संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : चूंकि थमाने को कलम-कीबोर्ड नहीं हैं, इसलिए नौजवानों के हाथों में थमा दिए हैं पत्थर...
04-Jun-2022 6:32 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : चूंकि थमाने को कलम-कीबोर्ड नहीं हैं, इसलिए नौजवानों के हाथों में थमा दिए हैं पत्थर...

हिन्दुस्तान के आज के माहौल पर लिखना, पिछले दिनों, हफ्तों, महीनों, और बरसों की बातों को दुहराने के अलावा और कुछ नहीं है। वही तनावपूर्ण साम्प्रदायिक माहौल बनाने की कोशिश हो रही है, और लोगों को लग रहा है कि धर्म से बड़ा कोई कर्म इस देश के लोगों को नसीब नहीं है। ऐसा लग रहा है कि प्रसाद से ही दो वक्त रोजी-रोटी चल जाएगी, और धार्मिक शोरगुल से बड़ी कोई पढ़ाई नहीं रह गई है। लोगों के एक हमलावर तबके को ऐसा लग रहा है कि वक्त की घड़ी की सुई को उल्टा घुमा दिया जाए। हजारों बरस पहले जिस तरह धर्म को लेकर शायद कबीलों में लड़ाई लड़ी जाती थी, सैकड़ों बरस पहले धर्म को लेकर देश एक-दूसरे पर चढ़ाई करते थे, अधिक ताकतवर हमलावर लोग दूसरे देशों पर हमला करके वहां के लोगों को अपने धर्म में शामिल करते थे, और हमले के शिकार देश के अनगिनत लोग खुद होकर भी राजा के कृपापात्र बनने के लिए उसके धर्म में शामिल हो जाते थे, उसी तरह आज भी सत्ता की पसंद के धर्म का राज लोकतंत्र के ऊपर कायम किया जा सकता है। इसी फेर में हिन्दुस्तान में आज हिन्दुओं का एक हमलावर तबका रात-दिन इतना तनाव खड़ा कर रहा है कि दो दिन पहले हिन्दुओं के सबसे बड़े संगठन के मुखिया, मोहन भागवत को यह कहना पड़ा कि हर मस्जिद के भीतर शिवलिंग ढूंढने की जरूरत नहीं है। लेकिन जैसा कि आज के बहुत से लोग यह मानते हैं कि उनके शब्द दिल से कितने निकले हैं, और महज होठों से कितने निकले हैं, इसका अंदाज लगाना चौदह मुल्कों के मनोवैज्ञानिकों के लिए भी मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है।

अब इस पर लिखने का मौका आज एक बार फिर इसलिए आया है कि कल जब प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, और मुख्यमंत्री तीनों कानपुर में थे, उस वक्त वहां जुमे की नमाज के बाद दो समुदायों में भारी पत्थरबाजी हुई। मुस्लिम इस बात से खफा थे कि कुछ दिन पहले टीवी चैनलों पर आग लगाकर टीआरपी तापने के लिए चलाई जा रही बहसों के बीच भाजपा की एक तेजाबी प्रवक्ता नुपूर शर्मा ने जिन शब्दों में मोहम्मद पैगंबर के बारे में ओछी बातें कही थीं, उनसे आमतौर पर ऐसे ही चैनल देखने वाले लोग भी हक्का-बक्का थे। किसी और किस्म की जरा सी भी बात देश के आज के किसी नेता के बारे में की होती, तो अब तक उस पर एफआईआर दर्ज हो गया रहता, और किसी राज्य की पुलिस देश के दूसरे सिरे पर जाकर बोलने वाले को गिरफ्तार करके ला चुकी होती। लेकिन चूंकि यह बात आज इस देश में अवांछित साबित किए जा रहे मुस्लिम तबके के खिलाफ थी, उनकी धार्मिक आस्था के खिलाफ थी, इसलिए नफरतजीवी हमलावरों ने उसे जायज मान लिया। भाजपा प्रवक्ता के उसी बयान को लेकर कल कानपुर में दो तबकों के बीच पथराव हुआ, और वह कई इलाकों में घंटों तक चलते रहा। यह पथराव चूंकि दो तबकों में था इसलिए यह तो माना ही जा सकता है कि इसमें से एक तबके के पत्थर उठाने के हौसले को यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने को सीधी चुनौती मानेंगे, और इस वक्त वे यह साबित करने में जुटे होंगे कि हर हाथ को पत्थर उठाने का हक नहीं है।

देश का यह माहौल बहुत भयानक है। और बहुत से लोगों का यह अंदाज बेबुनियाद नहीं है कि आज देश की असल दिक्कतों को दूर कर पाना चूंकि सरकार के काबू के बाहर की बात हो गई है, इसलिए उन असल मुद्दों को हाशिए पर धकेलकर धर्म और इतिहास के मुद्दों को सामने लाया जाए। जब सामने आग की लपटें दिखती हैं, तो उनके पीछे की दिक्कतें वैसे ही आंखों से दूर हो जाती हैं। इन्हीं सब बातों को देखकर अखिलेश यादव ने अभी यह कहा है कि इतिहास के आटे से वर्तमान की रोटी नहीं बन सकती। अखिलेश की बात ठीक है, लेकिन इसके साथ-साथ इसमें एक बात और जोड़ी जानी चाहिए, इतिहास के आटे से वर्तमान के लोगों की लाशों पर सेंकी गई रोटी आखिर खिलाई किसे जाएगी, सारे तो मारे जाएंगे।

हिन्दुस्तान की यह नौबत बहुत भयानक है, जिसमें हमलावर हिन्दू संगठन कर्नाटक में यह साबित करने में लगे हैं कि स्कूल-कॉलेज में पढऩे वाली मुस्लिम लड़कियों को तब तक पढऩे का हक नहीं रहेगा जब तक वे हर किसी को अपने बाल और अपने कान नहीं दिखाएंगी। वरना हिजाब से और क्या फर्क पड़ता है? लड़कियों के बाल और कान ही तो उससे ढंकते हैं, और उन्हें देखे बिना हिन्दू तबके को चैन क्यों नहीं पड़ रहा है? लेकिन ऐसी एक-एक बात की फेहरिस्त बनाना नामुमकिन है क्योंकि अब तो भाजपा के राज वाले कई राज्यों में बुलडोजर भी बिना ऑपरेटर खुद यह जानने लगे हैं कि उन्हें किन बस्तियों में जाना है, और किन घर-दुकानों को जमींदोज करना है। यह माहौल पूरे देश में फैलते चल रहा है, बढ़ते चल रहा है, और मानो इसकी एक प्रतिक्रिया कश्मीर के आतंकियों की तरफ से आ रही है जो कि इस केन्द्र प्रशासित राज्य में हिन्दुओं को चुन-चुनकर मार रहे हैं, और कुछ तस्वीरें सामने आई हैं कि किस तरह हिन्दू कर्मचारी कश्मीर छोडक़र बाहर निकल रहे हैं। धारा 370 के रहते भी हिन्दुओं की ऐसी छांट-छांटकर हत्याएं नहीं हुई थीं, और इन्हें देश के बाकी माहौल से अलग करके देखना सच से मुकरना होगा।

इस सिलसिले को अगर थामा नहीं गया तो यह आग जाने कहां तक पहुंचेगी। लेकिन आज एक झूठे इतिहास को फिल्मों के जरिए, टीवी सीरियल और किताबों के जरिए नफरत की आग फैलाने में पेट्रोल की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। अखंड भारत की बात करते-करते आज भारत खंड-खंड हो चला है, और समाज के भीतर जिस कदर टुकड़े हो रहे हैं, उसके लिए किसे जिम्मेदार ठहराकर किसे टुकड़े-टुकड़े गैंग कहा जाएगा? इतिहास को खोदकर वहां से हथियार निकालकर उससे जंग लड़ी जाएगी, तो ईसाई और मुस्लिम तो तमाशबीन ही रहेंगे, असली जंग तो हिन्दुओं और बौद्धों के बीच लड़ी जाएंगी क्योंकि भारत सरकार के पुरातत्व विभाग के तथ्य बताते हैं कि इस जमीन पर मुगलों के पैर भी पडऩे के पहले बौद्ध मंदिरों को तोडक़र वहां हिन्दू मंदिर बनाए गए थे। अब किस धर्म के ढांचे के भीतर किस धर्म की मूर्ति और प्रतीक तलाशे जाएं, क्या इसी में हिन्दुस्तान की इस पीढ़ी का भविष्य है? सच तो यह है कि जिन कंधों पर इस देश और इसके प्रदेशों के लोगों का भविष्य तय करने का जिम्मा वोटरों ने दिया है, वे अपने बच्चों को तो विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ाकर आत्मगौरव से फूले नहीं समा रहे हैं, और आम लोगों को सडक़ों पर लाकर साम्प्रदायिकता की मशाल थमा रहे हैं कि सब कुछ जला डालें। इतिहास अच्छी तरह दर्ज कर रहा है कि इस दौर में इस देश के कौन-कौन लोग चुप थे। इतिहास कही गई बातों को तो छोटे अक्षरों में दर्ज करता है लेकिन चुप्पी को बड़े-बड़े अक्षरों में। लोगों को याद रखना चाहिए कि फिल्मों और किताबों में झूठा इतिहास लिखने वाले लोग दुनिया का भविष्य तय नहीं करते हैं, और न ही उनके लिखे से, परदे पर उनके लिखाए से इतिहास बदलता है। यह जरूर है कि आज देश में फैलाए जा चुके साम्प्रदायिक उन्माद से देश की नौजवान पीढ़ी की संभावनाएं बदल गई हैं, और अब वे लंबे वक्त खाली हाथ रहने वाले हैं, अधिक से अधिक उन हाथों को पत्थर नसीब होंगे।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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