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मंगलेश डबराल के जन्मदिन पर : भुलाए न बने
16-May-2022 4:03 PM
मंगलेश डबराल के जन्मदिन पर : भुलाए न बने

Photographer Sanjay Borade

-विष्णु नागर
मंगलेश डबराल अब नहीं हैंं। नहीं हैं मतलब अब हम उन्हें अपने बीच कुछ नया रचते-बनाते हुए नहीं पा सकते। बहुत से कवि मरने से बहुत पहले मर चुके होते हैं। जब उनकी मृत्यु की खबर आती है, तब हम चौंंकते हैं, अरे ये अब तक हमारे बीच थे?ऐसा शायद इसलिए कि तब तक वे अपने को भुलाये जाने की पर्याप्त योग्यता अर्जित कर  चुके होते हैं। इसके विपरीत मंगलेश या उनकी तरह के दूसरे कुछ कवियों की मौत हमें सदमा देती है क्योंकि कुछ नया, कुछ भी नया करने की संभावना उनमें शेष थी। इसके प्रमाण हमें मिल रहे थे।

मुक्तिबोध की मृत्यु के समय मैं एक किशोर था, जानता भी नहीं था कि ऐसा कोई कवि था, जो अब नहीं है और उसका होना बहुत मायने रखता था। इसलिए जिस सदमे को उनकी कविता को निकट से जानने वालों ने तब महसूस किया था, उसे बाद में ही मैं महसूस कर पाया। 1990 के अंत में जब रघुवीर सहाय नहीं रहे तो उनके अभाव को मंगलेश सहित हम सबने बहुत देर तक महसूस किया था और आज वह खला हमारे भीतर हैं कि हमने उन्हें बहुत जल्दी खो दिया। मंगलेश का अभाव भी कुछ ऐसा है। वह थे तो उस आदमी को चैन नहीं था। तमाम बेचैनियाँ उसकी कविताओं और  उसके बाहर दर्ज होती रहती थीं। अब वह शायद चैन होंं मगर हम उनके समवयस्क और बाद के कवि उनके न रहने से बेचैन हैं। जब कोई रहता है तो हम वह शायद उसके रहने को उस तरह महसूस नहीं कर पाते, जिस प्रकार उसके न रहने पर। और मंगलेश एकदम चले जाएँगे, इसका अहसास किसी को नहीं था। तब भी नहीं, जब वह कोविड के कारण अस्पताल में भर्ती किए गए, जबकि उनका ऑक्सीजन स्तर खतरनाक रूप से नीचे जा चुका था। उस बीच उनके ठीक होते जाने की रोशनी की धीमी चमक दिखती रहती थी तो आश्वस्ति होती थी।

मंगलेश और हम एक-दूसरे के कितने दोस्त थे, कितने नहीं, मैं ठीक ठीक कह नहीं सकता। उनकी अंतरंग मंडली का कुछ दूसरों की तरह मैं सदस्य नहीं था, हालांकि उनकी बहुत सी अंतरंगताओं का एक गवाह मैं भी रहा हूँ। मैं उन्हें 1971-72 से जानता रहा हूँ। हम दोनों के तब संघर्ष के दिन थे।मंगलेश मुझसे कुछ पहले यहाँ आ चुके थे। साहित्य का संसार कुछ-कुछ उन्हें जानता था,जबकि मेरा कुछ सामने आया नहीं था। विचारधारागत तैयारी भी तब तक मंगलेश की काफी हो चुकी थी। मैं शून्य या शून्य से थोड़ा ऊपर था। मोहनसिंह प्लेस के काफी हाउस में इनकी बहसें सुना करता था।

खैर वह दौर गुजरा। बाद में हमारी मित्रता हुई। और भी बाद में कविता के  कई मंचों पर हम साथ रहे।कविता के बाहर की दुनिया में भी।रसरंजन की कई शामों में भी। ‘जनसत्ता’ के दफ्तर में भी कई दोपहरें बीतींं। बहादुर शाह जफर मार्ग पर उनका छोटा सा कैबिन मित्रों का अड्डा और कई नवागत लेखकों-पत्रकारों का स्वागत कक्ष था। इतनी भीड़ होती थी अक्सर वहाँ कि अगर वह कभी अकेले काम करते हुए मिल जाए तो आश्चर्य होता था मगर कभी मंगलेश ने किसी से नहीं कहा कि यारों अब मुझे काम करने दो, जाओ।ज्यादा काम होता तो वह सब कुछ सुनते भी रहते और काम भी मुस्तैदी से निबटातेभी जाते। तब ‘जनसत्ता’ के चार रविवारी पृष्ठों की जो धमक थी, वह फिर कभी किसी की नहीं रही। बहुत सी बातें उनसे अलग से भी हुईं। सहमतियाँ-असहमतियाँँ सभी। असहमतियाँ हुईं तो एक दूसरे से कुछ उदासीन रहे मगर संबंधों का धागा कभी नहीं टूटा। जब मैं रघुवीर सहाय की जीवनी पर काम कर रहा था, तो मुझे लगता था कि इस काम को करने के सच्चे अधिकारी वह हैं। फिर भी यह अच्छा हुआ, यह काम मैंने किया। शायद उनसे पूरा नहीं हो पाता, जैसा शमशेर बहादुर सिंह की जीवनी लिखने की परियोजना  में हुआ। यह काम पूरा न हो पाने का एक  कारण कोरोना के बाद अस्त व्यस्त हुआ सबका जीवन भी था। शमशेरजी वाला काम शायद आरंभिक नोट्स लेने से आगे नहीं बढ़ पाया। बहुत तरह की उलझनों के बीच ऐसा काम-जो रचनात्मक भी हो और निरंतर शोध भी माँगता हो, उनकी तमाम योग्यताओं के बावजूद कठिन तो था मगर मेरे काम में उन्होंने किसी और से ज्यादा तत्परता से सहयोग दिया। इसका कारण रघुवीर सहाय से उनका लगाव था और मुझसे मित्रवत संबंध भी इसका कारण था।

बहरहाल वह अब नहीं है और उनका न होना इतना अप्रत्याशित है। फिर भी इस प्रकार वह हमारे बीच भी हैंं-
अपने ही भीतर मरते जा रहे हैं
जीवित लोग
मैं उम्मीद से देखता हूँ मृतकों की ओर
वे ही हैं जो दिखते हैं जीवित।

यह मंगलेश डबराल के ‘स्मृति एक दूसरा समय है’  कविता संग्रह की तीन छोटी कविताओं में से एक है। छोटी और अर्थपूर्ण। मंगलेश को क्या पता रहा होगा कि वह भी जल्दी ही उनमें से एक हो जाने वाले हैंं, जो उन मृतकों में एक होंगे, जो दीखते रहेंंगे, हमें जीवित। हम जो जीवित अपने भीतर मरते जा रहे है, उम्मीद से उनकी ओर देखा करेंगे।वैसे उनमें जीवन जीने की अदम्य इच्छा थी। जीवन से। कभी वह हारे नहीं। उन्हें निजी अस्पताल से अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में भर्ती किया जाए, यह उन्हीं का आग्रह था।

हारना तो जैसे आरंभ से उस शख्स को आता नहीं था। हाँ लडऩा-भिडऩा आता था। अपनी बात के लिए कविता के लिए जगह बनाना आता था। अपनी कविताओं से ज्यादा दूसरों की कविताओं के लिए यह काम उन्होंने अपने सुदीर्घ पत्रकारिता के जीवन मेें किया और जहाँ भी रहे,वहाँ किया।’

जनसत्ता ‘जिन वर्षों मेंं सचमुच एक अखबार  हुआ करता था, तब उसने हिन्दी और भारतीय भाषाओं की कविता और कवियों के लिए उसमें बहुत जगह बनाई बल्कि कविता के लिए ही क्यों, साहित्य और संस्कृति के लिए भी। जब दूसरे हिंदी अखबार साहित्य और संस्कृति से विमुख होने के लिए तत्पर हो चुके थे, तब ‘जनसत्ता’ ने मंगलेश डबराल के रहते लगभग दो दशकों तक यह काम जम कर किया। इसमें किसी तरह का समझौता स्वीकार नहीं किया। उस समय की कोई बड़ी सांस्कृतिक-साहित्यिक हस्ती ऐसी नहीं थी, जिसकी ‘जनसत्ता’ के साप्ताहिक संस्करण में चर्चा न हुई हो, जिसे महत्व को रेखांकित न किया गया हो, हिंदी के पाठक उससे अपरिचित रखा गया हो। यही बात युवा प्रतिभाओं के बारे में थी। यह काम मंगलेश ने अन्यत्र भी किया था मगर ‘जनसत्ता’ ने उसे दीर्घकालिक स्मृति का हिस्सा बना दिया। रघुवीर सहाय कभी जो काम ‘दिनमान’ के जरिए कर रहे थे, वह काम अपनी तरह से उनके वहाँ रहते भी और बाद में भी मंगलेश ने किया। जब  रघुवीर जी ‘दिनमान’ से बाहर कर दिए गए तो उनके लेखन का उपयोग अपने यहाँ मंगलेश ने उनसे स्तंभ लिखवाकर किया। अक्सर कवि की कविताओं की आभा में उसके इस तरह के योगदान को विस्मृत कर दिया जाता है।

जीवन के बहत्तर वर्ष पूरे कर चुका और पचास से भी अधिक वर्षों से लिख रहा यह कवि अभी भी बहुत कुछ कर रहा था और बहुत कुछ करने की इच्छा से प्रेरित  था। मंगलेश जब अपने गाँव काफलपानी में रहते थे अभावों के बीच, जहाँ व्यावसायिक पत्र-पत्रिकाएँ भी मुश्किल से पहुँचती थीं, तब 1967-68 में ही छोटी पत्रिकाओं में उनकी कविताएँ छपने लगी थीं। 1970 में जब अशोक वाजपेयी की आलोचना की पहली और उल्लेखनीय किताब ‘फिलहाल’ आई , उसमें भी मंगलेश की कविता का जिक्र है, हालांकि कविता से विचारों की विदाई के संदर्भ में।

मंगलेश के जानने वालों को लगता था कि वह कोरोना से भी नहीं हारेंंगे। अभी एक दिसंबर को ही निजी अस्पताल के बिस्तर  पर लेटे हुए अर्धचेतनावस्था में उन्होंने फेसबुक पर कुछ लिखने-कहने की कोशिश की थी-,द्ग ड्ढ4 ह्यद्गद्ग श्च.। पता नहीं यह कुछ कहने का प्रयत्न जैसा था या कुछ कह न पाने मेंं असमर्थता का संकेत। इसके बाद आल इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट में भर्ती होने के बाद मृत्यु से चारेक दिन पहले तक  मित्र रवींद्र त्रिपाठी से संक्षिप्त बात की थी। इससे लगता था कि एम्स के कुशल डाक्टर और वह स्वयं आत्मबल से कोरोना संकट से बाहर निकल आएँगे,बस समय लगेगा। मंगलेश की हालत से इतने लोग चिंतित थे और इतनों की शुभेच्छाएँ उनके साथ थीं और हर तरह से सहयोग करने की इच्छाएँ भी कि जिसकी कल्पना इस समय करना कठिन है।

वह हमारे समय के सबसे चर्चित और सबसे सक्रिय -सफल कवियों-लेखकों में थे। उनकी चौतरफा तैयारी और सक्रियता नौजवान कवियों-लेखकों के लिए भी प्रेरक शायद रही हो। फेसबुक पर उनकी सक्रियता भी गजब थी। शायद ही कोई दिन जाता हो, जब किसी न किसी रूप में वह अपनी उपस्थिति दर्ज न कराते रहे होंं। कई बार वह एक योद्धा की तरह कूद पड़ते थे, चाहे हमला उनके किसी कथन या कविता पर हो या कोई और व्यापक मुद्दा हो। मंगलेश की निगाहें साहित्य ही नहीं,हमारे समय के राजनीतिक विद्रूप पर भी खूब थी। वह इस समय जितना बेचैन, व्यथित और बदलाव की इच्छा से प्रेरित  कवि थे, ऐसे हिंदी कवि इस समय कम मिलेंगे। इस हत्यारे समय की जैसी पहचान मंगलेश के अंतिम कविता संग्रह ‘स्मृति एक दूसरा समय है’ में है, वैसी कम मिलेगी। हिटलर, तानाशाह, हत्यारों का घोषणापत्र, हत्यारा चाकू आदि आदि। उनकी अनेक कविताएँ हैं। बाकी कविताओं में भी यह उपस्थिति नजर आएगी।

मंगलेश उन हारे-थके हुए कवियों में नहीं थे, जिनका वक्त ने साथ छोड़ दिया मगर जो वक्त का हाथ जबर्दस्ती पकड़े हुए घिसट रहे हैं। वह अपार ऊर्जा से भरा हुए थे। अभी अक्टूबर के अंत में मुझे साथ लेकर मंगलेश ने बहुत बड़ी लेखक-कलाकार बिरादरी को बिहार चुनाव में धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के पक्ष में खड़ा किया था। यह कवि इस समय हिंदी कवियों में अपनी प्रसिद्धि के शिखर पर था। हमारी पीढ़ी के वह ऐसे अकेले कवि थे, जिनकी अंतरराष्ट्रीय पहचान भी इस बीच बनी थी। उनके कवि-मित्रों की बिरादरी भाषाओं और देशों के पार थी। जीवन में उनके कइयों के कई मतभेद रहे मगर कवि-लेखक के रूप में उनकी प्रतिभा से शायद ही कभी कोई इंकार कर पाया हो,जबकि किसी को भी सिरे से नकार देने का रिवाज हमारी भाषा में बहुत है।

शमशेर बहादुर सिंह के अलावा उनके एक और आदर्श  कवि रघुवीर सहाय थे, जिनसे उनकी व्यक्तिगत निकटता बहुत रही। 9 दिसंबर को रघुवीरजी का जन्मदिन था लेकिन अब यह दिन मंगलेश के हमसे बिछुडऩे के दिन की तरह शायद अधिक याद किया जाए। इसी दिन हिंदी के एक और फक्कड़ और बड़े कवि त्रिलोचन शास्त्री भी नहीं रहे थे और अब मंगलेश भी नहीं हैं।

1981 में प्रकाशित  पहले कविता संग्रह ‘पहाड़ पर लालटेन’ से पहले ही हिंदी कविता की दुनिया में मंगलेश को बहुत सम्मान के साथ देखा जाता था। उनके दूसरे कविता संग्रह का नाम था-‘घर का रास्ता’। वह रास्ता अपनी कविताओं में तो वह बार-बार तलाशते रहे मगर वास्तविक जीवन में उसे पाना इतना आसान कहाँ था! जब कोई अपना गाँव घर छोडक़र दिल्ली-बंबई जैसे महानगर में आने को मजबूर हो जाता है तो फिर घर का रास्ता पता होने पर भी घर लौटना कहाँ आसान रह जाता है! मंगलेश की एक कविता का अंश है-
मैंने शहर को देखा और मैं मुस्कुराया
यहाँ कोई कैसे रह सकता है
यह जानने मैं गया
और वापस न आया।

वह शुरू से विश्वासों से वामपंथी रहे और इसमें कभी विचलन नहीं आया। 2015 में जब साहित्य अकादमी ने अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखक एम ए कलबुर्गी की हत्या पर मौजूदा सत्ता के भय से अकादमी ने शोकसभा तक करने से इंकार कर दिया था तो भारतीय भाषाओं के जिन करीब पचास लेखकों ने अपना विरोध व्यक्त करने के लिए अकादमी पुरस्कार लौटाया था, उनमें मंगलेश डबराल अग्रणी थे, जिसे हुक्मरानों ने  और उस समय के अकादमी अध्यक्ष ने इसे कुछ लेखकों का षडय़ंत्र तक बताया था और इन लेखकों को अवार्ड वापसी गैंग कहा था। यह पुरस्कार मंगलेश को आज से 19 वर्ष पहले मिला था। उम्र के अस्सीवें वर्ष के बाद मिलनेवाले कुछ पुरस्कारों को छोड़ दें तो मंगलेश को सभी महत्वपूर्ण पुरस्कार मिले मगर पुरस्कारों से अधिक महत्वपूर्ण होता है  कविता की दुनिया में कवि का अकुंठ सम्मान।
 इतने सम्मानों से नवाजा गया यह कवि सत्ता के विरोध के हर मंच पर उपस्थित रहता था, भले कवि के रूप में किसी समारोह में बुलाए जाने और उसके निमंत्रण को स्वीकार करने के बाद भी वह किसी कारण जाना टाल जाए,जो वह कई बार करते थे। वह उन कवियों-व्यक्तित्वों में रहेंंगे, जिन्हें मृत्यु के बाद श्रद्धांजलि देकर फिर हमेशा के लिए भुला नहीं दिया जा सकता।

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