संपादकीय
वैसे तो प्रशांत किशोर की आज की ताजा मुनादी पर कुछ लिखना जल्दबाजी होगी क्योंकि उन्होंने आज सुबह एक ट्वीट किया है जिसमें उन्होंने लिखा है- लोकतंत्र में एक सार्थक भागीदार बनने और जनसमर्थक नीति को आकार देने का मेरा दस साल का सफर रोलर-पोस्टर की सवारी (उतार-चढ़ाव) की तरह रहा है। अब मैं एक पन्ना पलट रहा हूं, और अब वक्त है असली मालिक, यानी जनता के पास जाने का ताकि मुद्दों को और ‘जन सुराज’ को बेहतर तरीके से समझा जा सके। शुरूआत बिहार से।
प्रशांत किशोर पर अभी-अभी दो बार लिखना कांग्रेस के सिलसिले में हुआ है, और वे इससे अधिक विचार के लायक फिलहाल नहीं थे, लेकिन आज की उनकी यह घोषणा कई तरह के कयास शुरू कर गई है। उन्होंने अभी कुछ ही दिन पहले कहा था कि वे 2 मई तक अपने अगले कदम की जानकारी दे देंगे, और उन्होंने उस बिहार से ‘कुछ’ शुरू करने की घोषणा की है जिस बिहार में वे नीतीश कुमार की जेडीयू के दूसरे नंबर के पदाधिकारी भी रहे हैं। लेकिन जिस तरह रेगिस्तान में रेत के टीले रातोंरात अपनी जगह बदल देते हैं, और शाम किसी जगह दिखते हैं, सुबह तक वे कहीं और पहुंच जाते हैं, उसी तरह प्रशांत किशोर पिछले कई चुनावों में लगातार अलग-अलग पार्टियों के लिए रणनीति बनाते रहे हैं, और किसी पार्टी की विचारधारा से उनका कुछ लेना-देना नहीं रहा। वे एक पेशेवर वकील की तरह हर किस्म के मुवक्किलों का केस लड़ते रहे, और उनकी जीत में मदद करते रहे। अब अगर वे राजनीति या चुनावी रणनीति बनाने से परे कुछ करने जा रहे हैं, और अपने बूते, अपने खुद के किसी कार्यक्रम पर अमल करने जा रहे हैं, तो यह उनका एक नया अध्याय होगा। लोगों को याद होगा कि एक वक्त सीएसडीएस नाम के गैरसरकारी सामाजिक अध्ययन संस्थान में काम करने वाले योगेन्द्र यादव टीवी पर चुनावी नतीजों की अटकल लगाते-लगाते, नतीजों का विश्लेषण करते-करते सक्रिय राजनीति में आए, और स्वराज इंडिया नाम की पार्टी बनाई। यह पार्टी चुनावों में तो कहीं नहीं पहुंच पाई, लेकिन योगेन्द्र यादव लगातार सामाजिक मोर्चों पर सक्रिय हैं, और किसान आंदोलन में वे भीतर तक जुड़े रहे।
अब भारतीय लोकतंत्र में आज के मौजूदा हालात में यह बात सोचने की है कि प्रशांत किशोर जैसे विचारधाराविहीन रणनीतिकार कोई पार्टी बनाकर, या बिना पार्टी बनाए कोई आंदोलन छेडक़र जनता के बीच क्या कर सकते हैं? इसकी सबसे करीब की मिसाल इस पल योगेन्द्र यादव दिखते हैं जो कि इन्हीं किस्म की भूमिकाओं से होते हुए आज देश के सामाजिक आंदोलनों का एक अनिवार्य हिस्सा दिखते हैं। तो क्या प्रशांत किशोर भी देश के कुछ मुद्दों को उठाने में कामयाब होंगे? हो सकता है कि आज हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में भाजपा के अश्वमेध यज्ञ के अंधाधुंध दौड़ रहे घोड़े को थामना किसी नई पार्टी के बस का न हो, लेकिन हम लोकतंत्र में छोटी और नई पार्टी की भूमिका को कम नहीं आंकते हैं। राजनीतिक दलों या सामाजिक आंदोलनों की भूमिका महज कुछ या अधिक सीटों पर चुनाव जीत जाने तक सीमित नहीं रहती। ऐसे तबके देश के लोकतंत्र के लिए जरूरी मुद्दों को उठाने के काम भी आते हैं जिन्हें कई बार कोई बड़ी पार्टी उठाना नहीं चाहती क्योंकि सबके बड़े-बड़े हित उन पार्टियों से जुड़ जाते हैं। बड़े कारोबार और सरकार मिलकर जिस तरह देश में जनधारणा प्रबंधन या जनमत गढऩे के कारोबार को भी काबू में कर चुके हैं, उन्हें देखते हुए ऐसे वैचारिक, सैद्धांतिक, और प्रतिबद्ध आंदोलनों की जरूरत हमेशा ही बने रहेगी जो कि सोशल मीडिया पर मुफ्त में हासिल कुछ जगह का इस्तेमाल करके सरकार-कारोबार की गिरोहबंदी उजागर कर सकें। हो सकता है कि प्रशांत किशोर बिना किसी पार्टी की चुनावी रणनीति बनाए लोगों के बीच मुद्दों को उठाने में कामयाब हो सकें ताकि जनता का फैसला बेहतर जानकारी और बेहतर समझ पर आधारित हो। आज हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टियां और नेता जुमलों की जुबान बोलते हैं जिनका हकीकत से उतना ही लेना-देना रहता है जितना कि रामदेव का 35 रूपये का पेट्रोल और मोदी के 15-15 लाख का रहा। ऐसे में मुद्दों के संदर्भ, देश की दशा और दिशा, लोगों और पार्टियों के उछाले नारों की सच्चाई, ऐसे बहुत सारे पहलू हैं जिस पर एक व्यापक जनजागरण की जरूरत है। यह जनजागरण सत्ता की सीधी गलाकाट लड़ाई से परे की छोटी पार्टियां भी कर सकती हैं, लेकिन न जाने क्यों वामपंथी दल भी बरसों में एक बार बुलडोजर के सामने खड़े हो पाते हैं, बाकी तो सत्ता और बाहुबल की भागीदारी फर्म के बुलडोजर जनता को कुचलते रहते हैं, और पार्टियां दूर बैठीं नजारा देखती रहती हैं। इसलिए इस देश में स्वामी अग्निवेश, ज्यां द्रेज, योगेन्द्र यादव, अरुन्धति राय, स्वरा भास्कर जैसे लोगों की जरूरत हमेशा ही बनी रहेगी जो कि कमजोर तबकों की आवाज को मजबूती दे सकें, और मजबूत तबकों की दहाड़ की दहशत में आए बिना सीना तानकर खड़े हो सकें। अगर प्रशांत किशोर की आज की मुनादी जनजागरण में कुछ मदद कर सकती है, तो वह एक नये राजनीतिक दल के मुकाबले अधिक काम की रहेगी। आज तो ऐसे सामाजिक आंदोलनकारियों की जरूरत है जो कि चुनाव के मौकों पर, और दो चुनावों के बीच भी, पार्टियों और सरकारों की नीयत उजागर कर सकें, जनता की ओर से ऐसे सवाल उठा सकें जो जनता को या तो सूझते नहीं हैं, या जिन्हें उठाने की जनता की आवाज नहीं है। योगेन्द्र यादव की पार्टी की कामयाबी उनकी जीती हुई सीटों से लगाना गलत होगा, वे कुछ न जीतकर भी गलत की जीत का खतरा घटा सकते हैं, और बेहतर की जीत की संभावना बढ़ा सकते हैं। लोकतंत्र इन्हीं दो सिरों के बीच घटाने और बढ़ाने की कोशिशों का नाम है। यह तो आने वाले दिन बताएंगे कि प्रशांत किशोर के दिल-दिमाग में क्या है, लेकिन चूंकि वे राजनीति को बहुत से पेशेवर नेताओं से भी बेहतर समझते हैं, इसलिए उन्हें, और उनकी तरह के कई और लोगों को पार्टियों और नेताओं के राजनीतिक चरित्र का भांडाफोड़ करना चाहिए ताकि जनता कोई बेहतर फैसला ले सके। अब तक प्रशांत किशोर जनमत को प्रभावित करने, या कड़े शब्दों में कहें तो झांसा देने के काम को कामयाबी से करते आए हैं, लेकिन अब अगर वे सुराज की बात कर रहे हैं, तो उन्हें जनजागरण का काम करना होगा, फिर चाहे वह चुनावी रहे, या कि गैरचुनावी।