मनोरंजन

आनंद: राजेश खन्ना-अमिताभ बच्चन की कालजयी फ़िल्म का रीमेक, कितनी बड़ी चुनौती
22-May-2022 8:46 AM
आनंद: राजेश खन्ना-अमिताभ बच्चन की कालजयी फ़िल्म का रीमेक, कितनी बड़ी चुनौती

इमेज स्रोत,POSTER/SHEMAROO, आनंद मरा नहीं, आनंद मरते नहीं.

-प्रदीप सरदाना

फ़िल्मकार एन सी सिप्पी और हृषिकेश मुखर्जी की फ़िल्म 'आनंद' जब सन 1971 में प्रदर्शित हुई, तब ये संवाद फ़िल्म का महज़ एक संवाद था. लेकिन अब ये संवाद एक हक़ीक़त है, एक सच बन चुका है.

रिलीज़ होने के क़रीब पांच दशक बाद जब हाल ही में एन सी सिप्पी के पोते समीर राज सिप्पी ने 'आनंद' का रीमेक बनाने की घोषणा की तो सोशल मीडिया पर प्रतिक्रियाओं का सैलाब आ गया.

बहुत लोग सोचते थे कि नई पीढ़ी के लोगों को अब भला 'आनंद' कहाँ पता होगी. लेकिन इंटरनेट पर सर्वाधिक देखी जाने वाली कालजयी हिंदी फिल्मों में 'आनंद' शीर्ष की 15 ख़ूबसूरत फ़िल्मों में आकर आज भी करोड़ों दर्शक बटोर रही है. इससे यह साफ़ होता है कि जिन लोगों का 'आनंद' के प्रदर्शन के समय जन्म भी नहीं हुआ था, ऐसे युवा भी 'आनंद' को देख, उसे पसंद कर रहे हैं.

इसलिए बहुत से दर्शक यह मान रहे हैं कि 'आनंद' का रीमेक बनाना आसान नहीं है.'आनंद' जैसी उत्कृष्ट फिल्म आज फिर कोई नहीं बना सकता. ये तय है कि समीर सिप्पी के लिए 'आनंद' का रीमेक बनाना एक बहुत बड़ी चुनौती रहेगी.

आनंद के बनने की कहानी
असल में 'आनंद' हिंदी सिनेमा की एक ऐसी शानदार फ़िल्म है, जो बनती नहीं, बन जाती हैं. इस फिल्म की जितनी प्रशंसा की जाए कम है.

एक ऐसी फ़िल्म जिसका निर्माण,निर्देशन,कहानी,पटकथा संवाद और संपादन सभी कुछ श्रेष्ठ है. वहां फिल्म के कलाकारों का अभिनय तो ऐसा गज़ब है कि सभी पात्र जीवंत हो उठते हैं.

'आनंद' के साथ यूँ तो कितनी ही अविस्मरणीय बातें जुड़ी हैं. लेकिन एक बात जो सबसे पहले आती है, वह यह कि यह राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन की साथ में पहली फ़िल्म थी.

जब 1970 में 'आनंद' का निर्माण शुरू हुआ तब तक राजेश खन्ना देश के पहले सुपर स्टार बनकर लोकप्रियता की बुलंदियां छू रहे थे.

सन 1969 में फिल्म 'आराधना' की अपार सफलता ने राजेश खन्ना की ऐसी धूम मचाई कि बड़े-बड़े सूरमा अभिनेता भी दंग रह गए.

'आनंद' से पहले ही राजेश खन्ना 'दो रास्ते, 'इत्तेफ़ाक़', 'सच्चा झूठा, 'आन मिलो सजना, 'सफ़र, 'ख़ामोशी' और 'कटी पतंग' जैसी सुपर हिट फ़िल्में अपने नाम दर्ज कर बॉक्स ऑफिस पर कामयाब हो चुके थे.

जब 12 मार्च 1971 को 'आनंद' प्रदर्शित हुई तब तक अमिताभ बच्चन की पहली फिल्म 'सात हिन्दुस्तानी' (1969) ही प्रदर्शित हुई थी. इसलिए 'आनंद' के समय वह नए से ही थे.

अमिताभ बच्चन ने 'आनंद' की रिलीज के दिन का किस्सा साझा करते हुए कुछ समय पहले कहा था- उस दिन उन्होंने स्वामी विवेकानंद मार्ग, मुंबई के इरला पेट्रोल पंप से जब सुबह अपनी कार में पेट्रोल भरवाया, तब उन्हें वहां कोई नहीं पहचानता था.

लेकिन जब वह देर शाम को फिर से उसी पेट्रोल पम्प पर पेट्रोल लेने के लिए रुके तो लोग उन्हें पहचान कर -'बाबू मोशाय, बाबू मोशाय' कहने लगे.

एन सी सिप्पी और हृषिकेश मुखर्जी की जोड़ी का कमाल
निर्माता एन सी सिप्पी और निर्देशक हृषि दा की फ़िल्मी जोड़ी ऐसी थी, जिसने मिलकर कई ऐसी फ़िल्में बनायीं, जिन पर भारतीय सिनेमा सदा गर्व करेगा.

इस जोड़ी की पहली फिल्म यूँ तो 1968 में ही आ गयी गई-'आशीर्वाद'.यह फिल्म काफी पसंद की गई. यहाँ तक कि बाद में राजेश खन्ना ने 
'आनंद', सिप्पी-मुखर्जी की जोड़ी की दूसरी फिल्म थी. इसके बाद तो इन दोनों का साथ इतना मधुर और मज़बूत हुआ कि दोनों ने मिलकर कई शानदार फ़िल्में बनाईं. जैसे 'बावर्चीट, 'चुपके चुपके' 'मिली', 'गोलमालट और 'ख़ूबसूरत'.

'आनंद' फ़िल्म की कहानी
'आनंद' फ़िल्म में पांच मुख्य पात्र हैं.आनंद सहगल, डॉ. भास्कर बनर्जी उर्फ़ बाबू मोशाय, डॉ. प्रकाश कुलकर्णी, सुमन कुलकर्णी और रेणु. इन भूमिकाओं को क्रमश: राजेश खन्ना,अमिताभ बच्चन,रमेश देव,सीमा देव और सुमिता सान्याल ने बखूबी निभाया है.

फिल्म की कहानी फ्लैश बैक में उस समारोह से शुरू होती है जहाँ कैंसर विशेषज्ञ डॉक्टर भास्कर को उनकी पुस्तक 'आनंद' के लिए सरस्वती पुरस्कार से सम्मानित किया जा रहा है.

तब भास्कर, दिल्ली से मुंबई आये अपने एक कैंसर रोगी आनंद की कथा बताते हैं. जिसकी आंत में लिम्फ़ोसरकोमा यानी कैंसर है. वह भी अंतिम चरण में जहाँ वह अधिकतम 6 महीने जी सकता है. चिकित्सा विज्ञान में इस रोग का कोई उपचार नहीं है.

कहानी का सबसे बड़ा पहलू यह है कि अपने इस रोग के भयानक सच को जानने के बावजूद आनंद अपनी ज़िन्दगी, इस बेबाकी और मस्त अंदाज़ में जीता है कि सभी हैरान हो जाते हैं. सभी उससे प्यार कर बैठते हैं.

अपनी बातों-हंसी मज़ाक से सभी के दिलों में घर कर लेना वाला आनंद दुनिया को जीने का सलीक़ा सिखाकर, आख़िर एक दिन दुनिया को अलविदा कह देता है.

अभिनय और संवाद से 'आनंद' बनी महान
'आनंद' की कथा बिमल दत्त, हृषि दा, गुलज़ार,डी एन मुखर्जी और बीरेन त्रिपाठी ने मिलकर तैयार की थी. लेकिन यह फिल्म अपनी पटकथा के साथ अपने संवाद और राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन के लाजवाब अभिनय के कारण भी महान बनी.

यूं राजेश खन्ना इससे ठीक पहले 'सफ़र' फिल्म में भी कैंसर रोगी अविनाश की भूमिका कर चुके थे. लेकिन 'आनंद' में आनंद बनकर उन्होंने अपने इस चरित्र को ही नहीं फिल्म को भी शिखर पर पहुंचा दिया.

गुलज़ार ने फिल्म के संवाद तो इतने बेहतरीन लिखे कि आज भी उन संवादों का कोई मुकाबला नहीं है.

''ज़िन्दगी बड़ी होनी चाहिए, लम्बी नहीं''.

''तुझे क्या आशीर्वाद दूँ बहन. यह भी तो नहीं कह सकता कि मेरी उम्र तुझे लग जाए.''

''अपने बंबई शहर का जवाब नहीं. पंजाब,सिंध,गुजरात,मराठा.द्राविड़,उत्कल,बंगा सभी तो यहाँ हैं. अब तो जीना भी बंबई में, मरना भी बंबई में''

'ज़िन्दगी और मौत ऊपर वाले के हाथ में'
'आनंद' फिल्म के अंत के एक संवाद को, अपने अभिनय से राजेश खन्ना ने और भी तो इतना मार्मिक कर दिया था कि पत्थर दिल भी पिघलकर रोने लगते हैं.

''बाबू मोशाय ....ज़िन्दगी और मौत ऊपर वाले के हाथ में हैं जहाँपनाह. उसे ना तो आप बदल सकते हैं ना मैं. हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं,जिनकी डोर ऊपर वाले के उँगलियों में बंधी है. कब कौन कैसे उठेगा यह कोई नहीं बता सकता है. हा हा हा हा.''

ज़िन्दगी और मौत का फ़लसफा समझाने वाले, इस लम्बे संवाद की गूँज, लम्बे अरसे बाद आज भी क़ायम है.

इन संवादों के साथ अभिनेता जॉनी वाकर का एक संवाद जो फ़िल्म के नाम का अर्थ समझाता है, वह है-''वाह-वाह मरते-मरते चेला गुरु को जीना सीखा गया. दुःख अपने लिए रख,आनंद सबके लिए.''

पुरस्कारों की लग गयी गई झड़ी
'आनंद' एक ऐसी फिल्म है. जिसमें जहाँ हास्य के ढेरों दृश्य हैं तो ऐसे दृश्यों की भी कमी नहीं, जहाँ दर्शक रह-रह कर जमकर रोते हैं.

यह फिल्म कुछ अन्य फिल्मों से काफी अलग है. इस बात का अंदाज़ राजेश खन्ना सहित हृषि दा को पहले ही लग गया था. फिल्म चाहे मार्च 1971 में प्रदर्शित हुई. हृषि दा ने फिल्म को 1970 में ही पूरा करके 30 दिसंबर 1970 को भाग दौड़ करके इसका सेंसर प्रमाण पत्र प्राप्त कर लिया था. जिससे फिल्म को उसी वर्ष के 'राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों' की प्रतियोगिता में भेजा सके.

हृषि दा की सोच सही साबित हुई.'आनंद' को 1971 में सर्वश्रेष्ठ हिंदी फ़ीचर फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त हुआ.

इतना ही नहीं,1972 के 19 वें फ़िल्मफेयर पुरस्कारों में 'आनंद' को 7 नामांकन में से 6 पुरस्कार मिले. सर्वश्रेष्ठ फिल्म,सर्वश्रेष्ठ अभिनेता राजेश खन्ना,सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता अमिताभ बच्चन,सर्वश्रेष्ठ संवाद गुलज़ार,सर्वश्रेष्ठ कहानी और सम्पादन हृषिकेश मुखर्जी.

राजेश खन्ना ने मुफ्त में किया काम
राजेश खन्ना के इस राज़ को आज गिने चुने लोग ही जानते हैं कि राजेश खन्ना इस फिल्म में काम करने के लिए मुफ्त में तैयार हो गए थे.

हालांकि राजेश खन्ना से पहले धर्मेन्द्र और किशोर कुमार को आनंद की भूमिका देने की चर्चा चली थी. लेकिन जो एक और सच सामने नहीं आया वह ये है कि सिप्पी-मुखर्जी आनंद के लिए शशि कपूर के नाम पर अपनी सहमति बना चुके थे.

उसी दौरान काका राजेश खन्ना को 'आनंद' को लेकर ख़बर मिली कि हृषि दा एक कमाल की पटकथा पर फ़िल्म बना रहे हैं. काका उस समय ऐसे सुपर स्टार थे कि उनकी लगातार 12 फ़िल्में सुपर हिट हो चुकी थीं.

हर कोई उन्हें मुंह-मांगे दाम पर अपनी फ़िल्म में लेना चाहता था. लेकिन तभी काका, हृषि दा और सिप्पी के पास जाकर बोले-''आप 'आनंद' बना रहे हैं और आपने मुझसे पूछा तक नहीं ?''

इस पर एनसी सिप्पी ने कहा- ''आपकी फीस इतनी ज़्यादा है कि मैं आपको अफोर्ड नहीं कर सकता''. इस पर काका ने कहा- ''आपसे पैसे मांग कौन रहा है. मैं इस फ़िल्म में मुफ्त में काम करने को तैयार हूँ.''

एनसी सिप्पी के बेटे और जाने माने फ़िल्मकार राज एन सिप्पी से मैंने इस सम्बन्ध में बात की तो वह बोले, "बिल्कुल काका ने 'आनंद' में मुफ्त काम करना स्वीकार किया था. लेकिन हमारे डैडी उसूलों वाले व्यक्ति थे. उन्होंने काका से कहा, आपने हमारा मान रखा है. लेकिन हम भी आपका मान रखेंगे. 'आनंद' के लिए आप कोई पैसा नहीं ले रहे तो हम इसके बदले आपको मुंबई टेरेटरी ( मुंबई क्षेत्र में प्रदर्शन के अधिकार) मुफ्त में देंगे.''

सिप्पी ने काका को 'आनंद' का मुंबई वितरण क्षेत्र मुफ्त में दिया. फ़िल्म सफल होने से काका को इससे अच्छी कमाई हुई.

सिर्फ दो फिल्मों में रहा काका-अमिताभ का साथ
काका के बारे में अमिताभ बच्चन के साथ मनमुटाव की कई कहानियाँ हैं. 'आनंद' के बाद ये दोनों सिर्फ एक और फिल्म 'नमक हराम' में ही साथ काम कर सके. यह फिल्म भी हृषि दा की थी.उसके बाद बाद ये दो दिग्गज सितारे फिर कभी साथ काम नहीं कर सके.

यूँ 'आनंद' की सफलता से अमिताभ को फ़िल्में तो कई मिल गयीं. लेकिन 'आनंद' के दो बरस बाद तक अमिताभ की 7 फ़िल्में फ्लॉप होती गयीं. लेकिन 'आनंद' और 'बॉम्बे टू गोवा' में उनका काम प्राण साहब ने देखा तो वह अमिताभ से अच्छे खासे प्रभावित हुए.

प्राण के कहने पर प्रकाश मेहरा ने ये दोनों फ़िल्में देखकर अमिताभ को 'जंजीर' का नायक बना दिया. बस उसके बाद जो इतिहास बना, उसे सभी जानते ही हैं.

राजेश खन्ना-अमिताभ को लेकर बातें चाहे कुछ भी हों. लेकिन दोनों अभिनेताओं ने हर सार्वजनिक मंच पर एक दूसरे का भरपूर सम्मान किया है. लेकिन राजेश खन्ना कितने पारखी थे कि नए-नवेले अमिताभ की प्रतिभा को काका ने शुरू में ही पहचान लिया था.

राज सिप्पी बताते हैं- 'आनंद' की शूटिंग के दौरान काका ने अमिताभ के साथ काम करने के 7 वें दिन कह दिया था-''इस लंबू से बचकर रहना पड़ेगा. बहुत काबिल है यह लड़का.''

काका का यह अंदाज़ा सच निकला. जब अमिताभ सफल हुए तो काका करियर ढलान पर जाने लगा.

हालांकि 'आनंद' में राजेश खन्ना ने जो रोल किया वह अनुपम है. अपने मासूम चेहरे और भोली मुस्कान के साथ किये अभिनय और अंदाज़ से, वह हर दृश्य में दर्शकों के दिलों में घर करते चले जाते हैं.

'आनंद' फिल्म में नायक आनंद की कोई नायिका नहीं थी. फिल्म का नायक अंत में मर भी जाता है. फिर भी हृषि दा ने इस फिल्म को जिस साहस और आत्मविश्वास से बनाया, वैसी मिसाल कम ही मिलती हैं.

'आनंद' की ख़ास बात यह भी थी कि फिल्म में छोटी-छोटी भूमिकाओं में भी ललिता पवार, दुर्गा खोटे, जॉनी वाकर, दारा सिंह,असित सेन जैसे दिग्गज सितारों ने कमाल का काम किया. रमेश देव और सीमा देव दंपत्ति की तो यह यादगार फ़िल्म थी.

फिल्म में अमिताभ बच्चन के अपोजिट अभिनेत्री सुमिता सान्याल थीं. सुमिता बांग्ला सिनेमा की तो चर्चित अभिनेत्री रही हैं. लेकिन हिंदी में उन्होंने आशीर्वाद, गुड्डी और मेरे अपने जैसी कुछेक हिंदी फ़िल्में ही और की हैं.

इधर जब 50 साल बाद भी 'आनंद' को शिद्दत से याद किया जा रहा है तो यह देख कर दुःख होता है कि इस फिल्म से जुड़े सभी लोगों में अब सिर्फ अमिताभ बच्चन, गुलज़ार, सीमा देव जैसे कुछेक व्यक्ति ही हमारे बीच हैं.

अमिताभ के घर में भी हुई शूटिंग
'आनंद' फिल्म की शूटिंग सिर्फ 28 दिन में पूरी हो गई थी. फिल्म की ज्यादातर शूटिंग मुंबई के मोहन स्टूडियो में हुई थी.

दिलचस्प बात यह है कि इस फिल्म की शूटिंग अमिताभ बच्चन के घर 'जलसा' में भी हुई थी. हालांकि तब वह जलसा नहीं, एनसी सिप्पी का बँगला 'बिंदिया' था. अमिताभ ने बहुत बाद में इस बंगले को ख़रीदा था.

'आनंद' अपने दिलकश, मर्मस्पर्शी गीत-संगीत के लिए भी अमर है. यूँ तो सलील चौधरी के संगीत में चार गीत हैं. जिनमें दो गुलज़ार के हैं-''मैंने तेरे लिए'' और 'ना जिया लागे ना''.

हालांकि 'आनंद' के जो दो गीत सर्वाधिक लोकप्रिय हुए वे योगेश के हैं. एक मन्ना डे का गाया -ज़िन्दगी कैसी है पहेली. दूसरा मुकेश का गाया -कहीं दूर जब दिन ढल जाए.

योगेश के इन दोनों गीतों को अधिक लोकप्रियता मिलने से गुलज़ार सरीखे गीतकार योगेश से उन्नीस रह गए थे.

योगेश को जब गीत के लिए मिले 2500 रुपये
दिलचस्प बात यह है कि हाल कुछ ऐसे बन गए थे कि योगेश के गीत इस फिल्म में होते ही नहीं. असल में जिस धुन पर 'ना जिया लागे ना' गीत है, उस धुन पर गीत लिखने का जिम्मा सलिल दा ने गुलज़ार और योगेश दोनों को दिया था.लेकिन सलिल चौधरी ने गुलज़ार के 'ना जिया लागे ना' को ज्यादा पसंद कर, उसे रख लिया.

लेकिन योगेश ने भी इस धुन पर कोई और गीत लिखा था.इसलिए सिप्पी ने योगेश को उसके पारिश्रामिक के रूप में 2500 रूपये का चेक थमा दिया.

इस पर योगेश ने कहा-''जब मेरा गीत आपने लिया ही नहीं तो मैं इसके पैसे नहीं लूँगा.''

यह देख सिप्पी को दुःख हुआ. उन्होंने सलिल दा को कहा,''योगेश एक ईमानदार और मेहनतकश लड़का है. उसे कोई और धुन दो, उसे भी एक गीत तो हमने देना ही है.''

इसके बाद एक और धुन पर योगेश ने 'ज़िन्दगी कैसी है पहेली' गीत लिखा तो वह सभी को बहुत पसंद आया. राजेश खन्ना ने कहा यह गीत तो मुझ पर ही फ़िल्माना चाहिए.

इस एक अच्छे गीत को देख सभी की सलाह पर, सलिल दा ने योगेश को एक और गीत लिखने के लिए, अपने एक बांग्ला गीत की धुन दी.

वह बांग्ला गीत था-''अमांए प्रश्नो करे नील ध्रुब तारा''. इस गीत की धुन पर योगेश ने 'कहीं दूर जब दिन ढल जाए' गीत लिखा तो उसे सुन सभी ने योगेश की प्रतिभा का लोहा मान लिया.

योगेश के साथ बरसों समर्पित रहे गायक सत्येंद्र त्रिपाठी, इस गीत को लेकर एक बेहद ख़ास बात बताते हैं-''इस गीत में 'कहीं तो ये दिल कभी मिल नहीं पाते,कहीं से निकल आये जन्मों के नाते', एक मर्मस्पर्शी अंतरा योगेश जी ने एक दिन तब और जोड़ दिया जब उनके परम मित्र सत्य प्रकाश तिवारी उनके सामने बैठे थे.

त्रिपाठी बताते हैं, ''योगेश जी अपने मित्र सत्य प्रकाश को सत्तू कहते थे. योगेश ने जब तक सत्तू के लिए ये पंक्तियां समर्पित कीं तो तब तक सत्तू घर की सीढ़ियां उतर काम के लिए निकल पड़े थे.''

योगेश जी ने तुरंत उनके पीछे पहुँच सीढ़ियों में ये पंक्तियाँ सुनायीं. तो सत्तू भावुक हो गए. वह योगेश जी को गले लगाकर बोले ,''लल्ला तेरा ये गीत कभी भुलाए नहीं भूलेगा.''

सिर्फ चार घंटे में हुआ पहेली गीत का फिल्मांकन
योगेश के ये दोनों गीत भारतीय फ़िल्म संगीत इतिहास में मील का पत्थर बन चुके हैं. 'ज़िन्दगी कैसी है पहेली' तो काका के व्यक्तिगत जीवन की व्यथा कथा भी दर्शाता है. इस फ़िल्म के क़रीब 40 साल बाद काका ने स्वयं कैंसर से दम तोडा.

उधर इस गीत के फिल्मांकन का भी दिलचस्प क़िस्सा है. 'ज़िन्दगी कैसी है पहेली' की शूटिंग के लिए काका जब सवेरे मुंबई के मड आइलैंड समुद्र किनारे पहुंचे तो उन्होंने हृषि दा से कहा,''दादा आज मुझे 4 घंटे बाद ही जाना पड़ेगा.''

हृषि दा काका की बात सुन चुप हो गए. काका तब हैरान रह गए जब हृषि दा ने काका के साथ इस गीत की शूटिंग सिर्फ 4 घंटे में पूरी कर दी. सिर्फ 4 घंटे में फिल्मांकित वह गीत 5 दशक बाद भी उतना ही लोकप्रिय है जितना पहले था.

चलते चलते 'आनंद' की एक ख़ास बात और. यह फिल्म राज कपूर और बॉम्बे शहर को समर्पित है. मुंबई शहर इसलिए कि यहाँ दूर-दूर से अंजान लोग आकर जन्मों के नातों में बंध जाते हैं.

राज कपूर को इसलिए क्योंकि ऋषिदा के साथ 'अनाड़ी' फिल्म करते हुए, राज कपूर ऋषिदा को 'बाबू मोशाय' कहकर बुलाने लगे थे. हृषि दा को राज कपूर का बाबू मोशाय कहना इतना पसंद आया कि जब वह 'आनंद' की कहानी लिखने बैठे तो उन्होंने अमिताभ बच्चन को बाबू मोशाय बना दिया.

यह संयोग है कि 'आनंद' के दो बरस बाद अमिताभ बच्चन जया भादुड़ी से शादी करके स्वयं बंगाली परिवार से जुड़ 'बाबू मोशाय' ही बन गए.

अमिताभ चाहे फिल्मों में जय और विजय जैसे अपने चरित्रों से भी जाने जाते हैं. लेकिन वह आज भी सर्वाधिक लोकप्रिय 'बाबू मोशाय' के रूप में ही हैं. बाबू मोशाय भी मरा नहीं, बाबू मोशाय मरते नहीं. (bbc.com)

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news