संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : नीचे का यह पहला पैरा, और उसके आगे की बात
23-May-2022 5:47 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : नीचे का यह पहला पैरा, और उसके आगे की बात

देश में यह बहस चल रही है कि किस तरह बहुसंख्यक आबादी के मुकाबले अल्पसंख्यक आबादी बढ़ते चल रही है, और कितने दशक में वह आज की बहुसंख्यक आबादी को पार कर जाएगी। इसे देश के भीतर आज के अल्पसंख्यकों में अधिक प्रजनन दर से भी जोडक़र देखा जा रहा है, और देश की सरहद के पार से आकर वैध या अवैध रूप से बसने वाले लोगों की वजह से बढ़ती हुई आबादी भी माना जा रहा है। इन दोनों ही मिलीजुली वजहों से ऐसा अंदाज लगाया जा रहा है कि आज की बहुसंख्यक आबादी 2045 तक बहुसंख्यक नहीं रह जाएगी, वह आधे से कम रह जाएगी, वह सबसे बड़ा तबका तो रहेगी, लेकिन बाकी तमाम तबके मिलकर उससे अधिक आबादी के हो जाएंगे। आबादी की शक्ल बदलने के इस अंदाज को एक राजनीतिक साजिश भी करार दिया जा रहा है, और यह व्याख्या फैलाई जा रही है कि वोटों को पाने के लिए कुछ राजनीतिक ताकतें, पार्टियां सोच-समझकर एक साजिश की तरह यह काम कर रही हैं, और आज के अल्पसंख्यक समुदायों को बढ़ावा दे रही हैं, और वैसे ही समुदायों के लोगों को अवैध रूप से या वैध रूप से देश में घुसा भी रही हैं।

जिन लोगों को यह लग रहा होगा कि आज हम भारत की यह चर्चा क्यों कर रहे हैं, उन्हें यह जानकर हैरानी होगी कि यह हिन्दुस्तान नहीं, अमरीका के बारे में है। वहां पर श्वेत नस्लवादी समूहों के बीच, उनके द्वारा चारों तरफ यह व्याख्या बरसों से फैलाई जा रही है कि वहां के गोरे अमरीकियों के मुकाबले काले और दूसरे अश्वेत तबके बढ़ते जा रहे हैं, और वे आने वाले दशकों में गोरे अमरीकियों को बहुसंख्यक नहीं रहने देंगे। इस प्रोपेगंडा को इतने हिंसक तरीके से फैलाया जा रहा है कि अभी एक अठारह बरस के गोरे नौजवान ने इसी सिद्धांत को मानते हुए, इसी पर लिखी गई अपनी डायरी और अपने बयान को ऑनलाईन पोस्ट करते हुए, बंदूक और कैमरे से लैस होकर, ऑनलाईन लाईव प्रसारण करते हुए दस काले लोगों को मार डाला। अमरीका में इस सोच को रिप्लेसमेंट थ्योरी कहा जाता है, और यह गोरे नस्लवादी लोगों के लिए उनके सबसे बड़े धार्मिक ग्रंथ की तरह है। डोनल्ड ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी इसी थ्योरी को बढ़ावा देते हुए गोरे अमरीकियों को एक करने में लगी रहती है, और इसी वजह से गोरे नस्लवादी हिंसक समूहों के बीच रिपब्लिकन पार्टी पसंदीदा तो है ही, इसके अधिक नस्लवादी नेता, डोनल्ड ट्रंप ऐसे हिंसक समूहों के आदर्श नायक भी रहे हैं। यहां यह समझने की जरूरत है कि हिंसक गोरे नस्लवादियों का यह विरोध एक समय काले लोगों के खिलाफ शुरू हुआ था, फिर वह सभी किस्म के गैरगोरों को निशाने पर लेकर चलते रहा, और अब तो उसने अमरीका में बसे हुए यहूदियों को बहुत बड़ा खतरा माना है, और वह उनके भी खिलाफ हिंसक तेवरों के साथ सोशल मीडिया, और सडक़ों पर बराबरी से लगा हुआ है।

अब एक गोरे नस्लवादी जवान ने हर अमरीकी को आसानी से हासिल भारी खतरनाक ऑटोमेटिक हथियार की सहूलियत का इस्तेमाल करके छांट-छांटकर एक काले इलाके में डेढ़ दर्जन लोगों को गोलियां मारी, और उसमें से दस लोग मारे गए, उस खतरे को हिन्दुस्तान जैसी जगह पर भी समझने की जरूरत है जहां पर हथियार इतनी आसानी से हासिल नहीं है। लेकिन लोगों को यहां पर हिंसक सोच को रखने और उससे गौरवान्वित हुए घूमने की आजादी हासिल है। लोगों को याद रखना चाहिए कि आजाद हिन्दुस्तान के पहले आतंकी नाथूराम गोडसे ने गांधी की हत्या की, तो उसे कई लोगों का साथ और सहयोग हासिल था। उसने भी एक साम्प्रदायिक नफरत की सोच लिए हुए इस देश के सबसे महान इंसान को मारा था। उस वक्त अमरीका में ग्रेट रिप्लेसमेंट थ्योरी लिखी भी नहीं गई थी, लेकिन वह नस्लवादी नफरत और हिंसा की शक्ल में जर्मनी के हिटलर से हासिल थी, और हिन्दुस्तान के भीतर भी उस सोच की एक मौलिक जगह थी। आज यह समझने की जरूरत है कि अमरीका में अठारह बरस का एक नौजवान दुनिया के सबसे अधिक मौकों वाले देश में नफरत के चलते जिस किस्म का हत्यारा बनने में गौरव हासिल कर रहा है, उस किस्म का हत्यारा बनने का गौरव हिन्दुस्तान में भी जगह-जगह देखने मिल रहा है। लोगों को याद होगा कि राजस्थान में एक मुस्लिम को जिंदा जलाकर मारने वाले ने उसका वीडियो बनाकर खुद ही फैलाया था, उसमें और इस अमरीकी नौजवान में फर्क सिर्फ ऑटोमेटिक रायफल की उपलब्धता का था। अभी दो दिन पहले मध्यप्रदेश में जिस तरह एक भाजपा नेता ने मुस्लिम होने के शक में एक मानसिक विचलित बुजुर्ग जैन को पीट-पीटकर मार डाला, उसकी सोच में अगर अमरीकी हथियार को जोड़ दिया जाए, तो वह भी धर्म के आधार पर दर्जन भर लोगों को मार डालने की मानसिकता तो रखता था।

हम हिन्दुस्तान के सिलसिले में इस बात को इसलिए उठा रहे हैं कि आज देश के करोड़ों नौजवानों को नस्लवादी नफरत से लैस किया जा रहा है। ग्रेट रिप्लेसमेंट थ्योरी उन्हें पढ़ाई जा रही है, बचपन से ही चुनिंदा स्कूलों में यह बात उनके दिमाग में भरी जा रही है, सोशल मीडिया पर भाड़े के लोगों से या समर्पित लोगों से इस थ्योरी का कीर्तन करवाया जा रहा है, और ढोल-मंजीरे पर झूमते हुए सिर इस थ्योरी से ब्रेनवॉश हुए चल रहे हैं। जिस तरह गोमांस के शक में मुस्लिमों, दलितों, और आदिवासियों को मारा जा रहा है, वह इसी थ्योरी का नतीजा है। अब यह समझने की जरूरत है कि जिन बड़े-बड़े नेताओं ने देश के करोड़ों अनपढ़ या शिक्षित, बेरोजगार या छोटी-मोटी नौकरी करने वाले नौजवानों को इस नस्लवादी हिंसा में झोंक दिया है, उनकी अपनी औलादें दुनिया की सबसे बड़ी या महंगी यूनिवर्सिटी से महंगी तालीम पाकर आती हैं, और हिन्दुस्तान या कहीं और करोड़ों कमाती हैं। झंडे-डंडे और त्रिशूल लेकर सडक़ों पर झोंकने के लिए इन नेताओं की औलादें मौजूद नहीं हैं क्योंकि वे उनके प्रति जिम्मेदार अपने मां-बाप की मेहनत से ऊंची पढ़ाई करके जिंदगी में ऊपर पहुंचने में लग गई हैं। दूसरी तरफ हिन्दुस्तानी ग्रेट रिप्लेसमेंट थ्योरी पढ़-पढक़र सडक़ों पर नफरत का सैलाब फैलाने वाले लोग अमरीका के बफेलो में अभी दस काले लोगों को मारने वाले गोरे नौजवान की तरह ढलने के लिए तैयार हो रहे हैं।

हिन्दुस्तान में आज ऐसी हिंसक सोच, और शायद उसकी प्रतिक्रिया में पैदा होने वाली दूसरे तबकों की ऐसी ही हिंसक सोच को महज लाइसेंसी हथियार ही तो हासिल नहीं हैं, बाकी तो भीड़त्या करने के लिए उनके पास लाठियां ही काफी हैं, और काफी लाठियां हर जगह मौजूद हैं। यह बात समझने की जरूरत है कि इस देश के भीतर और इस देश के बाहर कई किस्म के आतंकी संगठन काम कर रहे हैं, और ऐसे संगठन अमरीका की बंदूकों के मुकाबले अधिक बड़ा खून-खराबा करने के विस्फोटक हथियार लोगों को मुहैया करा सकते हैं, और पूरे देश में आबादी के बीच अगर मरने और मारने का ऐसा मुकाबला चल निकलेगा, धर्म के आधार पर हिंसा का सैलाब धमाकों का साथ पाने लगेगा, तो क्या होगा? आज जिन लोगों को अपने मजबूत मकानों में अपने को महफूज महसूसने की खुशफहमी है, वह खुशफहमी किसी एक धमाके से खत्म हो सकती है। हम अफगानिस्तान, पाकिस्तान जैसे अनगिनत देशों में धर्मान्धता के चलते जैसे आत्मघाती विस्फोट देखते हैं जिनमें एक-एक में सौ-पचास लोग मारे जाते हैं, क्या हम इस देश को उस तरफ बढ़ाना चाहते हैं? इस लिखे हुए को कोई धमकी या चेतावनी मानना एक नासमझी होगी क्योंकि हम एक खतरे के अंदेशे के प्रति लोगों को सजग करना अपनी जिम्मेदारी समझ रहे हैं। हिन्दुस्तान में यह नस्लवादी हिंसक धर्मान्धता का सिलसिला खत्म होना चाहिए, वरना यहां के कुछ नौजवान अमरीका के बफैलो के नौजवान से प्रेरणा पा सकते हैं, कुछ लोग अफगानिस्तान-पाकिस्तान के आत्मघाती दस्तों से प्रेरणा पा सकते हैं, और उस दिन देश में किसी तबके के कोई लोग सुरक्षित नहीं रह जाएंगे।
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