संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : आदिवासियों पर सौ से अधिक शोधपत्र, लेकिन उनके जख्मों की हकीकत पर कितने?
20-Apr-2022 4:45 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : आदिवासियों पर सौ से अधिक शोधपत्र, लेकिन उनके जख्मों की हकीकत पर कितने?

छत्तीसगढ़ में अभी राष्ट्रीय जनजातीय साहित्य महोत्सव चल रहा है। यह एक बड़ा कार्यक्रम है, और सरकार इसकी मेजबानी कर रही है। तीन दिनों तक लगातार लोग अपने शोधपत्र पढ़ेंगे, और सरकारी समाचार के आंकड़े बतलाते हैं कि सौ से अधिक शोधपत्र पढ़े जाएंगे। इसके अलावा मेजबान छत्तीसगढ़ अपने स्तर पर जनजातीय नृत्य महोत्सव और जनजातीय कला प्रतियोगिता भी आयोजित कर रहा है। जिन लोगों को जनजातीय से ठीक-ठीक अहसास नहीं हो पा रहा है, उन्हें यह बता देना ठीक होगा कि आम बोलचाल में जिन्हें आदिवासी कहा जाता है, यह उन्हीं पर केन्द्रित कार्यक्रम है। जो विभाग इसे करवा रहा है वह भी आदिम जाति कल्याण विभाग है, इस आयोजन को पता नहीं क्यों आदिवासी की जगह जनजातीय कहा गया है। खैर, किस तबके को किस नाम से बुलाया जाए यह एक अलग बहस हो सकती है, लेकिन जहां सौ से अधिक शोधपत्र पढ़े जाने हैं, वहां हम आज आदिवासियों के एक खास पहलू पर चर्चा करना चाहते हैं, जो कि इस आयोजन की सरकारी खबर में तो कम से कम नजर नहीं आ रहा है।

आज न सिर्फ हिन्दुस्तान के, बल्कि पूरी दुनिया के आदिवासी एक अभूतपूर्व तनाव से गुजर रहे हैं। उनके इलाके कहीं हथियारबंद नक्सलियों और सुरक्षा बलों के बीच संघर्ष की जगह बने हुए हैं, कहीं उन्हें बेदखल करके खदान खोदकर खनिज निकालने की तैयारी चल रही है, कहीं उनके जंगल काटे जा रहे हैं, और बेदखल तो उन्हें तमाम जगहों से किया ही जा रहा है। छत्तीसगढ़ में पिछली भाजपा सरकार के वक्त एक लाख या अधिक आदिवासियों को बस्तर में सरकारी सलवा-जुडूम के चलते प्रदेश छोडक़र बगल के आन्ध्र जाना पड़ा था, उनकी घरवापिसी अभी तक हो नहीं पाई है, और कुछ दिनों पहले की ताजा पहल बताती है कि उनमें से सौ परिवारों को वापिस लाकर बसाने पर सरकार सहमत हुई है। कश्मीर से कश्मीरी पंडितों की बेदखली पर तो कश्मीर फाइल्स नाम की एक फिल्म को एक रणनीति के तहत बनाया गया, लेकिन भाजपा शासन काल में बस्तर से बेदखल आदिवासियों पर कोई फिल्म भी नहीं बनी है। खैर, हम एक ही मुद्दे पर बात को खत्म करना नहीं चाहते, इसलिए आदिवासियों से जुड़े हुए दूसरे बहुत से ऐसे मुद्दे हैं जो कि अभी छत्तीसगढ़ में चल रहे इस राष्ट्रीय आयोजन में उठने चाहिए थे। लेकिन शायद सरकार मेजबान है, इसलिए आयोजन में आए लोग सत्ता पर मेहरबान हैं, और आदिवासियों के मुद्दे किनारे धरकर किताबी बातचीत ही चल रही है।

ऐसा भी नहीं है कि आदिवासियों के मुद्दों को लेकर दुनिया में कहीं लिखा नहीं जा रहा है। उनके बीच के लोग जो साहित्य लिख रहे हैं, या आदिवासियों पर जो साहित्य लिखा जा रहा है, वह भारी राजनीतिक चेतना का है, और कई असुविधाजनक बुनियादी सवाल भी उठाता है। आज जंगलों से बेदखली आदिवासी जनजीवन का सबसे बड़ा मुद्दा है। आदिवासी जीवनशैली का परंपरागत खानपान आज हमले का शिकार है। सरकारी पढ़ाई और नौकरी की गिनती घटती जा रही है, और आदिवासी की संभावनाएं भी। इस मुद्दे पर बात होनी चाहिए क्योंकि आज सरकारी संस्थाओं का निजीकरण, और सरकारी पढ़ाई की जगह निजी संस्थान बढ़ते चलने से आरक्षित तबके की संभावनाएं घटती जा रही हैं। ऐसे में आदिवासी बोली या दूसरे किस्म के आदिवासी साहित्य के बजाय आदिवासियों के जलते-सुलगते मुद्दों पर अधिक बात होनी चाहिए थी, और ऐसा भी नहीं है कि इन मुद्दों पर लिखने वाले साहित्यकार कम हैं।

और यह बात सिर्फ आदिवासी साहित्य के साथ हो ऐसा भी नहीं है, आज तमाम वही साहित्य महत्व पाता है जो कि जिंदगी की जलती-सुलगती हकीकत को अनदेखा करते चलता है। फिर देश भर में जहां-जहां सत्ता के संरक्षण में साहित्या या संस्कृति को बढ़ावा देने की कोशिश होती है वहां जलते-सुलगते मुद्दों का भला क्या काम? इसलिए आज जब छत्तीसगढ़ में तीन दिनों का इतना बड़ा आयोजन आदिवासी साहित्य और उनसे जुड़े हुए कुछ मुद्दों पर हो रहा है, तो बस्तर जैसे इलाके में बेकसूर आदिवासियों को नक्सल बताकर उनकी हत्या पर कोई बात नहीं है, उनकी महिलाओं के साथ सुरक्षा बलों के बलात्कार पर कोई बात नहीं है, पिछली भाजपा सरकार के दौरान कुख्यात पुलिस अफसरों ने जिस तरह गांव के गांव जलाए, थोक में बेकसूरों को मारा, उन पर कोई बात नहीं है। अब सवाल यह उठता है कि क्या इन मुद्दों पर कोई आदिवासी-साहित्य लेखन हो ही नहीं रहा है, या वैसे साहित्य पर चर्चा की कोई असुविधा झेलना ही नहीं चाहते? पूरे देश में खदानों के लिए, कारखानों के लिए आदिवासियों के जंगलों की कटाई और उन पर कब्जा हॉलीवुड की फिल्म अवतार के अंदाज में चल रहा है। सरकार और कारोबार का मिलाजुला बाहुबल इस काम में लगा है, और आदिवासियों की तकलीफ को जगह देने के लिए भारत के शहरी लोकतंत्र में कोई मंच भी नहीं बचा है। नतीजा यह है कि नक्सली बंदूकों की नाल से ही आदिवासी की आह निकल पा रही है। लेकिन छत्तीसगढ़ के तीन दिनों के इस आयोजन में सत्ता की आलोचना वाला देश भर में कई जगह आदिवासियों पर लिखा गया साहित्य किसी चर्चा मेें नहीं है। इसमें अटपटा कुछ नहीं है, सत्ता कभी अपने आयोजनों पर खर्च करते हुए उनमें अपनी आलोचना को न्यौता नहीं देती है। लेकिन इस आयोजन में जुटे सैकड़ों लोगों में से किसी ने भी यह आवाज नहीं उठाई है कि इतने बड़े आयोजन में आदिवासियों के दर्द की कोई आवाज नहीं है।

छत्तीसगढ़ सरकार चाहती तो कार्यक्रम के सरकारी होने पर भी उसमेें हकीकत को जगह दे सकती थी, छत्तीसगढ़ में आदिवासियों पर तकरीबन तमाम जुल्म पिछले पन्द्रह बरस की भाजपा सरकार के दौरान दर्ज हुए थे, लेकिन सत्ता शायद सत्ता होती है, और वह ऐसी असुविधा खड़ी करना नहीं चाहती जो कि उसके आज के कामकाज पर भी लागू हो, और भारी पड़े। लेकिन जैसा कि बहुत से अंतरराष्ट्रीय आयोजनों में होता है, इस आयोजन के समानांतर भी एक स्वतंत्र आयोजन हो सकता था जिसमें आदिवासियों की तकलीफों, और उनके जख्मों पर चर्चा हो सकती थी, लेकिन शायद इस देश में अब असल मुद्दों पर आंदोलन चला पाना भी आसान नहीं रह गया है, कहीं उन्हें नक्सली करार दे दिया जाएगा, कहीं टुकड़े-टुकड़े गैंग, और कहीं देशद्रोही। फिर भी आदिवासी जिंदगी को लेकर काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं को ऐसे मौके पर जलते-सुलगते पहलुओं की नामौजूदगी की बात तो उठानी ही चाहिए। अब तक तो ऐसी कोई आवाज सुनाई नहीं पड़ रही है।
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