संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : राहुल का मखौल कौन उड़ा रहे हैं, आईने में खुद को भी देखें
26-May-2022 4:53 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  राहुल का मखौल कौन उड़ा रहे हैं, आईने में खुद को भी देखें

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हिन्दुस्तान का सोशल मीडिया नफरत और मोहब्बत के बीच जीता है। और इनके बीच भी वह मोटेतौर पर सिरों पर ही जीता है, इन दोनों के बीच का हिस्सा अमूमन खाली रहता है। इसलिए अभी जब ब्रिटेन के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में सैकड़ों छात्र-छात्राओं के सवालों के बीच राहुल गांधी अकेले जवाब देते बैठे थे, तो भी उनके जवाबों को लेकर हिन्दुस्तान में उनसे नफरत करने वाले लोग टूट पड़े हैं। राहुल गांधी के सामने कोई चुनिंदा पत्रकार पहले से तय सवालों की लिस्ट लेकर नहीं बैठा था, बल्कि सभी किस्म के असुविधाजनक सवाल करने वाले छात्र-छात्राओं की वहां भीड़ थी, और वे छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य जंगल के कटने को लेकर भी राहुल गांधी को घेर रहे थे, जो कि आज कांग्रेस पार्टी के लिए एक बड़ी असुविधा का सवाल है क्योंकि इससे उसकी दो राज्य सरकारें जुड़ी हुई हैं, और कांग्रेस के पास आज यही दो राज्य हैं भी। सवाल-जवाब के ऐसे खुले दौर में जब राहुल गांधी को व्यक्तिगत त्रासदी से जुड़े हुए सवालों का भी सामना करना पड़ा, और ऐसे एक सवाल के जवाब में जब वो कुछ देर चुप रहे, तो उस चुप्पी का भी हिन्दुस्तान में उनसे नफरत करने वाली भीड़ ने मजाक उड़ाया है। एक विरोधी विचारधारा के नेता का मजाक उड़ाने में कुछ भी अटपटा नहीं है, लेकिन जब व्यक्तिगत और पारिवारिक त्रासदी से जुड़ी बातों पर किसी को जवाब देने में कुछ वक्त लगता है, तो उस तकलीफ को भी न समझकर, उसकी खिल्ली उड़ाना इंसानियत के उसी घटिया दर्जे का सुबूत है, जिसके नमूने आज हिन्दुस्तानी सडक़ों पर झंडे-डंडे लिए बहुतायत से दिखते हैं।

राहुल गांधी से पूछा गया था कि वे भारतीय समाज में हिंसा और अहिंसा के बीच उलझन को किस तरह देखते हैं? सवाल पूछने वाली शिक्षिका ने यह भी जिक्र किया था कि राहुल की पीढ़ी में हिंसा का एक अहम रोल रहा है, और उनके मामले में यह व्यक्तिगत भी है, अभी-अभी उनके पिता, राजीव गांधी, की बरसी गुजरी है। इस सवाल के जवाब में राहुल कुछ पल चुप रहे, और फिर उन्होंने कहा- ‘मुझे लगता है, जो शब्द दिमाग में आता है, वह क्षमा करना है। हालांकि वह सबसे सटीक शब्द नहीं है।’ इसके बाद राहुल चुप हो गए, और कुछ लोगों ने इस पर तालियां बजाईं, राहुल ने यह भी कहा कि वो अभी भी कुछ सोच रहे हैं। उन्होंने इसके बाद अपने पिता के निधन का जिक्र करते हुए कहा कि उनकी जिंदगी में वह सबसे बड़ी सीख देने वाला अनुभव था, और कहा कि इस घटना ने उन्हें वो चीजें भी सिखाई हैं जो कि वे किसी भी और परिस्थिति में कभी नहीं सीख सकते थे।

राहुल गांधी से किया गया सवाल उनके पिता की आतंकी हत्या से जुड़ा हुआ था, और यह भी याद रखने की जरूरत है कि बहुत कम उम्र में ही उन्होंने अपनी दादी के गोलियों से छलनी शरीर को देखा था, जिसे उन अंगरक्षकों ने ही छलनी किया था जिनके साथ राहुल उसी घर में क्रिकेट भी खेला करता था। हिन्दुस्तान में और ऐसे कितने लोग होंगे जिन्होंने अपने बचपन से जवानी के बीच अपनी दादी और पिता दोनों की आतंकी हत्या देखी होगी? ऐसे कितने लोग होंगे जिन्होंने परिवार के दो लोगों को इस तरह खोने के अलावा पिता के नाना का आजादी की लड़़ाई में बरसों जेल में रहना जाना होगा? और ऐसे राहुल से जब सवाल-जवाब के एक खुले दौर में उनके पिता की मौत के जिक्र के साथ हिंसा और अहिंसा पर सवाल किया जाए, और जवाब देते हुए वे कुछ चुप रहें, और उस चुप्पी का मखौल बनाया जाए, तो खिल्ली उड़ाने वाले ऐसे लोगों को कुछ देर शांत बैठकर अपने परिवार में ऐसी त्रासदी की कल्पना करना चाहिए, और फिर खुद के बारे में सोचना चाहिए कि क्या इनके लिए उसके बाद ऐसे किसी सवाल का जवाब देना आसान रहेगा? अपने पिता के हत्यारों को माफ कर देना आसान रहेगा?

आज हिन्दुस्तान में जिस तरह लोग एक धर्म के लिए, एक विचारधारा के लिए, और एक नेता के लिए बुनियादी मानवीय कहे जाने वाले मूल्यों को भी जिस तरह नाली में फेंक चुके हैं, उससे यह हैरानी होती है कि क्या यह देश सचमुच महान है? क्या ये महानता के सुबूत हैं कि लोग देश की बड़ी त्रासदी रहने वाली शहादतों का नुकसान झेलने वाले परिवारों के त्रासद पलों की खिल्ली उड़ाना भी अपनी जिम्मेदारी मानते हैं? जिस देश की संस्कृति महानता के कई पैमाने गढ़ती थी, आज वहां हैवानियत कही जाने वाली सोच इस तरह, इस हद तक सिर चढक़र बोल रही है कि लोग देश के शहीदों का मजाक उड़ा रहे हैं, उनके परिवारों की खिल्ली उड़ा रहे हैं, और शहादत की वजह बनी हुई हिंसा की चर्चा को लेकर ही अपनी ऐसी हिंसक सोच दिखा रहे हैं। यह सिलसिला इस देश के जिम्मेदार, सरोकारी, और लोकतांत्रिक लोगों को डूब मरने जैसी हीनभावना देता है कि अपनी जिंदगी में इस लोकतंत्र और इस समाज का ऐसा हिंसक संस्करण देखना भी बाकी था?

आज हिन्दुस्तान में विचारहीन जुबानी हिंसा में पेशेवर अंदाज में जुटे हुए भाड़े के ट्वीटरों या नफरत के आधार पर बिना भुगतान समर्पित भाव से काम करने वाले ट्वीटरों का सैलाब आया हुआ है। यह अंदाज लगाना मुश्किल है कि इनमें मजदूर कितने हैं, और स्वयंसेवक कितने हैं। लेकिन आज की यह फौज आने वाली पीढ़ी को घर-दुकान, कारोबार से परे सबसे बड़ी विरासत नफरत की देकर जा रही है, और आने वाली कई पीढिय़ां इसकी फसल काटने को मजबूर रहेंगी। एक ऐसा नौजवान या अधेड़, जो कि हर किसी के हर सवाल का जवाब देने मौजूद रहता है, जो सार्वजनिक मंचों पर बागी तेवरों वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं के सवालों से भी मुंह नहीं चुराता है, उसका मखौल कौन लोग उड़ा रहे हैं, उन्हें आईने में खुद को भी देखना चाहिए।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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