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कई राज्यों में भी मौजूद हैं देशद्रोह जैसे कानून, सुप्रीम कोर्ट को उधर भी निगाह डालने की जरूरत
18-May-2022 6:52 PM
कई राज्यों में भी मौजूद हैं देशद्रोह जैसे कानून, सुप्रीम कोर्ट को उधर भी निगाह डालने की जरूरत

इन कानूनों को देखने के बाद सामने आता है कि इनमें से किसी को भी औपनिवेशक कानून नहीं कहा जाता है। इन कानूनों को हमने खुद बनाया है। हर सरकार इनका अपने हिसाब से इस्तेमाल करती है और न्यायपालिका को भी इससे कोई दिक्कत नहीं है।

-आकार पटेल
सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह या देशद्रोह कानून पर रोक लगा दी है, और केंद्र सरकार ने यह भी कहा है कि प्रधानमंत्री चाहते हैं कि औपनिवेशिक युग के इस कानून को चरणबद्ध तरीके से हटाया जाए। यह एक अच्छा लम्हा है। यह कानून कहता है- ‘जो कोई भी, बोलकर या लिखकर, या संकेतों द्वारा, या जाहिर हो जाने वाल दृश्यों के प्रतिनिधित्व द्वारा, या अन्यथा, घृणा या अवमानना द्वारा देश के खिलाफ कुछ करने का प्रयास करता है, या सरकार के प्रति असंतोष को भडक़ाता है या भडक़ाने की कोशिश करता है, उसे भारत में प्रतिष्ठित कानून द्वारा, ‘आजीवन कारावास’ की सजा दी जाएगी।

आर्टिकल14 डॉट कॉम नाम की वेबसाइट ने इस कानून के सरकार द्वारा दुरुपयोग किए जाने के कई उदाहरणों का लेखा-जोखा तैयार किया है और इस मुद्दे को आम लोगों के बीच लाने का अच्छा काम किया है। विशेषज्ञों ने चेताया है कि एक तो इस कानून का सरकार द्वारा इस्तेमाल किया जा सकता है यानी सरकारें इस कानून के तहत मुकदमे दर्ज कर सकती हैं और दूसरा यह कि और भी बहुत से ऐसे कानून हैं जिनका गलत इस्तेमाल हो सकता है। ये दोनों बातें ही दुरुस्त हैं।

न्यायपालिका को एक बार यह समझ आ जाए कि कुछ कानून 21वीं सदी के लोकतंत्र में आवश्यकताविहीन हैं तभी इन जैसे कानूनों को खत्म किया जा सकता है। जब ऐसी सच्चाइयों का एहसास देश करते हैं तभी उन्हें दुरुस्त करने का काम किया जाता है।

भारत में बहुत से ऐसे कानून हैं जिनकी संविधान सम्मत व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रकाश में समीक्षा की जरूरत है। और राजद्रोह अकेला ऐसा औपनिवेशक कानून नहीं है जिसे भारतीय भोगते हैं। गांधी जी ने जिस राउलेट एक्ट का विरोध किया था और जिसकी परिणति जलियांवाला बाग की त्रासदी के रूप में हुई थी उसे कानून के बुनियादी सिद्धांतों के आधार पर खत्म किया गया था। इस कानून के तहत लोगों को बिना किसी आरोप या मुकदमे के गिरफ्तार किया जा सकता था और बिना किसी अदालती सुनवाई के ही बंद कमरों मे हुए जजों के फैसले के आधार पर किसी को भी सजा दी जा सकती थी। इसे प्रशासनिक हिरासत का नाम दिया गया था, यानी बिना किसी अपराध या कोई अपराध हुए बिना ही लोगों को सिर्फ इस आधार पर जेल में डाल देना क्योंकि प्रशासन या सरकार को लगता था कि आने वाले समय में अमुक व्यक्ति कोई अपराध कर सकता है।

लेकिन आज भारत में इस किस्म के कई कानून हैं। 2015 में 3,200 से ज्यादा लोगों को इसी प्रशासनिक हिरासत में लिया गया था। गुजरात में प्रीवेंशन ऑफ एंटी सोशल एक्टिविटीज एक्ट 1984 (1984 का समाजविरोधी गतिविधि निरोधक अधिनियम) है। इसके तहत बिना किसी आरोप या मुकदमे के ही किसी को भी एक साल तक जेल में रखा जा सकता है। उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून है जिसके तहत किसी को भी बिना किसी आरोप या मुकदमे के एक वर्ष के लिए हिरासत में रखा जा सकता है। इसके तहत, ‘किसी व्यक्ति को भारत की रक्षा, विदेशी शक्तियों के साथ भारत के संबंधों, या भारत की सुरक्षा के लिए किसी भी तरह से प्रतिकूल कार्य करने से रोकने’ या ‘से किसी भी तरीके से राज्य की सुरक्षा के लिए हानिकारक या सार्वजनिक व्यवस्था के रखरखाव के लिए किसी भी तरह से प्रतिकूल कार्य करने से, या समुदाय के लिए आवश्यक आपूर्ति और सेवाओं के रखरखाव के लिए प्रतिकूल तरीके से कार्य करने से कार्य करने के अपराध में हिरासत में लिया जा सकता है।

इस कानून का इस्तेमाल मध्य प्रदेश में पशु तस्करी और पशु वध के आरोपी मुसलमानों को जेल में डालने के लिए किया गया है। तमिलनाडु में मादक पदार्थों का काम करने वाले, ड्रग्स बेचने वाले, जंगलों के अवैध रूप से काटने वाले, गुंडों, मानव तस्करी करने वाले, अवैध रेत खनन करने वाले, यौन अपराधियों, झुग्गी-झोपडिय़ों के नाम पर जमीन कबजाने वाले आदि पर वीडियो पाइरेट्स एक्ट 1982 का इस्तेमाल किया जाता है। इस कानून में सरकार को बिना किसी मुकदमे के किसी को भी जेल में डालने का अधिकार है।

कर्नाटक में भी ऐसा ही कानून है जिसका इस्तेमाल तेजाब फेंकने वाले, अवैध शराब का धंधा करने वाले, पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले, ड्रग्स का धंधा करने वाले. जुआरियों, गुंडों और मानव तस्करी के साथ ही जमीन कब्जाने वाले और सेक्सुअल अपराध करने वालों पर किया जाता है। इसे भी वीडियो पाइरेट्स एक्ट 1985 का नाम दिया गया है। इस कानून के तहत बिना किसी आरोप या मुकदमे के किसी को भी 12 महीने तक जेल में रखा जा सकता है।

असम में भी 1980 का प्रीवेंटिव डिटेंशन एक्ट यानी एहतियाती हिरासत कानून है। इसके तहत किसी व्यक्ति को बिना किसी आरोप या मुकदमे के दो साल तक जेल में रखा जा सकता है।

बिहार में विदेशी मुद्रा संरक्षण और तस्करी रोकथाम अधिनियम, 1984 है। यह ‘किसी व्यक्ति को i) तस्करी से रोकने के लिए, या (ii) माल की तस्करी को बढ़ावा देने पर, या (iii) तस्करी के सामान के परिवहन या छुपाने या रखने में संलग्न होने पर, या (vi) तस्करी के सामान को परिवहन या छुपाने या रखने के अलावा तस्करी के सामान में शामिल होने पर, या (1) तस्करी के सामानों में लगे व्यक्तियों को शरण देने या तस्करी को बढ़ावा देने पर लागू होता है।

जम्मू और कश्मीर में तीन कानून हैं, एक बिना आरोप या मुकदमे के छह महीने के लिए हिरासत में रखने की अनुमति देता है, दूसरा एक साल के लिए और तीसरा दो साल के लिए। पश्चिम बंगाल में हिंसक गतिविधियों की रोकथाम अधिनियम 1970 है। छत्तीसगढ़ में पत्रकारों को नियमित रूप से एनएसए के तहत जेल में डाल दिया जाता है और उनकी रिपोर्टिंग के लिए एक साल के लिए जेल में रखा जाता है।

इन कानूनों को देखने के बाद सामने आता है कि इनमें से किसी को भी औपनिवेशक कानून नहीं कहा जाता है। इन कानूनों को हमने खुद बनाया है। हर सरकार इनका अपने हिसाब से इस्तेमाल करती है और न्यायपालिका को भी इससे कोई दिक्कत नहीं है। इन दिनों हम भारतीय नागरिकों को एंटी-नेशनल बोलकर राजद्रोही घोषित करते रहते हैं।

अब हम जलियांवाला बाग जैसा सामूहिक प्रदर्शन तो नहीं करते और अगर करेंगे भी तो इन जैसे कानूनों के जरिये (जिनका जिक्र ऊपर किया गया है) हमें एंटी नेशनल घोषित कर दिया जाएगा। लेकिन इससे इस तथ्य पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि ये कानून पुराने हो चुके हैं और इनकी आज के समय में कोई जरूरत नहीं है और इन्हें उसी तरह खत्म करने की जरूरत है जिस तरह राउलेट एक्ट को खत्म किया गया था।

एक बार ऐसी समझ एक राष्ट्र के तौर पर हमारे बीच पैदा हो गई, खासतौर से हमारी उच्च न्यायपालिका में तो हम उम्मीद कर सकते हैं कि वैसे ही न्यायिक सुधार हो सकते हैं जिसकी उम्मीद देशद्रोह कानून के मामले में बंधी है। (navjivanindia.com)

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