत के राजनीतिक दलों में आपसी तालमेल बनाने की ताकत न रखने वाले नेताओं को देखकर हैरान रह जाते हैं। क्या इस विशाल लोकतंत्र में, और आजादी की 75वीं सालगिरह के इस मौके पर अब यही देखना रह गया है कि प्रशांत किशोर नाम का एक आदमी अपनी उम्र जितने बरस से राजनीति कर रहे लोगों को राजनीति सिखाने के लिए रखा जा रहा है? हम किसी भी उम्र में किसी से भी कुछ सीखने के खिलाफ नहीं हैं। अगर हिन्दुस्तान का विपक्ष प्रशांत किशोर की सेवाओं को लेकर मजबूत हो सकता है, तो वही सही। हर किसी को अपने आपको मजबूत करने के लिए सभी कानूनी तरीकों के इस्तेमाल की छूट रहती है, इसलिए प्रशांत किशोर से रणनीति बनवाकर अगर ममता बैनर्जी सत्ता पर लौटती हैं, या नीतीश कुमार सत्ता पर लौटते हैं तो इसमें अलोकतांत्रिक कुछ नहीं है। हैरानी की बात यही है कि क्या पूरी जिंदगी राजनीति में लगाने वाले लोग उसमें अपनी जिंदगी लगा नहीं रहे थे, और गंवा रहे थे? ये सब सवाल प्रशांत किशोर की काबिलीयत और उनकी जरूरत को कम नहीं आंकते हैं, बल्कि नेताओं को आईना दिखाते हैं कि एक अकेले पेशेवर रणनीतिकार के मुकाबले उन सबकी मिलीजुली औकात कितनी रह गई है!
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