संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कैंसर, खुद की गलती से, या दूसरों की गलती से, रोकने की जरूरत..
31-May-2022 12:15 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कैंसर, खुद की गलती से, या दूसरों की गलती से, रोकने की जरूरत..

आज दुनिया में तम्बाकू निषेध दिवस मनाया जा रहा है। तम्बाकू से सेहत पर होने वाले खतरों के प्रति जागरूकता पैदा करने की एक सालाना कोशिश इस दिन होती है, और सालाना कोशिशों का कोई असर लोगों पर होता है, इसका कोई सुबूत तो रहता नहीं, फिर भी इस दिन कुछ लिख लिया जाता है, या कहीं और कुछ चर्चा हो जाती है। बीबीसी पर आज 75 बरस की एक महिला की कहानी आई है जिसके पति धूम्रपान करते थे, और इस महिला को यह अहसास नहीं था कि उस घर की हवा में आसपास रहते हुए भी उस पर इसका असर हो रहा होगा। पति के मरने के पांच बरस बाद जाकर उन्हें इस पैसिव स्मोकिंग की वजह से कैंसर हुआ, और अब वे नाक से सांस नहीं ले पातीं, गले में किए गए एक छेद से उन्हें सांस लेनी पड़ती है। लेकिन यह हादसा अकेला नहीं है। दुनिया भर के विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े बताते हैं कि हर बरस तम्बाकू से 80 लाख मौतें हो रही हैं, जिनमें 12 लाख लोग खुद तम्बाकू का सेवन नहीं करते थे, यानी मोटेतौर पर वे पैसिव स्मोकर थे।

हिन्दुस्तान तम्बाकू उगाने और तम्बाकू की खपत करने वाला दुनिया का अव्वल देश है। जाहिर है कि यहां पर मुंह का कैंसर, फेंफड़े का कैंसर, और सांस नली का कैंसर भी बहुत अधिक है। ऐसा भी लगता है कि बहुत से गरीब लोग जांच में कैंसर न निकल जाए इस डर से बुढ़ापे में जांच नहीं करवाते कि परिवार इलाज कराते हुए बर्बाद हो जाएगा। फिर यह भी है कि पैसिव स्मोकिंग से कैंसर के खतरे का अहसास भी कम लोगों को है, इसलिए लोग अपने आसपास के लोगों को बीड़ी-सिगरेट पीने के लिए मना नहीं करते। बहुत से ऐसे लोग हैं जो अपने बड़े साहब या नेता की गाड़ी चलाते हुए, मालिक की सिगरेट को बर्दाश्त करने के लिए मजबूर रहते हुए पैसिव स्मोकिंग झेलते हैं, और बेकसूर मारे जाते हैं। आज भी हिन्दुस्तान में सरकारों के भीतर तमाम लिखित प्रतिबंधों के बावजूद बड़े लोग दफ्तर या गाडिय़ों में सिगरेट पीते हैं, और उनके मातहत उन्हें झेलने के लिए मजबूर होते हैं। कहने के लिए सरकारी दफ्तर में सिगरेट पीने पर हजारों का जुर्माना है, लेकिन यह जुर्माना किसी पर कभी लगा हो, यह सुनाई नहीं पड़ता।

हिन्दुस्तान में तम्बाकू को लेकर एक और बहुत बड़ी दिक्कत है जो कि दुनिया के कई विकसित देशों में यहां के मुकाबले बहुत कम है। यहां तम्बाकू और सुपारी मिलाकर बनाया गया गुटखा गली-गली बिकता है, और उन राज्यों में भी धड़ल्ले से बिकता है जहां पर इस पर कानूनी रोक लगा दी गई है। दरअसल सिगरेट, तम्बाकू, और गुटखा का कारोबार इतना बड़ा और संगठित है कि वह किसी भी राज्य की सरकारी मशीनरी को भ्रष्ट बना देता है, और यह संगठित भ्रष्टाचार गुजरात जैसे ड्राई-स्टेट में एक टेलीफोन कॉल पर पहुंचने वाले शराब के हर देशी-विदेशी ब्रांड से उजागर होता है। इसलिए जहां लोगों की तम्बाकू-गुटखा की खपत रहेगी, वहां पर पुलिस और दूसरे अफसरों की मिलीभगत से इसकी तस्करी नहीं होगी, यह सोचना ही बेकार है। इसलिए जब तक देश के किसी भी प्रदेश में सिगरेट-गुटखा की बिक्री जारी रहेगी, तब तक वह पूरे देश में मिलते रहेंगे।

भारत की सडक़ों पर इन दिनों सिगरेट पीने वाले लोग कुछ कम दिखते हैं क्योंकि उतने ही दाम में वे गुटखा खरीदकर देर तक तम्बाकू का नशा पाते हैं। यह सिलसिला इतना फैला हुआ है कि लोगों को कैंसर से बचाने की कोई गुंजाइश नहीं है। एक तरीका यही दिखता है कि लोगों में कैंसर के प्रति जागरूकता बढ़ाई जाए, और उनकी अपनी सेहत को खतरे के साथ-साथ उन्हें यह भी समझाना जरूरी है कि कैंसर होने की हालत में पूरा परिवार किस तरह तबाह होता है, और खाते-पीते घरों से भी कामकाजी लोग बेवक्त छिन जाते हैं, परिवार की जमापूंजी इलाज में खर्च हो जाती है, और जिंदगी के रोज के संघर्ष के बीच लोग इलाज के लिए बड़े शहरों के चक्कर लगाते टूट जाते हैं। ऐसा लगता है कि सरकार और समाज दोनों को मिलकर और अलग-अलग लोगों के बीच तम्बाकू से सेहत को सीधे होने वाले खतरे, परोक्ष धूम्रपान से होने वाले खतरे, और परिवार पर पडऩे वाले आर्थिक बोझ की असल जिंदगी की कहानियां रखनी चाहिए। यह भी किया जा सकता है कि सार्वजनिक कार्यक्रमों के पहले और बाद में कुछ मिनटों के लिए ऐसे परिवारों के किसी व्यक्ति से उनकी तकलीफ बयान करवाई जाए ताकि बाकी लोगों पर उसका असर पड़ सके। दूसरी तरफ यह भी हो सकता है कि सार्वजनिक जगहों और दफ्तरों पर सिगरेट-तम्बाकू पर रोक को कड़ाई से लागू करवाने के लिए लोग पहल करें, क्योंकि तम्बाकू-प्रदूषण से मुक्त साफ हवा पाना हर किसी का बुनियादी हक है।

भारत चूंकि गरीब देश है, आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा ऐसा है जो परिवार में कैंसर के एक मरीज को ढो नहीं सकता है। कमाने वाला सदस्य अगर कैंसर का शिकार हो जाए, तो पूरे घर के मरने की नौबत आ जाती है। इसलिए सरकार और समाज को कैंसर के इलाज के साथ-साथ उससे बचाव पर जोर देना चाहिए जिससे कि इलाज के ढांचे पर भी जोर न पड़े, और जिंदगियां बेवक्त खत्म न हो।
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