संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ‘ऊंचे’ लोगों और ‘नीचे’ लोगों की जिंदगी में इतना फासला !
23-Apr-2022 5:48 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ‘ऊंचे’ लोगों और ‘नीचे’ लोगों की जिंदगी में इतना फासला !

भारत सरकार के नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के आंकड़ों का विश्लेषण एक दिलचस्प लेकिन भयानक सामाजिक तथ्य सामने रखता है। इसके मुताबिक केन्द्र सरकार के पिछले बरसों के ये आंकड़े बताते हैं कि भारत में ऊंची समझी जाने वाली जातियों के लोग दलित और आदिवासी लोगों से औसतन चार से छह साल अधिक जीते हैं। इसी तरह ऊंची समझी जाने वाली हिन्दू जाति और मुसलमानों के बीच भी ढाई बरस का औसत फर्क है। यह नतीजा किसी एक इलाके, किसी एक वक्त, या कमाई से जुड़ा हुआ नहीं है, और औरत-मर्द में यह बराबरी से नजर आता है।

भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक जाति, धर्म के आधार पर पुरूषों की औसत उम्र के मामले में हिन्दू ‘ऊंची जाति’ के पुरूष 1997-2000 के बीच 62.9 साल जी रहे थे, मुस्लिम पुरूष 62.6, ओबीसी 60.2, दलित 58.3, और आदिवासी 54.5 साल जी रहे थे। इसके बाद 2013-16 के सर्वे के मुताबिक हिन्दू ‘ऊंची जाति’ के पुरूष 69.4 साल जी रहे थे, मुस्लिम पुरूष 66.8, ओबीसी 66, दलित 63.3, और आदिवासी 62.4 साल जी रहे थे।

भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक जाति, धर्म के आधार पर महिलाओं की औसत उम्र के मामले में हिन्दू ‘ऊंची जाति’ की महिलाएं 1997-2000 के बीच 64.3 साल जी रही थीं, मुस्लिम महिलाएं 62.2, ओबीसी 60.7, दलित 58, और आदिवासी 57 साल जी रही थीं। इसके बाद 2013-16 के सर्वे के मुताबिक हिन्दू ‘ऊंची जाति’ की महिलाएं 72.2 साल जी रही थीं, मुस्लिम महिलाएं 69.4, ओबीसी 69.4, दलित 67.8, और आदिवासी महिलाएं 68 साल जी रही थीं।

इन आंकड़ों का मतलब यह है कि ऊंची कही जाने वाली जातियों और दलितों के बीच औसत उम्र का फर्क पहले 4.6 साल था, जो अब बढक़र 6.1 साल हो गया है। आज हिन्दुस्तान में दलितों को जगह-जगह कूटा जा रहा है। वे अपने परंपरागत पेशों को लेकर वैसे भी हिकारत से देखे जाते हैं, और अब उनमें से जो लोग मरे हुए जानवर की खाल निकालने का काम करते हैं, उन लोगों को जगह-जगह गाय का हत्यारा कहकर मारा जा रहा है। फिर बढ़ते हुए शहरीकरण की वजह से नालियों और गटरों में उतरकर काम करने के लिए दलितों की जरूरत बढ़ती चल रही है, और यह काम सेहत के लिए खतरनाक, और सैकड़ों मामलों में जानलेवा भी होता है। नतीजा यह होता है कि गंदगी करने वाले ऊंचे लोग, सफाई करने वाले नीचे लोगों की मौत की वजह बनते हैं क्योंकि वे नालियों को कचरे से पाट देते हैं, और उन्हें साफ करने की जिम्मेदारी दलितों की ही रहती है। औसत उम्र के इस बड़े फासले को देखें तो एक बात यह भी दिखती है कि ऊंची कही जाने वाली जातियों के लोग दलितों के मुकाबले संपन्न होते हैं, और उनका खानपान बेहतर होता है, जीवन स्तर अधिक साफ-सुथरा और बेहतर होता है, वे अधिक पढ़े-लिखे होते हैं, और इलाज तक उनकी अधिक पहुंच होती है। दूसरी तरफ दलित बस्तियों में रहने वाले लोग गंदे कहे जाने वाले पेशे से जुड़े रहते हैं, और उनकी जिंदगी नालियों, पखानों, और मरे हुए जानवरों के बीच अधिक कटती है, नतीजा यह होता है कि उनकी सेहत हमेशा ही खतरे में रहती है, और बीमारियों का सामना करने के लिए उनके पास इलाज तक पहुंच कम रहती है। इस तबके में पढ़ाई भी कम रहती है, और सामाजिक जागरूकता कम होने से, समाज के बीच उनसे छुआछूत का भेदभाव होने से उनकी पहुंच बेहतर खाने तक भी कम रहती है, उनकी बस्तियां हर गांव की गंदगी बहने के ढलान पर आखिरी की बस्ती होती है, और साफ पानी तक भी दलितों की आसान पहुंच नहीं रहती है। इन सबका मिलाजुला नतीजा यह होता है कि लगातार गंदगी के बीच काम, लगातार संक्रमण का खतरा, गंदी बस्तियों में जीना, कमजोर खाना, और कम इलाज पाना। इन सबका नतीजा है कि ऊंची कही जाने वाली जातियों के मुकाबले दलितों की औसत उम्र इतनी कम है। चूंकि यह तबका आर्थिक रूप से कमजोर रहता है, इसकी महिलाएं भी कुपोषण का शिकार रहती हैं, भूखी रहती हैं, और साफ जिंदगी नहीं पाती हैं, नतीजा यह होता है कि वे गर्भावस्था में, और जन्म देने के बाद पर्याप्त पोषण आहार नहीं पाती हैं, और खानपान की यह कमजोरी पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले चलती है।

आज जब हिन्दुस्तान में देश और प्रदेश की सरकारें न सिर्फ जाति के आधार पर सबकी बराबरी की बात करती हैं, और गरीबों के लिए कई किस्म की रियायती योजनाएं भी चलाती हैं, तब भी अगर सामाजिक हकीकत में उसकी झलक नहीं दिखती है, तो उससे यह बात साफ है कि समाज में बराबरी का ऐसा माहौल नहीं है कि दलित तबका अपने पूरे हक पा सके। किसी ग्रामीण इलाके में यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि एक सरकारी अस्पताल में जांच और इलाज में किसी दलित को उसकी बारी पर मौका मिल जाए, जब उसके बाद की बारी किसी सवर्ण की हो। श्रीलाल शुक्ल के लिखे हुए ‘राग दरबारी’ की सामाजिक हकीकत गांवों के स्तर पर आज आधी सदी बाद भी वैसी ही बनी हुई है, प्रेमचंद की लिखी हुई जमीनी हकीकत में गांवों में कोई फर्क नहीं आया है, शहरों में जरूर जातियां बेचेहरा हो गई हैं, और तमाम लोग गुमनाम होने से कहीं-कहीं दलितों को भी बराबरी का हक मिल जाता है।

दलितों की फिक्र करने वाले जो तबके हैं उन्हें भारत सरकार के इन आंकड़ों के इस विश्लेषण को देखना चाहिए, और सोचना चाहिए कि देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा और कितनी सदियों तक इसी तरह कुचला जाता रहेगा? यह सवाल छोटा नहीं है, लेकिन आज हिन्दुस्तानी समाज में सवाल करने का हक जिन लोगों को है, उन लोगों में दलित नहीं हैं। दलितों के पास नंगी पीठ है, और ऊंची कही जाने वाली जातियों के कुछ हमलावर लोगों के हाथ में अपनी पतलून से निकाला हुआ चमड़े का बेल्ट है। गुजरात के उना में  सडक़ों पर जिस तरह दलितों को पीटा गया था, वह सबका देखा हुआ है, और वैसा हर दिन देश भर में जगह-जगह होता है, जहां की तस्वीरें सामने नहीं आती हैं। ऐसे देश में एक तबके को पीढ़ी-दर-पीढ़ी बिना पेट भर खाने, बिना इंसान जैसी बुनियादी जिंदगी पाने, और बिना हक के जीने से कब तक कुचला जाता रहेगा, इस सवाल पर चर्चा होनी चाहिए। भारत सरकार के आंकड़ों पर शक करने की कोई वजह नहीं है, यह एक अलग बात है कि अगर खुद सरकार को अगर यह अहसास होता कि उसके आंकड़े इतनी भयानक सामाजिक हकीकत को इस हद तक नंगा करके खड़ा कर देंगे, तो शायद वह इन आंकड़ों को भी जारी नहीं करती। फिलहाल जिम्मेदार तबके को इस हकीकत पर चर्चा करनी चाहिए।
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