संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : घटती सरकारी नौकरियां क्या सचमुच बुरी बात है?
01-Jun-2022 5:11 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  घटती सरकारी नौकरियां क्या सचमुच बुरी बात है?

हिन्दुस्तान में नरेन्द्र मोदी सरकार ने हर बरस दो करोड़ नए रोजगार का वादा किया था, और हर बरस करोड़ों रोजगार कम हो रहे हैं। लेकिन रोजगार का मतलब सिर्फ सरकारी नौकरी नहीं होता है। निजी दुकान भी बंद हो रही है, और उसके दो कर्मचारी भी नौकरी खो रहे हैं, तो वह भी बेरोजगारी बढऩा है। ऐसे में यह खबर भी आ रही है कि पिछले छह बरस में रेलवे ने तीसरे और चौथे दर्जे के करीब पौन लाख पद खत्म कर दिए हैं, और इससे अधिक पद खत्म करने की तैयारी चल रही है। फौज में नौकरियां लगना बंद सा हो गया है, और जगह-जगह फौज में जाने की राह देख रहे नौजवान प्रदर्शन कर चुके हैं कि उनकी उम्र निकली जा रही है, और फौजी भर्ती हो नहीं रही है। वहां भी इसी तरह लाख-पचास हजार पद खाली पड़े हैं। फिर यह भी है कि एयरपोर्ट से लेकर रेलवे स्टेशन तक, और केन्द्र सरकार के सार्वजनिक उपक्रमों तक की बिक्री हो रही है, और उनके नए मालिक छंटनी भी कर रहे हैं, और वहां मशीनों से काम बढ़ रहा है। कुल मिलाकर यह है कि सरकार और पब्लिक सेक्टर पद भी खत्म करते चल रहे हैं, और अपने काम को अधिक से अधिक ठेके पर भी देते चल रहे हैं। नतीजा यह हो रहा है कि एक समय हिन्दुस्तान में सरकारी नौकरी को जिंदगी की गारंटी मानकर चलने वाले लोग अब निराश हैं क्योंकि सरकारी नौकरियों की संभावना अब घटती चली जा रही है।

बेरोजगारों और सरकारी कर्मचारियों के नजरिये से परे होकर अगर देखें तो सरकारी अमले से जिनका वास्ता पड़ता है, वे जानते हैं कि सरकारी कार्य संस्कृति भारी निराश करने वाली और जनविरोधी है। सरकारी कर्मचारी तभी तक जनता रहते हैं जब तक वे बेरोजगार रहते हैं, और सरकारी नौकरी पाने के लिए आंदोलन करते हैं। एक बार वे सरहद के दूसरी तरफ चले जाते हैं, तो फिर उनका मिजाज राजा का हो जाता है जिसके लिए बाकी जनता प्रजा रहती है। सरकारी अमले का काम बाजार के किसी भी पैमाने के मुकाबले बड़ा कमजोर रहता है, और उसकी लागत बहुत अधिक रहती है। एक ही देश-प्रदेश में, एक ही समाज में, एक सरीखे काम के लिए तनख्वाह का इतना बड़ा फर्क सरकारी और निजी नौकरी में रहता है कि वह सरकारी को दामाद की तरह, और निजी को गुलाम की तरह दिखाता है। एक निजी नौकरी के ड्राइवर को आठ-दस हजार रूपए महीने मिलते हैं, वहीं दूसरी तरफ सरकारी ड्राइवर को काम आमतौर पर चौथाई होता है, और सरकार पर उसकी लागत चार गुना आती है। तनख्वाह, पेंशन, इलाज का खर्च, और बाकी चीजें मिलाकर सरकारी ड्राइवर को निजी ड्राइवर के मुकाबले चार गुना या अधिक महंगा बना देते हैं। कुछ इसी तरह का हाल अधिकतर किस्म के काम का होता है जिनमें दिखता है कि सरकारी कर्मचारी की लागत इतनी अधिक है कि लोग निजी नौकरी करने के बजाय बेरोजगार बैठे रहकर भी सरकारी नौकरी का इंतजार करते हैं।

अब अगर सरकार के नजरिये से देखें, तो वह एक कर्मचारी की जिंदगी भर की जिम्मेदारी उठाने के बजाय यह बात आसान पाती है कि वह किसी निजी एजेंसी को काम आऊटसोर्स कर दे, और फिर निजी एजेंसी सस्ते कर्मचारी रखकर उन्हें न्यूनतम वेतन देकर सरकार का वही काम सस्ते में कर दे। धीरे-धीरे देश-प्रदेश में अधिकतर विभागों में आऊटसोर्स एक पसंदीदा शब्द बनते जा रहा है, और सरकार की सीमित कमाई में यह शायद उसकी मजबूरी भी होते चल रहा है। देश के अलग-अलग प्रदेश अंधाधुंध नौकरियां बढ़ाकर अपने खर्च को इतना अधिक कर चुके हैं कि अपनी कमाई का तीन चौथाई से ज्यादा हिस्सा वे वेतन, ईंधन, और दफ्तर के खर्च पर लगा दे रहे हैं, और बहुत से प्रदेशों में तो सरकार के पास विकास के लिए एक चौथाई बजट भी नहीं बचता है। सरकारों को नौकरियां देने से लोकप्रियता मिलती है, लेकिन ये नौकरियां अगर विकास और जनकल्याण के खर्च में कटौती करके दी जा रही हैं, तो इनसे नौकरी पाने वालों को तो फायदा है, लेकिन जनता का इसमें व्यापक नुकसान है। इसलिए सरकारों को उनका स्थापना व्यय कहा जाने वाला खर्च घटाना चाहिए, और ऐसा करने का एक आसान रास्ता सभी जगह यह दिखता है कि गैरजरूरी कुर्सियों पर लोगों के रिटायर होने पर उन ओहदों को खत्म कर दिया जाए। वैसे भी अब मशीनीकरण और कम्प्यूटरीकरण की वजह से उतने अधिक कर्मचारियों की जरूरत नहीं रह गई है, और आज नौकरी चाहने वाले लोगों को यह समझना चाहिए कि आने वाला वक्त और मुश्किल होने वाला है, और सरकारी नौकरियों के भरोसे बैठे रहना अपनी जिंदगी तबाह करने से कम कुछ नहीं होगा।

अब ऐसे में सरकार और बेरोजगार, इन दोनों के सामने जो आसान रास्ता बचता है, वह स्वरोजगार का है। लोग अपनी क्षमता और अपने पसंद के ऐसे काम देखें जिन्हें वे अधिक पूंजीनिवेश के बिना कर सकें। हो सकता है कि यह पढ़-लिखकर डिग्री लेने के बाद पकौड़ा बेचने से होने वाली बेइज्जती जैसा लगे, लेकिन अगर सरकारी नौकरियां रहेंगी ही नहीं, तो फिर अपना काम देखना ही एक रास्ता बचता है। ऐसे में सरकार को लोगों के सामने स्वरोजगार के कई विकल्प रखने चाहिए, और उनके लिए लोगों को तैयार भी करना चाहिए। अभी कुछ हफ्ते ही पहले हमने इसी जगह पर लिखा था कि सरकारी नौकरियों में पहुंचे हुए लोगों की हर आठ बरस में दुबारा परीक्षा होनी चाहिए, उनका मूल्यांकन होना चाहिए, और हर आठ बरस में सरकारी अमले में से एक चौथाई की छंटनी होनी चाहिए। सरकारी नौकरी निकम्मेपन के लिए आश्रम की तरह नहीं होनी चाहिए, और इसे लेकर लोगों के मन में बैठी हुई सुरक्षा की गारंटी खत्म होनी चाहिए। इस गरीब देश में जनता अपने पैसों पर जिन कर्मचारियों को रखती है, वे अगर उसी से पैसों की उगाही में लग जाते हैं, तो ऐसे लोगों की छंटनी होनी ही चाहिए। कुछ लोग सोशल मीडिया पर यह लिखते हैं कि सरकारी कर्मचारी काम न करने की तनख्वाह लेते हैं, और काम करने की रिश्वत। ऐसी नौबत में सरकारी नौकरियां अधिक रहना जनविरोधी काम है। सरकारी अमला कम से कम रहना चाहिए ताकि टैक्स का पैसा सीधे जनकल्याण या विकास कार्यों में लग सके। ये बातें बेरोजगारों को कड़वी लग सकती हैं, लेकिन जिन लोगों को सरकारी दफ्तरों में धक्के खाने पड़ते हैं, और जायज काम के लिए भी नाजायज रिश्वत देनी पड़ती है, वे जानते हैं कि सरकारी कुर्सियां कितनी बेरहम होती हैं। इस बेरहमी की कीमत जनता चुकाए यह बिल्कुल भी ठीक नहीं है। सरकारी अमले को सुधारने के बाकी सारे तरीकों के साथ-साथ उनकी गिनती को कम करके लोगों को स्वरोजगार के मौके जुटाकर देना किसी भी देश के लिए एक बेहतर बात होगी।
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