विचार / लेख

खेलों के जरिए आजीविका तलाशते मणिपुरी युवा
12-May-2022 1:52 PM
खेलों के जरिए आजीविका तलाशते मणिपुरी युवा

रोजगार के कम अवसरों पर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने की बजाय मणिपुर के युवा आपदा में अवसर की तर्ज पर खेलों के जरिए ही आजीविका कमाने की राह पर बढ़ रहे हैं.

   डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी की रिपोर्ट

पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर का नाम आजादी के बाद से ही उग्रवाद या सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा) के कथित दुरुपयोग के लिए सुर्खियों में रहा है. प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर होने के बावजूद राज्य में कोई बड़ा उद्योग नहीं होने के कारण रोजगार के संसाधन नहीं के बराबर हैं. ऐसे में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक जीतने वाले राज्य के कई पूर्व चैंपियन अपनी अकादमी के जरिए युवाओं की प्रतिभा निखारने का काम कर रहे हैं.

खेलों की संस्कृति राज्य में गहरे रची-बसी है. शायद यही वजह है कि फुटबाल से लेकर भारोत्तोलन और कुश्ती से लेकर बॉक्सिंग तक राष्ट्रीय टीम में शामिल हो कर पदक बटोरने वालों की तादाद लगातार बढ़ रही है. राज्य में खेलों की इस परंपरा को ध्यान में रखते हुए नई प्रतिभाओं को बढ़ावा देने के लिए ही राज्य में देश का पहला राष्ट्रीय खेल विश्वविद्यालय स्थापित गया है.

डिग्को सिंह, मैरी कॉम, सरिता देवी, विजेंदर, देवेंद्र सिंह और सरजूबाला जैसे चैंपियन खिलाड़ियों की सूची भी लगातार लंबी हो रही है. यह ऐसे नाम हैं जिन्होंने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में देश के लिए पदक बटोर कर देश का नाम तो रोशन किया ही है, रोजगार की नई राह भी खोली है. इनमें से कई खिलाड़ी अब दूसरी उभरती प्रतिभाओं को तराशने में लगे हैं.

राजधानी इंफाल स्थिति भारतीय खेल प्राधिकरण (साई) भी इसमें अहम भूमिका निभा रही है. हालांकि निजी प्रशिक्षण केंद्र चलाने वाले ज्यादातर पूर्व खिलाड़ियों को सरकार से पर्याप्त सहायता नहीं मिल पाने की शिकायत भी है. बावजूद इसके इन प्रशिक्षण केंद्रों में दाखिला लेने वालों की लगातार लंबी होती सूची अपनी कहानी खुद कहती है. खेल कोटे में इन युवाओं को पुलिस से लेकर सेना, केंद्रीय बलों और दूसरे सार्वजनिक उपक्रमों में आसानी से नौकरियां मिल जाती हैं. इन युवाओं खासकर पुरुषों में ज्यादातर का सपना भारतीय सेना में शामिल होना है.

सामाजिक ताने-बाने में बुनी संस्कृति
मणिपुर के सामाजिक ताने-बाने में खेलों की संस्कृति गहरे रची-बसी है और इसकी परंपरा सदियों पुरानी है. भारत की आबादी में इस राज्य की हिस्सेदारी महज 0.24 प्रतिशत है. बावजूद इसके वर्ष 1984 से अब तक यहां से 19 खिलाड़ी ओलंपिक की विभिन्न स्पर्धाओं में देश का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं. अकेले टोक्यो ओलंपिक में ही राज्य के छह खिलाड़ी चुने गए थे.

मणिपुर में मूल रूप से मैतेयी समुदाय के लोग रहते हैं और लगभग 29 कबायली समुदाय हैं. राजा कांगबा और राजा खागेम्बा के समय में खेल को काफ़ी तरजीह दी गई. राजा कांगबा के समय मणिपुर के कुछ पांरपरिक खेलों की शुरुआत हुई थी.

ब्रिटिश सेना में अफसर रहे सर जेम्स जॉनस्टोन ने मणिपुर पर अपनी पुस्तक 'मणिपुर एंड नगा हिल्स' में राज्य के पारंपरिक खेलों का जिक्र करते हुए स्थानीय लोगों की खेलों में कुशलता की प्रशंसा की थी. राज्य में उत्सवों और त्योहारों के मौकों पर भी खेल प्रतियोगिताओं के आयोजन की परंपरा रही है. मिसाल के तौर पर होली के मौके पर पांच दिनों तक विभिन्न प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है. इस त्योहार को राज्य में याओसांग कहा जाता है. इसमें हर उम्र के लोग सक्रिय रूप से हिस्सा लेते हैं.

साई के एक वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं, "मणिपुर में राष्ट्रीय खेलों का आयोजन साल 1999 में हुआ था. लेकिन उससे पहले ही राज्य के कई खिलाड़ी ओलंपिक में हिस्सा ले चुके थे.” आधारभूत सुविधाओं की कमी के बावजूद राज्य के विभिन्न हिस्सों में स्थानीय स्तर पर करीब एक हजार खेल क्लबों का संचालन होता है जहां स्थानीय प्रतिभाओं को निखारा जाता है. यह सामुदायिक क्लब बिना किसी सरकारी सहायता के ही चलते हैं.

रोजगार का जरिया
राज्य में रोजगार के साधन नहीं के बराबर हैं. ऐसे में खेल ही युवाओं के लिए रोजगार की राह खोलते हैं. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में पदक जीतते ही खेल कोटे के तहत नौकरियां मिल जाती हैं. सेना यहां के युवकों की पहली पसंद है. राजधानी इंफाल के बाहरी इलाके में स्थित बॉक्सिंग की विश्व चैंपियन रहीं सरिता देवी की अकादमी में प्रशिक्षण लेने वाले आठ साल के लोहेम्बा कहते हैं, "मैं सेना में जाना चाहता हूं. इसलिए मुक्केबाजी सीख रहा हूं.” वहीं प्रशिक्षण लेने वाली थोंग कुंजरानी देवी कहती है, "मैरी कॉम और सरिता देवी की तरह वह भी बॉक्सर बन कर देश और राज्य का नाम रोशन करना चाहती है.”

बैडमिंटन के राज्य चैंपियन विद्यासागर सलाम कहते हैं, "हमारे पास कोई अन्य विकल्प नहीं है. खेल से हमारे लिए रोजगार की राह खुलती है और भविष्य सुरक्षित होता है.” एक महिला बैडमिंटन खिलाड़ी बेलिंदा कहती है, "मेरा सपना ओलंपिक में देश का प्रतिनिधित्व करना है.”

बॉक्सिंग की पूर्व राष्ट्रीय व विश्व चैंपियन सरिता देवी कहती हैं, "छोटा और सुदूर राज्य होने के बावजूद लोगों में खेलो के प्रति काफी दिलचस्पी है. हम नई प्रतिभाओं को प्रशिक्षण देकर तैयार करते हैं. राज्य में प्रशिक्षण औऱ आधारभूत ढांचे की भारी कमी है.”

सरिता देवी अपने सहयोगियों के साथ दुर्गम पहाड़ी इलाकों में बसे गांवों में जाकर लोगों को समझाती हैं कि खेलों से करियर बन सकता है. उसके बाद छोटी उम्र में ही प्रतिभाओं को चुन कर अकादमी में प्रशिक्षण दिया जाता है. सरिता देवी कहती हैं कि "सरकार से सहायता मिले तो और बेहतर काम हो सकता है. मैंने बीस साल देश का प्रतिनिधित्व किया. अब इन बच्चों को प्रशिक्षण दे रही हूं ताकि यह आगे चल कर राज्य व देश का नाम रोशन कर सकें." उनका कहना है कि युवाओं में खेलों के प्रति दिलचस्पी बढ़ा कर उनको नशीली वस्तुओं के सेवन और अपराधों से भी बचाया जा सकता है.

वरिष्ठ पत्रकार सरोज कुमार शर्मा कहते हैं, "मणिपुर में खेलों की परंपरा बहुत पुरानी है. इसलिए इसे देश में खेलों का पावरहाउस कहा जाता है. राज्य में विभिन्न त्योहारों के मौकों पर घरेलू प्रतियोगिताएं भी आयोजित की जाती हैं. उनमें हर उम्र के लोग हिस्सा लेते हैं. यही वजह है कि तमाम दिक्कतों के बावजूद राज्य से दर्जनों चैंपियन निकलते रहे हैं.”

रेसलिंग फेडरेशन आफ इंडिया के उपाध्यक्ष और राज्य इकाई के सचिव एन फोनी कहते हैं, "राज्य में शुरू से ही खेलों की संस्कृति गहरे रची-बसी है. स्पोर्ट्स अथारिटी आफ इंडिया और राज्य सरकार भी प्रशिक्षण के जरिए खेलों को बढ़ावा देने का काम कर रही है. इससे नौकरियां भी मिल जाती हैं.” उनके मुताबिक, एक चैंपियन को तैयार करने में 15 से 20 साल का समय लगता है. लेकिन पदक जीतने के बाद वह नौकरी पा कर दूसरे राज्य में चला जाता है. उसके बाद फिर वही कवायद दोहरानी पड़ती है. (dw.com)
 

 

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