संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : इस मुल्क में लोकतंत्र सबसे नाकामयाब है अदालती मामलों में..
20-May-2022 1:18 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : इस मुल्क में लोकतंत्र सबसे नाकामयाब है अदालती मामलों में..

देश की दो बड़ी-बड़ी पार्टियों में बड़े-बड़े ओहदों पर रह चुके, संसद सदस्य रहे हुए, कामयाब क्रिकेटर और कॉमेडियन नवजोत सिंह सिद्धू ने सुप्रीम कोर्ट से कल मिली एक साल की कैद बा मुशक्कत पर सरेंडर करने के लिए कुछ हफ्तों का समय मांगा है। सिद्धू के वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने उनकी सेहत का हवाला देते हुए सुप्रीम कोर्ट से यह रियायत मांगी है। सिद्धू को यह सजा 34 बरस पुराने एक मामले में हुई थी जिनमें उन्होंने पार्किंग के झगड़े में एक बुजुर्ग की पिटाई की थी जिसके बाद उसकी मौत हो गई थी। कई अदालतों से सजा पाते और छूटते सिद्धू आखिर में सुप्रीम कोर्ट पहुंचे थे, और वहां भी एक बार बरी हो जाने के बाद जब मृतक के परिवार ने दुबारा पिटीशन लगाई, तो इस ताजा फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने एक साल की कैद सुनाई है। कानून के जानकारों का कहना है कि अभी भी इस मामले में सिद्धू की तरफ से कोई और पिटीशन लगाने की थोड़ी सी संभावना बाकी है, और अगर ऐसी कोई याचिका अदालत में मंजूर होती है तो यह मामला आगे और कई बरस तक टल सकता है, और सिद्धू कई पार्टियों में आ-जा सकते हैं, हिन्दुस्तानी संसद में चाहे न पहुंच पाएं, वे टीवी पर पहुंचकर ठोको ताली कह सकते हैं।

दूसरी तरफ कल की ही एक और खबर है जिसमें छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने 9 बरस से जेल में बंद तीन ऐसे गरीब आदिवासी विचाराधीन कैदियों को रिहा करने का आदेश दिया है जो गरीबी की वजह से अपनी जमानत नहीं करा पा रहे, और 9 साल से मुकदमा झेलते हुए जेलों में बंद हैं। ये बहुत गरीब हैं, परिवार से संपर्क नहीं है, और जमानत की रकम जमा कराने वाले कोई नहीं हैं, इसलिए 2016 में अदालत से मिली सशर्त जमानत की शर्त पूरी करने की हालत में नहीं हैं, और अब हाईकोर्ट ने इन तीनों को व्यक्तिगत बॉंड पर रिहा करने का आदेश दिया है। बहुत कम ही ऐसे जुर्म रहते हैं जिनकी सजा 9 बरस से अधिक की कैद रहती हो, इसलिए इन गरीब आदिवासियों पर चाहे जिस जुर्म का मुकदमा चल रहा हो, शायद सजा मिलने पर जो कैद हो, उससे अधिक कैद वे गुजार चुके होंगे।

हिन्दुस्तान की जेलों में ऐसे बेबस गरीब बड़ी संख्या में बंद हैं जो मुकदमे झेल रहे हैं लेकिन उनकी जमानत नहीं हो पा रही है। और जो ताकतवर लोग सुबूतों को बर्बाद कर सकते हैं, गवाहों को प्रभावित कर सकते हैं, उनके लिए लाखों रूपए फीस लेने वाले अरबपति वकील खड़े होते हैं, बड़ी-बड़ी अदालतों के बड़े-बड़े जज आधी रात को भी अपने बंगले में उनके केस सुनते हैं, और उन्हें तुरंत ही जमानत या अग्रिम जमानत मिल जाती है। एक ही किस्म के जुर्म के आरोपों पर अलग-अलग ताकत के लोगों के बीच कानून का फायदा पाने, उससे रियायत पाने में जितना बड़ा फर्क हिन्दुस्तान में दिखता है वह किसी भी लोकतंत्र के लिए बहुत शर्मनाक नौबत है। कोई विकसित लोकतंत्र ऐसा नहीं हो सकता जिसमें कमजोर की पूरी जिंदगी मुकदमे का सामना करते निकल जाए, बिना जमानत जेल में निकल जाए, और ताकतवर और पैसे वाले मुजरिम सजा पाने के बाद भी कानून से लुका-छिपी खेलते रहें। देश की एक बड़ी कंपनी, जो कि देश भर में मुकदमे झेल रही है, उसके चार बड़े डायरेक्टरों को अभी छत्तीसगढ़ पुलिस गिरफ्तार करके लाई, और जेल पहुंचते ही कुछ घंटों के भीतर वे चारों एक साथ अस्पताल पहुंच गए। जेल की जगह अस्पताल में रहने में बहुत सी सहूलियत रहती है, और हर ताकतवर या पैसे वाले कैदी बिजली की रफ्तार से यह सहूलियत पा जाते हैं।

हिन्दुस्तान में आर्थिक असमानता सिर चढक़र बोलती है। लेकिन पढ़ाई, इलाज, नौकरी, या चुनावी जीत की संभावनाओं से भी अधिक बढक़र यह असमानता अदालतों में दिखती है जहां गरीब से जेल में भी अमीर कैदियों की खातिरदारी करवाने के लिए बंधुआ मजदूरों सरीखा काम लिया जाता है। उसे आराम के लिए अस्पताल नसीब होना तो दूर रहा, जरूरी इलाज भी नसीब नहीं होता, उसके मामले की पेशी पर उसे अदालत ले जाने के लिए पुलिस नहीं मिलती, अदालत पहुंचकर भी उसका मामला आगे नहीं खिसकता, क्योंकि गरीब विचाराधीन कैदी भारतीय लोकतंत्र के हाथ गरम करने की ताकत नहीं रखते। हमारा ऐसा मानना है कि भारतीय लोकतंत्र में अगर लोगों की आस्था न्यायपालिका पर से खत्म करवानी है, तो उन्हें किसी मुकदमे में उलझाकर अदालती चक्कर लगवाए जाएं, वहां पर इंसाफ के नाम पर बेइंसाफी दिखाई जाए, वहां पैसों की ताकत का नंगा नाच उसे देखने मिले, और मुकदमा खत्म होने के पहले लोकतंत्र में उसकी आस्था खत्म हो जाए।

अमरीका जैसे देश में काले लोगों पर चल रहे मुकदमों में उनका कानूनी साथ देने के लिए सामाजिक संगठन बने हुए हैं जो कि उनके हक के लिए लड़ते हैं। लेकिन हिन्दुस्तान में जहां पर आमतौर पर दलित, आदिवासी, और मुस्लिम मुकदमों के सबसे अधिक शिकार हैं, वहां पर इन तबकों के हक के लिए लडऩे वाले कोई संगठन सुनाई नहीं पड़ते। सामाजिक बराबरी तो तभी आ सकती है जब लोगों को उन पर लगाए गए आरोपों से निपटने के लिए बराबरी का मौका मिले। भारतीय न्याय व्यवस्था में तो ऐसी किसी बराबरी की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस देश में और इसके तमाम प्रदेशों में हर बड़े राजनीतिक दल से जुड़े हुए बहुत से वकील हैं, लेकिन किसी पार्टी ने भी अब तक गरीबों की कानूनी मदद के लिए कोई कार्यक्रम नहीं बनाया है, किसी सत्तारूढ़ पार्टी ने भी नहीं, और न ही किसी विपक्षी पार्टी ने। आमतौर पर किसी भी पार्टी के बड़े नेता के फंसने पर उसे बचाने के लिए अरबपति वकीलों की फौज खड़ी हो जाती है, लेकिन कोई पार्टी अपने प्रभाव के इलाके में सबसे गरीब लोगों की कानूनी मदद की कोई कोशिश नहीं करती।

भारत में आज जाहिर तौर पर कमजोर तबकों, दलित, आदिवासी, मुस्लिम, और महिलाओं की कानूनी हिफाजत के लिए ऐसे मजबूत संगठन बनने और सामने आने चाहिए जो कि उन्हें बराबर का कानूनी हक दिलाने के लिए लड़ाई लड़ें। अमरीका जैसे देश से इस बात की मिसाल ली जा सकती है, और इस देश के जागरूक लोगों में से कुछ का सामने आना जरूरी है, उसके बिना किसी तरह का इंसाफ कमजोर लोगों को नहीं मिल सकेगा, और ताकतवर लोग अदालत से सजा मिलने के बाद भी ताली ठोंकते हॅंसते रहेंगे।
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