संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बवंडर में फंसी दुनिया के बीच इतिहास में पहुंचकर गौरव में जीते हिन्दुस्तानी!
24-May-2022 4:40 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  बवंडर में फंसी दुनिया के बीच इतिहास में पहुंचकर गौरव में जीते हिन्दुस्तानी!

पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था एक बवंडर में फंसी हुई दिख रही है। जाहिर तौर पर रूस के यूक्रेन पर हमले के बाद दोनों के बीच छिड़ी जंग एक बड़ी वजह है क्योंकि ये दोनों ही देश गेहूं, खाने के तेल, मक्का, रासायनिक खाद के अलावा भी बहुत सी चीजों के बड़े निर्यातक देश थे, और आज यूक्रेन के बंदरगाहों पर अनाज फंसा हुआ है, गोदाम भरे हुए हैं, लेकिन जंग के चलते जहाजों की आवाजाही बंद है। एक अंदाज यह है कि यूक्रेन से चालीस करोड़ लोगों को अनाज पहुंचता था, जो कि अब बंद है, और यह जंग कब तक चलेगी इसका कोई ठिकाना भी नहीं है। दुनिया की अर्थव्यवस्था के बवंडर में फंसने की एक-दो और वजहें भी हैं। कोरोना की महामारी, और उससे जुड़े लॉकडाउन के चलते दुनिया के तमाम देशों की अर्थव्यवस्था चौपट हुई है, और श्रीलंका-पाकिस्तान सहित सत्तर ऐसे देश हैं जो अपनी किस्त चुकाने की हालत में नहीं हैं। इसके ऊपर यह मुसीबत भी आ खड़ी हुई है कि चीन ने कोरोना को लेकर जितने कड़े लॉकडाउन की नीति अपनाई है, उसका सबसे बड़ा कारोबारी शहर, शंघाई हफ्तों से पूरे लॉकडाउन में चल रहा है, और चीन से कारोबारी संबंधों वाले देशों पर भी बुरा असर पड़ा है क्योंकि वहां से कच्चा माल और पुर्जे निकलना बुरी तरह प्रभावित हुआ है, और जाने कब तक यह जारी रहेगा। एक अर्थशास्त्री के मुताबिक ऐसी ही बाकी सारी मुसीबतों के बीच में क्रिप्टोकरेंसी का बाजार भी चौपट हो गया है, और उसमें भी बहुत से कारोबारी डूब सकते हैं। ऐसे में हिन्दुस्तान पूरी दुनिया में बढ़ती हुई महंगाई के साथ-साथ उसकी मार खा रहा है, और लोगों के लिए रोज की जिंदगी जीना भी मुश्किल हो गया है। देश की अर्थव्यवस्था के आंकड़े एक अलग बात रहते हैं क्योंकि वे अम्बानी-अडानी और बेरोजगारों की कमाई को मिलाकर उसका एक औसत पेश करते हैं, और इन आंकड़ों में हिन्दुस्तान अभी बहुत बुरी हालत में नहीं दिख रहा है, कम से कम दुनिया के और देशों के मुकाबले वह ठीक-ठाक हालत में दिख रहा है।

लेकिन इस तस्वीर को समझते हुए यह भी देखने की जरूरत है कि दुनिया के बहुत से देश कुपोषण और भुखमरी के इस बुरी तरह शिकार हैं, कि वे उसी से नहीं उबर पा रहे हैं, इसलिए वैसे देशों के साथ हिन्दुस्तान की तुलना जायज नहीं होगी, जो कि अपने आपको विकासशील देशों से ऊपर मानता है। दूसरी तरफ दुनिया के बहुत से विकसित और संपन्न देशों की अर्थव्यवस्था इतनी मजबूत है कि वहां के सबसे गरीब लोग भी हिन्दुस्तान के गरीब लोगों के मुकाबले बिल्कुल ही अलग दर्जे के हैं, और वहां सबसे गरीब और बेरोजगार भी ऐसी दिक्कतें नहीं झेलते हैं जैसी कि हिन्दुस्तान में ऐसे तबकों के लोग झेलते हैं। इसलिए अर्थव्यवस्थाओं और देशों की तुलना आसान नहीं है, और पिछले दो-तीन बरस में उनमें क्या तुलनात्मक फर्क पड़ा है, उसे भी महज आंकड़ों से समझ पाना मुश्किल है। हिन्दुस्तानी गरीब इतने गरीब हैं कि उनकी कमाई में पचीस फीसदी की गिरावट उनका एक वक्त का खाना छीन सकती है। आज हिन्दुस्तान में विदेशी मुद्रा के भंडार में रिकॉर्ड गिरावट आई है, और रूपये की डॉलर के मुकाबले कीमत इतिहास में सबसे कम हो गई है। इन दो बातों से आयात और निर्यात दोनों पर फर्क पड़ रहा है, और यह फर्क नीचे गरीब तक और अधिक पड़ रहा है, अमीरों की रोटी पर तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ा है।

लेकिन पूरी दुनिया में चल रहे ऐसे बवंडर के बीच हिन्दुस्तान अपने कुछ ऐसे मुद्दों को लेकर अपने आपमें मस्त है कि जिसे देखकर हैरानी और दहशत दोनों ही होते हैं। जिस देश के पास बिना सरकारी रियायती अनाज के दो वक्त पेट भरने का तरीका नहीं है, उस देश को सरकारी गेहूं-चावल से बांधकर रखा गया है, और उसे सौ-दो सौ बरस पहले ले जाकर बिठा दिया गया है। जिस तरह कम्प्यूटरों के ऑपरेटिंग सॉफ्टवेयर को पहले की किसी तारीख पर भी सेट किया जा सकता है, ताकि उसके बाद के जो फेरबदल नापसंद हैं, उनसे पीछा छूट जाए, कुछ वैसा ही आज हिन्दुस्तान में हो रहा है। सरकारी मुफ्त अनाज नहीं मिलेगा तो कल का खाना कहां से बनेगा, जहां पर ऐसा अनिश्चित भविष्य हो, वहां एक काल्पनिक भूतकाल को प्रमाणिक मानकर बहुसंख्यक आबादी को विज्ञान कथाओं की तरह टाईम-ट्रैवल करवाया जा रहा है। हिन्दुस्तान के इतिहास में एक ऐसा दौर बताया जाता है जब यहां के राजा रास-रंग में डूबे हुए थे, महलों को बनाने और नर्तकियों को नचवाने के शगल से उन्हें फुर्सत नहीं थी, और वैसे में ही विदेशी हमलावर आकर यहां काबिज हो गए थे। हिन्दुस्तान में आज राजकाज इतिहास के चुनिंदा और पसंदीदा गड़े मुर्दों को उखाडक़र एक ऐसे इतिहास को फैलाने के शगल में डूबा हुआ है जिससे न भविष्य का कोई लेना-देना है, न वर्तमान का। एक वक्त कार्ल मार्क्स ने लिखा था कि धर्म अफीम की तरह इस्तेमाल की जाती है, उनकी विचारधारा वाली पार्टियां चाहे आज चुनाव हार रही हों, उनकी यह बात सही साबित हो रही है। जिस तरह किसी बहुत जख्मी या किसी बड़ी बीमारी की तकलीफ से गुजरते हुए इंसान को दर्द भुलाने के लिए नशे के इंजेक्शन लगाए जाते हैं, उसी तरह आज हिन्दुस्तान में लोगों को उनकी मौजूदा तकलीफें भुलाने के लिए, कल की अनिश्चितता का आभास न होने देने के लिए, और आने वाले परसों की प्राथमिकता की तरफ से बेफिक्र रखने के लिए इस अफीम का इस्तेमाल किया जा रहा है। हिन्दुस्तानी बहुसंख्यक आम लोगों को इस अफीम के चलते, इस अफीम से बने हुए एक काल्पनिक इतिहास के चलते तमाम दुख-दर्द से मुक्ति मिल गई है। इस मायने में हिन्दुस्तान दुनिया के बाकी तकलीफजदा देशों से बिल्कुल ही अलग है, क्योंकि धर्म का ऐसा इस्तेमाल तो धर्म आधारित राज वाले हिन्दू या मुस्लिम, या ईसाई देशों में भी नहीं हो रहा है। इतिहास के आटे से बनी रोटी, सदियों पहले ऊगी सब्जी के साथ परोसकर लोगों को तृप्त कर दिया जा रहा है, और बहुसंख्यक जनता का धर्मान्ध हिस्सा डकार भी ले रहा है। ऐसा लगता है कि हकीकत के कुपोषण के शिकार हो जाने तक इस तबके की यह खुशफहमी जारी रहेगी कि वह खा-खाकर अघा रहा है, और उसे अपचन भी हो रहा है, और सोशल मीडिया के मुताबिक उसके लिए हाजमोला लेना प्रतिबंधित भी है क्योंकि उसमें हज भी है, और मौला भी है।

हिन्दुस्तान में एक ऐसे जानवर की बात बहुत से मुस्लिम इलाकों में कही जाती है जो कि कब्र तक सुरंग बनाकर दफनाई हुई लाशों को खाकर अपना काम चलाता है, उसे कबरबिज्जू कहा जाता है। दफनाए हुए इतिहास को खाकर जिंदा रहने वाले जानवरों को पता नहीं कौन सा बिज्जू कहा जाएगा।
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