संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : घर के जलते-सुलगते मुद्दों पर फैसला न लेने में महारथ हासिल करने के नुकसान
18-May-2022 3:37 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : घर के जलते-सुलगते मुद्दों पर फैसला न लेने में महारथ हासिल करने के नुकसान

चिंतन शिविर से कांग्रेस की चिंता कम होते नहीं दिख रही है। जिस दिन राजस्थान में तीन दिन का यह चिंतन शिविर जारी ही था, उसी दिन पंजाब कांग्रेस के एक बड़े नेता सुनील जाखड़ ने पार्टी से इस्तीफा दिया, और कल की खबर यह थी कि जाखड़ के समर्थन में बहुत से और कांग्रेस नेता आवाज उठा रहे हैं। प्रदेश कांग्रेस के भूतपूर्व अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू ने उसी वक्त यह ट्वीट किया था कि कांग्रेस को सुनील जाखड़ को नहीं खोना चाहिए जो कि अपने वजन जितने सोने के बराबर कीमती हैं, हर मतभेद को बातचीत से सुलझाना चाहिए। अब आज सुबह की ताजा खबर है कि गुजरात कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष हार्दिक पटेल ने बड़े गंभीर आरोप लगाते हुए पार्टी से इस्तीफा दे दिया है। उन्होंने अपनी उपेक्षा गिनाने के साथ-साथ कांग्रेस की नीतियों और तौर-तरीकों की कड़ी निंदा की है। उनके इस्तीफे की भाषा राहुल गांधी पर सीधा हमला करने वाली है, और उन्होंने कहा कि उन्हें प्रदेश कांग्रेस कमेटी की किसी भी बैठक में नहीं बुलाया जाता, कोई भी निर्णय लेने से पहले वो मुझसे राय-मशविरा नहीं करते, तब इस पद का क्या मतलब है? उन्होंने कहा कि हाल ही में पार्टी ने राज्य में 75 नए महासचिव, और 25 नए उपाध्यक्ष घोषित किए हैं, और उनसे एक बार भी कोई राय नहीं ली गई।

कांग्रेस के चिंतन या संकल्प शिविर से लंबे-लंबे भाषण तो निकलकर आए हैं, लेकिन पार्टी अपने सामने अपने घर के जलते-सुलगते मुद्दों पर कोई भी फैसला लेने की हालत में नहीं दिख रही है। आज कांग्रेस पार्टी अपने आपको भाजपा का विकल्प बता रही है, लेकिन वह अपने खुद के ढांचे को अपने पैरों पर खड़ा करने की हालत में नहीं दिख रही है। हार्दिक पटेल जैसे नौजवान आंदोलनकारी को उसकी भारी लोकप्रियता देखकर कांग्रेस बड़ी उम्मीद और बड़े वायदों के साथ उन्हें पार्टी में लाई थी, और गुजरात में कांग्रेस अपने संगठन से इस हद तक निराश थी कि रातों-रात हार्दिक पटेल को पार्टी का कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष बनाया था। इसके अलावा ऐसा कोई दूसरा मामला कांग्रेस में याद नहीं पड़ता कि पहली बार सदस्य बने व्यक्ति को एकदम से कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया हो। लेकिन पिछले कई महीनों से हार्दिक पटेल अपनी उपेक्षा की बात कह रहे थे, कुछ दिन पहले उन्होंने अपने सोशल मीडिया पेज से कांग्रेस का नाम हटा दिया था, और उनकी इस्तीफे की बात हैरान करने वाली नहीं है। यह बात भी हैरान करने वाली नहीं है कि जिंदगी के सबसे खराब दौर से गुजर रही कांग्रेस पार्टी ऐसे दौर में भी अपने साथ आने वाले लोगों को सम्हालकर नहीं रख पा रही है, और न ही पुराने लोग अपनी आज की पार्टी से खुश रह गए हैं। इन तमाम लोगों पर किसी सत्तारूढ़ पार्टी से जुडऩे की तोहमत लगाना ठीक नहीं होगा, क्योंकि बंगाल के बाहर के कई कांग्रेस नेता भी तृणमूल कांग्रेस में गए हैं, और बंगाल के बाहर तो तृणमूल की सत्ता का कोई फायदा उन्हें होते नहीं दिखता है।

कांग्रेस अपने संकल्प शिविर में संगठन के मुद्दों पर कितनी ही बात करे, हकीकत यह है कि उसने मुद्दों को, जलते-सुलगते मुद्दों को ताक पर धर देने की आदत बना रखी है। किसी भी समस्या पर कुछ भी न करके अपने आप उसके खत्म हो जाने या टल जाने की उम्मीद करते हुए कांग्रेस लीडरशिप चीजों को इस नौबत तक ला रही है। हो सकता है कि हार्दिक पटेल संभावनाविहीन दिखती कांग्रेस में अपनी संभावनाविहीनता से थक गए हों, लेकिन अगर उनकी कही यह बात सही है कि उन्हें संगठन की किसी बैठक में नहीं बुलाया जाता, दर्जनों पदाधिकारी नियुक्त करते हुए उनसे पूछा भी नहीं जाता, पार्टी के लीडर उनसे बात करते हुए अपने मोबाइल फोन पर व्यस्त रहते हैं, तो फिर हार्दिक पटेल की उस पार्टी को क्या जरूरत है, और हार्दिक पटेल को उस पार्टी की क्या जरूरत है? यह सिलसिला टूट जाना ही ठीक था।

कांग्रेस पार्टी की दुर्गति पर लिखना आज का मकसद नहीं है, लेकिन हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में एक मजबूत विपक्ष की जरूरत पर लिखना जरूरी है, और इसी नाते हम कई बार कांग्रेस पर लिखने को मजबूर हो जाते हैं। लोगों को याद होगा कि पंजाब के पिछले एक कांग्रेसी मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने अपने औपचारिक इंटरव्यू में यह कहा था कि राहुल गांधी से मिले उन्हें साल भर से अधिक हो चुका था। यह नौबत देश के बहुत से कांग्रेस नेताओं की रहती है जिन्हें पार्टी लीडरशिप से मिलने का वक्त नहीं मिलता। पार्टी की लीडरशिप में राहुल गांधी क्या हैं, यह एक रहस्य बना हुआ है। वे कुछ न होते हुए भी सब कुछ हैं, और सब कुछ होते हुए भी उन पर किसी बात की जिम्मेदारी नहीं है। बिना जिम्मेदारी सिर्फ अधिकार ही अधिकार, यह किसी भी लोकतंत्र में अच्छी नौबत नहीं है, और किसी संगठन के लिए तो यह आत्मघाती से कम नहीं है। नतीजा यही है कि पार्टी को जिन मामलों पर तुरंत फैसला लेना चाहिए, वे मामले बरसों तक पड़े रहते हैं, क्योंकि जिनसे फैसले लेने की उम्मीद की जाती है, उनसे कोई सवाल पूछने की संस्कृति कांग्रेस पार्टी में नहीं है। यह तुलना कुछ लोगों को नाजायज लग सकती है कि जिस तरह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से कोई ईमानदार सवाल पूछने का हक मीडिया को नहीं है, ठीक उसी तरह कांग्रेस के भीतर सोनिया-परिवार से कोई सवाल पूछने का हक भी किसी नेता का नहीं है। मोदी तो अपनी अपार लोकप्रियता या अपार कामयाबी के चलते सवालों को टाल सकते हैं, लेकिन सोनिया-परिवार देश के चुनावों में पार्टी के हाल को देखते हुए सवालों को कब तक टाल सकता है, कब तक टालते रहेगा?

एक सुनील जाखड़, या एक हार्दिक पटेल मुद्दा नहीं हैं, लेकिन कांग्रेस अपने बड़े नेताओं को जिस लापरवाह और निस्पृह भाव से चले जाने दे रही है, वह पार्टी के एक खराब भविष्य का आसार है। दो दिन पहले हमने कांग्रेस शिविर में राहुल गांधी के भाषण में क्षेत्रीय पार्टियों के खिलाफ कही गई अवांछित बातों की आलोचना की थी, और उसके तुरंत बाद से देश भर में ऐसी आलोचना जगह-जगह से आ रही है, बहुत से राजनीतिक विश्लेषकों ने इस बारे में लिखा है, और तेजस्वी यादव जैसे कांग्रेस के दोस्त ने भी इसके खिलाफ बयान दिया है। कांग्रेस जितने किस्म की गलतियां कर रही है, गलत काम कर रही है, उन सबके नुकसान से उबरने के लिए ऐसे कोई संकल्प काफी नहीं हो सकते, जो कि अभी तीन दिनों के शिविर में लिए गए हैं। कांग्रेस पार्टी को अपने तौर-तरीके सुधारने चाहिए, वरना उसका रहा-सहा वर्तमान भी भविष्य में उसका साथ नहीं दे पाएगा।
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