संपादकीय
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने नक्सलियों से बातचीत की पेश की है। वे पूरे प्रदेश का दौरा कर रहे हैं, और इस दौरान उन्होंने प्रदेश की सबसे बड़ी सुरक्षा-समस्या के बारे में कहा कि भारत के संविधान को मानने और हथियार छोडऩे पर वे माओवादियों के साथ बातचीत के लिए तैयार हैं। नक्सलियों ने मुख्यमंत्री की इस पेशकश पर कहा है कि वे बातचीत को तैयार हैं लेकिन बस्तर से सुरक्षा बलों को हटाया जाए, सुरक्षा बलों के शिविर हटाए जाएं, नक्सल नेताओं को जेलों से रिहा किया जाए, तभी बातचीत का माहौल बनेगा। छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री ताम्रध्वज साहू ने इस पूरी चर्चा पर आज कहा कि नक्सलियों को अगर बात करनी है तो बिना शर्त के करें, भारतीय संविधान पर विश्वास करें। उन्होंने कहा कि बातचीत की कोई शर्त नहीं होनी चाहिए।
नक्सल मोर्चे पर हर बरस दोनों तरफ के लोग बड़ी संख्या में मारे जाते हैं, उनके अलावा बेकसूर आदिवासी भी नक्सलियों और सुरक्षा बलों के हाथों मारे जाते हैं, जिनमें से एक तबका उन्हें पुलिस का मुखबिर करार देता है, और दूसरा तबका उन्हें नक्सली बताता है। ऐसे में नक्सल-समस्या, खतरे, और मुद्दे का एक शांतिपूर्ण समाधान ढूंढा जाना जरूरी है। हमारे नियमित पाठक इस बात को जानते हैं कि हम मुश्किल से मुश्किल वक्त पर भी, बड़े हमलों और बड़े हादसों के बीच भी लगातार बातचीत की वकालत करते आए हैं क्योंकि हम यह जानते हैं कि दुनिया में कहीं भी उग्रवाद और आतंकवाद का समाधान सिर्फ बंदूकों से नहीं निकलता है। हर जगह बातचीत से ही रास्ता तैयार होता है, और हिंसा खत्म होती है। उत्तरी आयरलैंड से लेकर भारत के उत्तर-पूर्व तक, और पंजाब के भयानक आतंकी दिनों तक हर कहीं रास्ता बातचीत से ही निकला है।
छत्तीसगढ़ की विधानसभा में पिछले मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने यह घोषणा की थी कि वे नक्सल-समस्या को निपटाने के लिए जंगल के बीच भी आधी रात को भी बातचीत के लिए अकेले भी जाने के लिए तैयार हैं। लेकिन उनकी उस घोषणा से भी कोई बात नहीं बनी थी क्योंकि नक्सलियों का रूख बातचीत का नहीं था, तोहमतों का था, उन्होंने सरकार पर हिंसक कार्रवाई करने का आरोप लगाया और कोई बातचीत हो नहीं पाई। लोगों को याद होगा कि भाजपा सरकार के वक्त ही बस्तर इलाके के एक कलेक्टर का नक्सलियों ने अपहरण किया था, और चूंकि वह आईएएस अफसर था इसलिए उसकी रिहाई के लिए सरकार पर अधिक दबाव था। सरकार ने नक्सलियों से बात करने के लिए उनकी पसंद के कुछ मध्यस्थों को लेकर कुछ मौजूदा और रिटायर्ड अफसरों को लेकर एक कमेटी बनाई थी जिसने नक्सलियों की मांगों पर विचार किया था, जेलों में बंद बेकसूर आदिवासियों की रिहाई की थी, उनके खिलाफ मामले वापिस लिए थे, और अपने अफसर को सरकार ने छुड़ाया था। यह सिलसिला कई दिन चला था, और इस कमेटी की बैठक में शामिल अफसर उसके बाद भी राज्य सरकार को हासिल थे, नक्सलियों की पसंद के मध्यस्थ भी मौजूद थे, लेकिन सरकार इस मामले में चूक गई, और बातचीत की टेबल जो कि बन चुकी थी, उसका आगे इस्तेमाल नहीं किया गया। हमने उस वक्त भी इस अखबार में लगातार इस बात को उठाया था कि एक बार किसी तरह से भी बातचीत का जो सिलसिला शुरू हुआ है, उसे आगे बढ़ाना चाहिए था।
अभी सरकार और नक्सलियों के बीच जो बयान आए हैं, वे किसी बातचीत की जमीन को तैयार करने वाले नहीं हैं। बातचीत के लिए तो बिना किसी शर्त के बात होनी चाहिए, फिर चाहे दोनों पक्ष अपना-अपना काम क्यों न करते रहें। बस्तर में नक्सली अपना काम करते रहें, सुरक्षा बल अपना काम करते रहें, लेकिन उनसे परे बैठकर दोनों पक्षों के चुनिंदा लोग या उनके छांटे हुए मध्यस्थ उन मुद्दों पर बात कर सकते हैं जिससे नक्सल हिंसा खत्म हो सके। यह बातचीत किसी दुश्मन देश के साथ होने वाली बातचीत नहीं है जिसके पहले सरहद पार से होने वाले आतंकी हमलों को रोकने की मांग की जाए। हालांकि हम तो इस बात के हिमायती हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच भी तमाम किस्म के संघर्ष के चलते हुए भी बातचीत हो सकती है, और होनी चाहिए। बातचीत की टेबिल पर तो कोई हथियार लेकर आते नहीं हैं, इसलिए बातचीत नाकाम होने पर भी अधिक से अधिक कुछ लोगों के कुछ दिनों की बर्बादी होगी, उससे कोई हिंसा तो बढऩे वाली है नहीं।
किसी लोकतंत्र में निर्वाचित सरकार की कामयाबी हम इसमें नहीं देखते कि वह किसी हथियारबंद मोर्चे पर कितने उग्रवादियों या आतंकवादियों को मारती है, कामयाबी तो इसमें है कि अपने देश के या किसी दूसरे देश के हथियारबंद समूहों से, दुश्मन लगती सरकारों से बातचीत से किस तरह खून-खराबा खत्म किया जा सकता है, या घटाया जा सकता है। ऐसे में किसी लोकतंत्र में हम निर्वाचित सरकार को बातचीत का माहौल बनाने के लिए अधिक जिम्मेदार मानते हैं क्योंकि हथियारबंद समूहों, नक्सलियों या किसी और में लोकतंत्र के प्रति आस्था तो है नहीं, इसलिए उनके लिए बातचीत का रास्ता इस्तेमाल करने की कोई मजबूरी भी नहीं है। सरकार को अपने सुरक्षा बलों की जिंदगी बचाने के लिए, राज्य के एक बड़े इलाके को हिंसक-संघर्ष से बचाने के लिए, बेकसूर जिंदगियों को बचाने के लिए, और विकास के लिए हथियारों के बजाय बातचीत अपनानी चाहिए। कई बार सार्वजनिक बयानों के मार्फत होने वाली बातचीत की ऐसी पेशकश कामयाब नहीं हो पाती। सरकार तो नक्सलियों के भरोसे के कुछ लोकतांत्रिक लोगों को छांटकर उनके माध्यम से बातचीत करनी चाहिए क्योंकि सरकार की कामयाबी किसी भी तरह बातचीत शुरू करने में रहेगी। जिन लोगों की बात नक्सली सुनते और मानते हैं उनको भी चाहिए कि वे अपने संपर्कों या अपने असर का इस्तेमाल करके नक्सलियों को सहमत कराएं कि उन्हें बातचीत की कोई शर्त नहीं रखनी चाहिए।
अभी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने बातचीत की पेशकश की है तो इसे कुछ संभावनाओं तक पहुंचाने की कोशिश की जानी चाहिए। भूपेश बघेल के कुछ ऐसे साथी भी हैं जो कि अपनी अखबारनवीसी की जरूरत के लिए नक्सलियों के संपर्क में रहते आए हैं। उनके टेलीफोन भी पिछली रमन सरकार टैप करती थी, और बाद में एक मुख्य सचिव ने अपनी रिव्यू मीटिंग में ऐसी टैपिंग खत्म करवाई थी। इस सरकार को ऐसे संपर्कों का इस्तेमाल करना चाहिए, और नक्सलियों को बातचीत की जमीन तक लाना चाहिए। प्रदेश की दूसरी लोकतांत्रिक ताकतों और संस्थाओं को भी नक्सल-समस्या सुलझाने में राजनीति करने के बजाय इसे सुलझाने की कोशिश करनी चाहिए। अभी यह पूरी बात दोनों पक्षों के एक-एक बयान तक सीमित है, लेकिन इसे आगे बढ़ाने की जरूरत है।
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