संपादकीय
दिल्ली दंगों से जुड़े हुए मामलों में एक आरोपी छात्रनेता उमर खालिद को पुलिस ने 583 दिनों से जेल में रखा हुआ है, और पूरे दमखम से उसकी जमानत अर्जियों का विरोध किया गया है। एक जमानत अर्जी अभी दिल्ली हाईकोर्ट में सुनी जा रही है, और वहां पर कल इस पर बहस के दौरान हाईकोर्ट जजों ने उमर खालिद के वकील से जिस तरह के सवाल-जवाब किए हैं, वे हक्का-बक्का करते हैं। उमर खालिद पर यह आरोप लगाया गया है कि उन्होंने सार्वजनिक मंच से भाषण के दौरान लोगों को हिंसा के लिए भडक़ाया, और इसे लेकर उन पर देश के एक सबसे कड़े कानून यूएपीए के तहत जुर्म दर्ज किया गया, और लगातार जेल में रखा गया। उमर खालिद के इस भाषण की रिकॉर्डिंग अदालत में सुनी गई, और जजों ने इस बात पर आपत्ति की कि इस छात्रनेता ने प्रधानमंत्री के बयान के लिए ‘जुमला’ जैसे शब्द का इस्तेमाल किया। जजों ने कहा कि संवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोगों की आलोचना करते समय लक्ष्मण रेखा का ध्यान रखना जरूरी है, यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों के लिए कैसे शब्दों का इस्तेमाल किया जा रहा है। अदालत ने उमर खालिद के भाषण में प्रधानमंत्री के लिए व्यंग्य से कहे गए एक और शब्द ‘चंगा’ (सब चंगा सी, यानी सब ठीक है) पर भी आपत्ति की तो उमर खालिद के वकील ने कहा कि चंगा शब्द तो प्रधानमंत्री ने ही अपने भाषण में कहा था।
दिल्ली हाईकोर्ट के जज, सिद्धार्थ मृदुल, और रजनीश भटनागर के उठाए गए सवाल देश के लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों पर एक बड़ा सवाल उठाते हैं जो कि उमर खालिद के मौजूदा केस से परे भी लागू होते हैं। न तो जुमला शब्द आपत्तिजनक या अपमानजनक है, और न ही चंगा शब्द का व्यंग्यात्मक इस्तेमाल कोई जुर्म कहा जा सकता। लोकतंत्र में भाषा का लचीला इस्तेमाल तब तक जायज है जब तक वह हिंसा का फतवा नहीं है, हिंसा की धमकी नहीं है, जब तक वह किसी के चरित्र पर कोई लांछन नहीं है। एक छात्रनेता ने अगर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कही हुई बातों को जुमला कहा है, तो आज देश के करोड़ों लोग मोदी की कही बातों को सोशल मीडिया पर जुमला ही लिख रहे हैं। ऐसा लिखने वालों के विरोधी भी एक टोली की शक्ल में उन पर हमले करते हैं, और उसे भी लोकतंत्र किसी भी सीमा तक बर्दाश्त कर ही रहा है। चंगा शब्द पंजाबी और हिन्दुस्तानी में अक्सर इस्तेमाल होने वाला शब्द है, और इसका बड़ा साधारण मतलब बीमारी से उबरकर ठीक हो जाना, सेहतमंद रहना जैसा कई किस्म का रहता है, न तो यह गाली है, और न ही इसमें आपत्तिजनक कुछ है। अगर उमर खालिद ने प्रधानमंत्री पर तंज कसते हुए यह कहा था कि देश में इतना कुछ हो रहा है, फिर भी प्रधानमंत्री ऐसे बने हुए हैं कि सब कुछ ठीक है, तो भी उमर खालिद की बातों में एक लोकतांत्रिक व्यंग्य से परे कोई भी बात आपत्तिजनक नहीं है। हमें अदालत की इस बात पर भी हैरानी हो रही है कि उसने संवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोगों के लिए शब्दों का ध्यान रखने के लिए कहा है। हमारी बहुत मामूली जानकारी और सामान्य समझ यह नहीं बता पा रही है कि संवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोग देश के आम नागरिक के मुकाबले अधिक सम्मानजनक या अधिक अधिकारसंपन्न कैसे हो सकते हैं? यह एक अलग बात है कि अंग्रेजों के वक्त से चली आ रही गुलाम-परंपरा के ही एक सिलसिले की तरह हिन्दुस्तानी अदालतों ने, और जजों ने अपने आपको कई किस्म के बनावटी और आडंबरी सम्मानों से घेर रखा है, और उन्हें संबोधित करते हुए जाने किस-किस तरह की भाषा का इस्तेमाल जरूरी कर दिया गया है। आजादी की पौन सदी सामने आ खड़ी हुई है, और हिन्दुस्तान के संवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोग अपने आपको सामंती परंपरा के सम्मान का हकदार बनाए हुए अपने को मानो एक बेहतर दर्जे का नागरिक साबित करने में लगे हुए हैं। एक चपरासी का ओहदा हो, या एक राष्ट्रपति का, जनता के पैसों पर तनख्वाह पाने वाले लोगों के सम्मान में फर्क कैसे किया जा सकता है? कुछ बरस पहले इस देश के एक राष्ट्रपति ने अपने ओहदे के साथ जुड़े हुए महामहिम नाम के सामंती आडंबरी शब्द को खारिज कर दिया था, और उसके बाद मानो मजबूरी में देश के राज्यपालों ने भी जगह-जगह इस शब्द का इस्तेमाल अपने लिए बंद करवाया। इस देश में एक आम नागरिक को जो सम्मान हासिल है, उससे अधिक सम्मान किसी संवैधानिक पद पर बैठे हुए किसी व्यक्ति को नहीं चाहना चाहिए, यह एक बहुत ही अलोकतांत्रिक सोच होगी।
अब हम अदालत की इस बात पर आते हैं कि उमर खालिद ने प्रधानमंत्री के बारे में व्यंग्यात्मक शब्द कहकर कोई गलत काम किया है। खुद प्रधानमंत्री के भाषणों को देखें तो वे हर कुछ महीनों में देश की किसी न किसी चुनावी सभा में बहुत ही आक्रामक लहजे में कभी किसी तबके के खिलाफ, तो कभी किसी नेता के खिलाफ बोलते हैं। कहीं वे लोगों की शिनाख्त उनके कपड़ों से करने की बात कहते हैं, तो कहीं वे किसी नेता की सौ करोड़ की गर्लफ्रेंड जैसी बात कहते हैं। और वे अकेले नहीं हैं, बहुत सी पार्टियों के बहुत से नेता इस तरह की बातें कहते हैं जो कि सचमुच ही भडक़ाने वाली रहती हैं, साम्प्रदायिक रहती हैं, आपत्तिजनक रहती हैं, हिंसक रहती हैं, लेकिन लोकतंत्र उन सबको भी बर्दाश्त कर लेता है। इस देश की कुछ अदालतें तो यह मानकर चल रही हैं कि मंच और माइक से दी गई धमकी अगर मुस्कुराते हुए दी जाती है तो उसे जुर्म नहीं माना जा सकता। तब से हाल के कुछ महीनों में ऐसे सैकड़ों कार्टून बने हैं, और हजारों ट्वीट किए गए हैं जिनमें मुजरिम को मुस्कुराते हुए जुर्म करने की सलाह दी गई है। दिल्ली हाईकोर्ट की इस ताजा सुनवाई में जिस तरह इन्कलाब और क्रांतिकारी शब्दों को लेकर जजों ने आपत्ति की है वह भी बहुत हैरान करने वाली है। ये दोनों शब्द हिन्दुस्तान के इतिहास के सबसे गौरवशाली शब्दों में से रहे हैं, और आजादी मिल जाने के बाद इन शब्दों की अहमियत कम नहीं हो गई है। आज भी तरह-तरह से क्रांतिकारी सोच की जरूरत लगती है, और इन्कलाब के नारों के बिना तो देश का कोई भी मजदूर आंदोलन एक दिन भी नहीं गुजारता है। लोकतंत्र में इन दो शब्दों का बहुत ही सम्मानजनक काम है, और इनके इस्तेमाल को आपत्तिजनक मानना लोकतंत्र के हाथ-पांव बांध देने जैसा है। उमर खालिद के वकील ने अदालत में यह सही तर्क दिया है कि सरकार की आलोचना करना कोई जुर्म नहीं हो सकता। उन्होंने कहा कि सरकार के खिलाफ बोलने के लिए किसी को यूएपीए जैसे कानून के तहत 583 दिन जेल में रखने का कोई प्रावधान नहीं है। लेकिन हैरानी यह है कि जजों को उमर खालिद के शब्द आपत्तिजनक और अप्रिय लगे हैं, इसमें भी कोई दिक्कत नहीं है क्योंकि किसी के शब्द किसी दूसरे को ऐसे लग सकते हैं, लेकिन इसके बीच में कानून की जगह कहां बन जाती है? अदालत भाषा को लेकर यह कैसे कह सकती है कि आखिर शब्दों के प्रयोग की कोई मर्यादा तय की जाए। शब्दों के प्रयोग को लोकतंत्र में सीमाओं में कैसे बांधा जा सकता है?
यह अदालत लोकतंत्र में भाषा और व्यंग्य के इस्तेमाल को लेकर एक तंग नजरिया रखते दिख रही है। दुनिया के जो सभ्य और विकसित लोकतंत्र होते हैं वे असहमति और आलोचना की अपार गुंजाइश रखते हंै, और उसकी आजादी देते हैं। किसी नौजवान को उसके सार्वजनिक भाषण की लोकतांत्रिक जुबान के लिए बरसों तक बिना सुनवाई जेल में कैद रखने वाले कानून को अपना लोकतांत्रिक मूल्यांकन जरूर करना चाहिए कि उसमें ऐसी कौन सी बुनियादी खामी घर बना चुकी है कि जिसमें बिना फैसले महज जेल में बंद रखकर इंसाफ के नाम पर बेइंसाफी की जा रही है।
हैरानी यह है कि उमर खालिद की वकील ने अदालत को यह क्यों नहीं बताया कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बारे में जुमला शब्द का पहला इस्तेमाल अमित शाह ने 4 फरवरी 2015 को किया था जब उन्होंने कहा था कि नरेन्द्र मोदी के काला धन वापस लाने के बाद हर परिवार के खाते में 15-15 लाख रूपए जमा करने की बात बस एक जुमला है। उन्होंने कहा कि यह चुनावी भाषण में वजन डालने के लिए बोली गई बात है क्योंकि किसी के अकाऊंट में 15 लाख रूपए कभी नहीं जाते, ये बात जनता को भी मालूम है। अमित शाह ने यह बात एक न्यूज चैनल पर इंटरव्यू में कही थी जो रिकॉर्ड में दर्ज है।
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