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ख़ुदा गवाह: वो फ़िल्म जिसे अफ़ग़ान मुजाहिदीनों से लेकर आम लोगों तक ने पसंद किया
08-May-2022 5:16 PM
ख़ुदा गवाह: वो फ़िल्म जिसे अफ़ग़ान मुजाहिदीनों से लेकर आम लोगों तक ने पसंद किया

-वंदना

बात 90 के दशक की है. अफ़ग़ानिस्तान में मुजाहिदीन के साथ लड़ाई जारी थी.

ऐसे में तत्कालीन अफ़ग़ान राष्ट्रपति नजीबुल्लाह की बेटी ने अपने पिता से गुज़ारिश करते हुए कहा कि वे मुजाहिदीनों से कहें कि सब एक दिन के लिए लड़ाई बंद कर दें.

ये बच्ची चाहती थी कि जब हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री का इतना बड़ा स्टार भारत से अफ़ग़ानिस्तान आया हुआ है, ऐसे में अगर लड़ाई बंद रहेगी तो वो सितारा काबुल में घूम पाएगा और लोग भी उन्हें देख पाएँगे.

इस सितारे का नाम था अमिताभ बच्चन और वो फ़िल्म ख़ुदा गवाह की शूटिंग के लिए अफ़ग़ानिस्तान आए हुए थे.

ये किस्सा अफ़ग़ानिस्तान के पूर्व राजदूत ने मुझे तब सुनाया जब मैं कुछ साल पहले लद्दाख में उनसे मिली थी. 8 मई 1992 को रिलीज़ हुई हिंदी फ़िल्म ख़ुदा गवाह काबुल और मज़ार शरीफ़ में शूट हुई थी. मुजाहिद्दीन के दौर के बाद से 30 साल गुज़र चुके हैं.

अफ़ग़ानिस्तान की सबसे मशहूर हिंदी फ़िल्म
आज से 30 साल पहले रिलीज़ हुई फ़िल्म ख़ुदा गवाह की ही बात करें तो ये वहाँ की सबसे मशहूर हिंदी फ़िल्मों में से एक है और इसके बनने की कहानी और किस्से बेहद दिलचस्प हैं.

फ़िल्म के प्रोड्यूसर मनोज देसाई ने पूर्व में हुई बीबीसी से बातचीत में बताया था, उस वक़्त अफ़ग़ानिस्तान में गृह युद्ध चल रहा था.

"ख़ुदा गवाह की फ़िल्म यूनिट की सुरक्षा के लिए पाँच टैंकों का काफ़िला आगे चलता था और पाँच टैंको का काफ़िला पीछे. लेकिन अफ़ग़ानिस्तान में अमिताभ बच्चन की लोकप्रियता का आलम ये था कि सुरक्षा इंतज़ाम की ज़रूरत महसूस नहीं होती थी."

"एक बार शूटिंग के दौरान हमें उस वक्त के विरोधी नेता बुरहानुद्दीन रब्बानी का संदेश मिला कि वो बच्चन के बहुत बड़े फ़ैन हैं और फ़िल्म यूनिट को विद्रोही गुटों की ओर से कोई ख़तरा नहीं है. बड़े ही नाटकीय अंदाज़ में वो अमिताभ बच्चन को ग़ुलाब का फूल देने आए थे.

यानी गृह युद्ध से जूझ रहा एक देश जहाँ सत्ता, मुजाहिदीन और विद्रोही सब एक भारतीय सितारे के लिए एक हो गए.

ये बात तब की है जब अमिताभ बच्चन और भारत के उस वक़्त के प्रधानमंत्री राजीव गांधी की गहरी दोस्ती थी.

मनोज देसाई ने बताया था कि राजीव गांधी की वजह से अफ़ग़ानिस्तान की नजीबुल्लाह सरकार ने यूनिट का बहुत ध्यान रखा.

साल 1991 में राजीव गांधी की हत्या कर दी गई और 1992 में फ़िल्म रिलीज़ हुई थी.

लेखक रशीद किदवई ने अपनी किताब नेता अभिनेता- बॉलीवुड स्टार पावर इन इंडियन पॉलिटिक्स में लिखा है, "दिल्ली में ख़ुदा गवाह की लॉन्च पार्टी थी. वहाँ अमिताभ बच्चन अपने दोस्त राजीव गांधी को याद कर फफक-फफक कर रोने लगे थे कि कैसे राजीव गांधी ने सुनिश्चित किया था कि अफ़ग़ानिस्तान में ख़ुदा गवाह की शूटिंग हो जाए और वहाँ के राष्ट्रपति नजीबुल्लाह से निजी तौर पर सुरक्षा की गारंटी माँगी थी."

जब अमिताभ को गोद में उठा लिया...
ख़ैर अफ़ग़ानिस्तान के अपने दिनों को याद करते हुए अमिताभ बच्चन ख़ुद भी लिख चुके हैं, "राष्ट्रपति नजीबुल्लाह हिंदी फिल्मों के बहुत बड़े फ़ैन थे. वो मुझसे मिलना चाहते थे और हमें वहाँ शाही तरीके से रखा गया. हमें होटल में नहीं रहने दिया जाता था. एक परिवार ने अपना घर हमारे लिए खाली कर दिया और ख़ुद एक छोटे घर में रहने चले गए. हमारी फ़िल्म यूनिट को एक कबीले के नेता ने आमंत्रित किया था. मैं डैनी के साथ चॉपर से गया था, आगे पीछे पाँच हेलीकॉप्टर. ऊपर से पहाड़ों का नज़ारा गज़ब था."

"जब हम वहाँ पहुँचे तो कबीले के नेता हमें गोद में उठाकर अंदर लेकर गए क्योंकि परंपरा ये थी कि मेहमान के पैर ज़मीन पर नहीं पड़ने चाहिए. काबुल में हमें बहुत तोहफ़े मिले. राष्ट्रपति नजीब ने हमें ऑर्डर ऑफ अफ़गानिस्तान से नवाज़ा. उस रात राष्ट्रपति के अंकल ने हमारे लिए भारतीय राग गाया."

ख़ुदा गवाह के रिलीज़ होने के बाद के 30 सालों की बात करें तो अफ़ग़ानिस्तान ने बहुत कुछ देखा है.

इतने सालों बाद वो फिर उसी मुहाने पर आ खड़ा हुआ है जहाँ कई साल पहले था. तालिबान ने अभिनेत्रियों के टीवी सीरियलों में दिखने पर रोक लगा दी है.

जहाँ तक भारतीय फ़िल्मों और सीरियलों की बात है तो ये अफ़ग़ानिस्तान में हमेशा से मशहूर रहे हैं.

चुनिंदा ही सही लेकिन हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री अफ़ग़ानिस्तान की बदलती हकूमतों और हालात का गवाह रही है- चाहे वो ख़ुदा गवाह हो या धर्मात्मा

ख़ुदा गवाह से पहले 1975 में फ़िरोज़ ख़ान अपनी फ़िल्म धर्मात्मा की शूटिंग डैनी और हेमा मालिनी के साथ अफ़ग़ानिस्तान में कर चुके हैं.

एक पुराने इंटरव्यू में फ़िरोज़ ख़ान ने बीबीसी को बताया था, "मैं अफ़ग़ानिस्तान में फ़िल्म की शूटिंग के लिए लोकेशन देखने गया था. तब ज़हीर शाह वहाँ का राजा थे. उन्होंने अनुमति दी थी. जब हम वहाँ शूट करने पहुँचे तो उनका तख़्तापलट हो चुका था. लेकिन अफ़गानिस्तान की नई सरकार ने भी हमें बहुत इज़्ज़त दी और हमें कोई परेशानी नहीं होने दी."

धर्मात्मा की शूटिंग के लिए फ़िरोज़ ख़ान कुंदुज़ गए और बामियान बुद्धा को भी शूट किया. क्या ख़ूब लगती हो, बड़ी सुंदर दिखती हो ..इस गाने में अफ़ग़ानिस्तान के ख़ूबसूरत नज़ारे क़ैद हैं. बाद में उनका नामो निशान ही मिट गया.

शेर ख़ान का किरदार भी काफ़ी फेमस
सोशल मीडिया पर वायरल एक पुराने ब्लैक और व्हाइट वीडियो में आप फ़िरोज़ ख़ान और हेमा मालिनी का अफ़ग़ानिस्तान में स्वागत होते हुए देख सकते हैं.

फ़िल्म ज़ंजीर का किरदार शेर ख़ान जिसे प्राण ने निभाया था, अफ़ग़ानिस्तान में काफ़ी मशहूर था. इससे पहले 1965 में भारत और काबुल के दिल के तार जोड़ने का काम किया था फ़िल्म काबुलीवाले ने.

90 में तालिबान के आने के बाद एक दौर ऐसा आया जब फ़िल्में तो क्या फ़ोटोगाफ़्री तक बैन हो गई थी.

बरसों बाद निर्देशक कबीर खान ने अफ़ग़ानिस्तान में फ़िल्म काबुल एक्सप्रेस शूट की और 2006 में रिलीज़ की. काबुलीवाले और काबुल एक्सप्रेस के बीच अफ़ग़ानिस्तान में बहुत कुछ बदल चुका था.

जब कबीर खान फ़िल्म शूट कर रहे थे तो तालिबान सत्ता से तो जा चुका था लेकिन तालिबान का ख़ौफ़ अब भी मौजूद था.

जब धीमे-धीमे हालात बेहतर हुए तो फिर से अफ़ग़ान फ़िल्में बनने लगीं, पहली बार औरतें फ़िल्म निर्देशन मे उतरीं. हालांकि इसके लिए उन्हें बड़ी कीमत चुकानी पड़ी.

सबा सहर अफ़ग़ानिस्तान की पहली महिला निर्देशकों में हैं, वो एक अभिनेत्री हैं और एक पुलिस अधिकारी भी थीं.

2020 में उन पर तालिबान ने जानलेवा हमला किया था, उन्हें चार बार गोलियाँ मारी गईं थी.

उस दिन वो अपनी बच्ची को अपने साथ लेकर काम पर गई थीं और इसलिए उन्हें यकीन था कि ऐसे में उन पर हमला नहीं होगा. हमले में वो किसी तरह बच पाई थीं.

पिछले साल 2021 में तालिबान की वापसी के बाद फिर से वहाँ की फ़िल्म इंडस्ट्री और कलाकारों पर जैसे ग्रहण लग गया है.

2003 में फ़िल्म बनाने वाली रोया सदत भी अफ़ग़ानिस्तान की पहली महिला फ़िल्म निर्देशकों में से एक है.

तालिबान की वापसी
वो उन अफ़ग़ान महिलाओं पर फ़िल्म बना रही थीं जो तालिबान के साथ बतौर वार्ताकार काम करती थीं. लेकिन 2021 में तालिबान की वापसी के बाद उन्हें फ़िल्म रोक देनी पड़ी. वो अपने देश वापस नहीं लौट सकती हैं.

वो कहती हैं, हम जंग से थक चुके हैं. लेकिन हम कलाकार भी लड़ रहे हैं. हम अपनी कला के ज़रिए, कागज़ पर लिखे लफ़्ज़ों के ज़रिए लड़ रहे हैं.

पिछले साल फ़िल्म निर्देशक सहरा करीमी की मदद की गुहार वाली पोस्ट वायरल हुई थी. वो अफ़ग़ान फ़िल्म एसोसिएशन की पहली महिला चेयरपर्सन हैं. या थीं.. कहना मुश्किल है क्योंकि अफ़ग़ान फ़िल्म एसोसिएशन का फ़िलहाल कोई अस्तित्व नहीं है.

इस सब के बीच धर्मात्मा या ख़ुदा गवाह जैसी अफ़ग़ानिस्तान में शूट हुई हिंदी फ़िल्में किसी सपने जैसी लगती हैं.

जितनी बार भी धर्मात्मा में हेमा मालिनी और फ़िरोज़ ख़ान पर फ़िल्माए गए गाने 'क्या ख़ूब लगती हो बड़ी सुंदर दिखती हो' देखती हूँ तो वीडियो पॉज़ कर अफ़ग़ानिस्तान के सुंदर नज़ारे देख-देख कर मन नहीं भरता.

ख़ुदा गवाह के बुज़कशी वाले सीन भी क्या ज़बरदस्त फ़िल्माए गए हैं वहाँ.

ये एक अजीब इत्तेफ़ाक था कि फ़िल्म में जिस जगह हबीबउल्लाह नाम के किरदार को फाँसी देने का सीन फ़िल्माया गया था, वहीं पर चार साल बाद अफ़ग़ान राष्ट्रपति नजीबुल्लाह को फाँसी दे दी गई थी.

शोले में अमिताभ बच्चन के साथ काम चुके भारतीय अभिनेता एके हंगल भी नजीबुल्लाह के अच्छे दोस्त थे और उनसे ख़तो-किताबत करते रहते थे.

अपनी आख़िरी मुलाक़ात में अफ़ग़ान राष्ट्रपति ने तोहफ़े में एके हंगल साहब को ख़ूबसूरत अफ़ग़ान कालीन और जर्दा दिया था.

फ़िल्म ख़ुदा गवाह को तीस बरस बीत चुके हैं.. अमिताभ बच्चन के फ़ैन्स अफ़ग़ानिस्तान में अब भी मौजूद हैं.

विरासत की तरह अफ़ग़ान घरों में ये फ़िल्म पीढ़ी दर पीढ़ी यादों का हिस्सा रही है. पर आज ये सब कुछ पीछे छूटता नज़र आ रहा है और ज़िंदगी किन्हीं दूसरी ही दुश्वारियों और जद्दोजहद का नाम बन चुकी है. (bbc.com)

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