संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : जिग्नेश मेवाणी के खिलाफ असम की साजिश के खतरे
01-May-2022 11:57 AM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  जिग्नेश मेवाणी के खिलाफ असम की साजिश के खतरे

गुजरात के एक दलित नौजवान निर्दलीय विधायक जिग्नेश मेवाणी को असम की एक अदालत ने जमानत दी है जिसमें एक मामले में जिग्नेश की जमानत के बाद आनन-फानन एक दूसरा मामला गढक़र उनकी गिरफ्तारी को जारी रखने की साजिश असम पुलिस ने की थी। जिग्नेश की पहली गिरफ्तारी प्रधानमंत्री की आलोचना करते हुए की गई एक ट्वीट को लेकर असम में एक भाजपा नेता की शिकायत पर दर्ज एफआईआर के आधार पर की गई थी, और इस गिरफ्तारी के लिए असम पुलिस गुजरात जाकर जिग्नेश को गिरफ्तार करके लाई थी। लेकिन इस सतही मामले में उनकी जमानत का आसार था, और शायद इसीलिए वहां की पुलिस ने एक महिला पुलिस अधिकारी से जिग्नेश के खिलाफ एक रिपोर्ट लिखाई कि गिरफ्तारी के दौरान जिग्नेश ने उससे छेडख़ानी की या बदसलूकी की। ट्वीट पर जमानत मिलने के बाद जब जिग्नेश को आनन-फानन फिर गिरफ्तार किया गया तो इस दूसरे मामले की सुनवाई करते हुए जज ने यह पाया कि महिला पुलिस अधिकारी ने रिपोर्ट में कुछ बात लिखाई थी, और मजिस्ट्रेट के सामने दिए गए बयान में कुछ अलग बात लिखाई थी। इस पर अदालत ने कहा कि जिग्नेश मेवाणी को पुलिस ने फंसाया है, और पुलिस की इस मनमानी पर रोक जरूरी है। कोर्ट ने इस साजिश के लिए पुलिस को कड़ी फटकार लगाई, और कहा कि अगर पुलिस की मनमानी नहीं रोकी गई तो यह राज्य एक पुलिस स्टेट बन जाएगा। अदालत ने यह भी सुझाव दिया है कि असम पुलिस को किसी को हिरासत में लेने की रिकॉर्डिंग करने के लिए बॉडी कैमरा पहनने कहा जाए और गाडिय़ों में सीसीटीवी कैमरे लगाए जाएं ताकि गिरफ्तारी दर्ज हो सके। जज ने यह भी कहा कि इस महिला अधिकारी की गवाही को देखते हुए लग रहा है कि जिग्नेश मेवाणी को किसी न किसी तरह हिरासत में बनाए रखने के लिए यह मामला बनाया गया है। जज ने यह भी कहा कि पुलिस की ओर से ऐसे आरोपियों को गोली मारकर उनकी हत्या करने या उन्हें घायल करने के मामले राज्य में नियमित हो गए हैं, और हाईकोर्ट पुलिस को सुधारने का निर्देश दे सकता है।

यह मामला छोटा नहीं है। जिस गुजरात में चुनाव होने जा रहे हैं, वहां पर एक विधायक को सत्तारूढ़ भाजपा के एक दूसरे राज्य की पुलिस द्वारा इस तरह गिरफ्तार करना, और फिर जमानत मिलने पर उसे साजिश करके एक झूठे मामले में फंसाकर रखना लोकतंत्र के लिए एक फिक्र की बात है। और जिग्नेश ने प्रधानमंत्री के खिलाफ किए गए एक ट्वीट में यह लिखा था कि मोदी गोडसे को गॉड मानते हैं। अब यह तो उनका अपना एक नजरिया है, और इसमें एक राजनीतिक आलोचना तो है, लेकिन इसमें न तो कोई बात अलोकतांत्रिक है, और न ही इसमें कोई जुर्म बनता। आज देश भर में जगह-जगह जिस तरह आक्रामक हिन्दुत्व से जुड़े हुए लोग गोडसे की पूजा कर रहे हैं, और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अपनी भाजपा की सांसद प्रज्ञा ठाकुर ने जिस तरह से गोडसे की स्तुति करते हुए गांधी को गालियां दी थी, और जिस पर उनके खिलाफ कोई भी कार्रवाई नहीं हुई, तो यह बात कुछ लोगों के मन में मोदी की एक अलग तस्वीर बना सकती है, और हो सकता है कि मोदी और भाजपा इस तस्वीर से सहमत न हों। लेकिन लोकतंत्र में आलोचना और असहमति को लेकर बहुत तंगदिली नहीं चलती। चार दिनों के भीतर इस मुद्दे पर हमें दुबारा लिखना पड़ रहा है क्योंकि एक छात्र नेता उमर खालिद की जमानत अर्जी की सुनवाई करते हुए दिल्ली हाईकोर्ट के दो जजों ने जिस तरह उमर खालिद के प्रधानमंत्री के खिलाफ जुमला शब्द के इस्तेमाल पर आपत्ति की थी, वह भी हैरान करने वाली थी, और उसे लेकर हमने इसी जगह लिखा भी था कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बारे में 2015 में सबसे पहले इस शब्द का इस्तेमाल अमित शाह ने किया था, और फिर मानो उनके शब्द को दुहराते हुए ही देश के लाखों लोगों ने इस शब्द का इस्तेमाल मोदी के लिए शुरू किया। जिस तरह उन जजों को उमर खालिद जुमला शब्द का आविष्कारक लगा, उसी तरह असम की पुलिस को यह लग रहा है कि मोदी को गोडसे को गॉड मानने वाला कहना एक जुर्म है।

लोकतंत्र राज्यों की पुलिस के ऐसे बेदिमाग, बददिमाग, और साजिशाना तौर-तरीकों से नहीं चल सकता। देश के हर राज्य की पुलिस के हाथ में किसी को गिरफ्तार करने का अधिकार है। आज अगर बंगाल की पुलिस जाकर गुजरात के किसी विधायक को गिरफ्तार करके ले आए कि उसकी ट्वीट ममता बैनर्जी के लिए अपमानजनक है, तो इस किस्म के सिलसिले देश को कहां ले जाएंगे? अभी-अभी आम आदमी पार्टी की पंजाब सरकार की पुलिस दिल्ली आकर केजरीवाल के पुराने साथी और एक वक्त आम आदमी पार्टी में रहे कुमार विश्वास से पूछताछ करके लौटी क्योंकि उन्होंने कुछ समय पहले पंजाब में मतदान के ठीक पहले यह बयान दिया था कि एक वक्त उनसे केजरीवाल ने कहा था कि वे या तो पंजाब के मुख्यमंत्री बनेंगे, या फिर खालिस्तान के प्रधानमंत्री। और ऐसा लगता है कि मानो कुमार विश्वास की बात को सही साबित करने के लिए अभी दो दिन पहले पंजाब में खालिस्तान समर्थकों ने एक आक्रामक प्रदर्शन का ऐलान किया था, और वहां की शिवसेना ने अपनी छोटी मौजूदगी के बावजूद उसका आमने-सामने विरोध किया। अब क्या पंजाब सरकार के खिलाफ शिवसेना के महाराष्ट्र में कोई जुर्म दर्ज किया जाए कि वहां देश विरोधी प्रदर्शन हुए हैं, और यह पंजाब सरकार का राजद्रोह है?

अगर देश के संघीय ढांचे में केन्द्र और राज्यों के बीच राजनीतिक असहमति की वजह से राज्यों की पुलिस का ऐसा इस्तेमाल होने लगेगा जिसे कि एक छोटा जज भी साफ-साफ देख पा रहा है, तो यह इस्तेमाल देश में एक अभूतपूर्व संवैधानिक टकराव खड़ा करेगा जिससे उबर पाना मुश्किल होगा। आज देश में आधा दर्जन से अधिक अलग-अलग विचारधाराओं की राज्य सरकारें हैं। यह बात ठीक है कि अधिकतर राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं, लेकिन दूसरी पार्टियां भी कहीं-कहीं सत्तारूढ़ हैं, और अगर हर राज्य पुलिस के ऐसे नाजायज इस्तेमाल पर उतारू हो जाए, तो सोशल मीडिया पर पोस्ट देख-देखकर विपक्षी पार्टियों, असहमत नेताओं को गिरफ्तार करके लाने, और फिर गिरफ्तारी के दौरान पुलिस से छेडख़ानी जैसे और फर्जी मामले दायर करने का कोई अंत नहीं होगा। यह तो अच्छा हुआ कि मामले को किसी बहुत बड़ी अदालत तक पहुंचने की जरूरत नहीं पड़ी, और असम की बदनीयत पुलिस की साजिश जमानत के दौरान ही उजागर हो गई। उसी राज्य के जज को राज्य के पुलिस के खिलाफ इतनी कड़वी बातें कहनी पड़ी हैं कि उससे राज्य सरकार की साजिश उजागर होती है। असम के भाजपा-मुख्यमंत्री ने पिछले महीनों में देश की एकता और अखंडता के खिलाफ जितनी हिंसक बातें कही हैं, उन्हें लेकर तो देश के अलग-अलग बहुत से गैर-भाजपा राज्यों में जुर्म दर्ज हो सकता है, और फिर क्या मुख्यमंत्रियों की गिरफ्तारी के लिए दिल्ली में मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन का इस्तेमाल किया जाएगा जहां पर हर राज्य की पुलिस दूसरे मुख्यमंत्रियों के लिए वारंट लेकर खड़ी रहेगी?

आज दूसरी दिक्कत यह भी है कि हिन्दुस्तान का तमाम सोशल मीडिया लोगों के खिलाफ हिंसक धमकियों के साफ-साफ जुर्म से भरा पड़ा है, लेकिन उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती है। इस देश ने एक बड़ा मजबूत सूचना-तकनीक कानून तो बना लिया है, लेकिन उसे छांट-छांटकर अपने को नापसंद लोगों के खिलाफ इस्तेमाल तक सीमित रखा गया है। यह सिलसिला अगर दूर नहीं होगा, तो इस देश में राज्यों की पुलिस का इस्तेमाल आलोचना और असहमति की मुठभेड़-हत्या के लिए किया जाएगा, और पहली मौत लोकतंत्र की होगी, हो भी रही है, जिन लोगों को जानवर को धीरे-धीरे काटकर मारने का तरीका नापसंद है, वे लोग आज लोकतंत्र को उसी तरीके से जिबह कर रहे हैं।
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