संपादकीय
हिन्दुस्तान में हर बरस पौने दो करोड़ लोग ऐसी बीमारियों से मरते हैं जो कि कमजोर खानपान और कम वजन से जुड़ी हुई हैं। देश की एक सबसे बड़ी पर्यावरण-संस्था, सेन्टर फॉर साईंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने साल की भारत की पर्यावरण-रिपोर्ट में यह बात कही है। यह रिपोर्ट बताती है कि किस तरह ये बीमारियां कमजोर खानपान से जुड़ी हुई हैं, लेकिन साथ-साथ ये बीमारियां अधिक मांस खाने, अधिक कोल्डड्रिंक पीने की वजह से भी हो रही हैं। मतलब यह कि खानपान से जुड़ी मौतें या तो कम खाने की वजह से हो रही हैं, या अधिक खाने की वजह से हो रही हैं। देश में असमानता का यह भी एक नुकसान है कि कुछ के पास खाने को इतना कम है कि वे कुपोषण के शिकार हैं, उनका शारीरिक और मानसिक विकास प्रभावित हो रहा है, दूसरी तरफ कुछ लोग खा-खाकर भी अघा नहीं रहे हैं, और डायबिटीज और कैंसर, सांस की बीमारियों के शिकार हो रहे हैं।
अब इस तस्वीर को इस रिपोर्ट से अलग हटकर भारतीय जिंदगी के अपने तजुर्बे से देखें तो यह साफ लगता है कि हिन्दुस्तान में खानपान को लेकर एक तबके के सामने मजबूरी है, और दूसरे तबके की लापरवाही है। अगर केन्द्र और राज्य सरकारों की राशन योजनाएं न रहें, तो भूख से मौत अभी कुछ दशक पहले की ही बात है, और कुपोषण से मौतें तो आज भी हिन्दुस्तान में दसियों लाख हर साल होती ही हैं। जो लोग सरकारी योजनाओं पर जिंदगी गुजार रहे हैं, उनके बारे में तो कोई अधिक सलाह नहीं दी जा सकती क्योंकि वह सलाह तो सरकार के लिए ही हो सकती है, और वह किसी सलाह से परे है। लेकिन दूसरी तरफ आम लोगों के खानपान में, खाते-पीते और पैसे वाले तबके के खानपान में सुधार की बहुत जरूरत भी है, और बहुत गुंजाइश भी है। हिन्दुस्तान में अगर दसियों लाख लोग हर बरस अधिक खाने से मर रहे हैं, और हर बरस करोड़ों लोग गलत और अधिक खाने से डायबिटीज के शिकार हो रहे हैं, तो इस नौबत को सुधारने के लिए बड़े पैमाने पर जागरूकता की जरूरत है। यह जिंदगी का एक इतना बड़ा सच है कि इसे सिर्फ अस्पतालों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता।
जैसे-जैसे बाजार लोगों की जिंदगी पर हावी होते जा रहा है, वह लोगों की जीवन शैली को अपने हिसाब से ढाल भी रहा है। जिन परिवारों में खर्च उठाने की ताकत है वहां पर सुबह का नाश्ता कारखानों से आए हुए डिब्बा बंद चीजों का होता है, और उन्हें दूध के साथ मिलाकर ऐसा मान लिया जाता है कि यह परिवार के लिए बहुत सेहतमंद खाना है। दूध में मिलाने के कई किस्म के पावडर मां-बाप को यह झांसा देते हैं कि बच्चों को इसे दूध में देने से उनका दिमाग तेज होगा, उनका कद तेजी से बढ़ेगा, वे अधिक मजबूत होंगे। इसी तरह एक-एक करके बहुत सा खानपान अब कारखानों से डिब्बा या पैकेट में बंद होकर बाजार के रास्ते लोगों तक पहुंचता है, और उनके बदन में अंधाधुंध शक्कर, नमक, तेल भर देता है। नतीजा मोटापा होता है, और मोटापे के बाद, या बिना मोटापे के भी डायबिटीज होता है। इसलिए बचपन से ही इस जागरूकता की जरूरत है कि अधिक से अधिक खानपान घर पर बनी हुई चीजों का होना चाहिए, और बाजार का खाना कभी भी घर के खाने से बेहतर नहीं होता। लोगों को अपने बच्चों को कारखाने में बना खाना या कोई भी सामान कम से कम देना चाहिए। अब यह जागरूकता उन बच्चों में तो नहीं आ सकती जिन्हें बाजार के सामान अधिक जायकेदार लगें, इसका इंतजाम कंपनियां करती हैं। यह जागरूकता तो मां-बाप में ही आ सकती है, लेकिन बच्चों को बचपन से ही घर के सेहतमंद खाने का महत्व समझाया जा सकता है ताकि उनके दिमाग में घर के खाने के लिए सम्मान बैठा रहे।
आज हिन्दुस्तान की शहरी जिंदगी में एक बड़ी दिक्कत खाने की घर पहुंच सेवा भी हो गई है। टेलीफोन पर एक संदेश गया, और आधे घंटे के भीतर डिब्बाबंद खाना घर पहुंच गया। ऐसा सारा ही खाना अधिक तेल-नमक का होता है, और इनमें नमक से परे कुछ और रसायन भी डाले जाते हैं ताकि उनसे खाने का स्वाद बढ़े। इन सबका नुकसान बहुत है, लेकिन जो लोग इस खर्च को उठा सकते हैं, उनके लिए घर पर खाना बनाने के बजाय आए दिन बाहर से खाना बुला लेना आम बात है। शहरी और संपन्न जिंदगी के साथ बढ़ती चल रही इस सोच के खतरे लोगों को समझाने की जरूरत है। संपन्नता लोगों के दिमाग को इतना मंद भी कर देती है कि वे सोचने लगते हैं कि ऐसे खानपान से उन्हें जो भी बीमारी होगी उसके इलाज के लिए बड़े-बड़े अस्पताल मौजूद हैं, और उनका खर्च उठाने की उनकी ताकत है। यह लापरवाही आत्मघाती है, और धीमी रफ्तार से खुदकुशी सरीखी है। ऐसा तबका कई तरह के संगठनों से भी जुड़ा रहता है, और वहां पर भी ऐसी जागरूकता की कोशिश हो सकती है। दरअसल खानपान का बाजार पैकेट के सामानों से लेकर रेस्त्रां तक, लोगों को लुभाने का काम करता है, और लोगों को अपनी संपन्नता के इस्तेमाल का यह एक जरिया भी दिखता है कि परिवार को लेकर बाहर जाएं, और खा-पीकर मस्ती करें। ऐसी जिंदगी लोगों को रफ्तार से खतरे की तरफ धकेल रही है, और हिन्दुस्तान जैसे देश में इलाज की सहूलियतों पर ऐसे संपन्न तबके का अनुपातहीन बोझ भी पड़ता है, जिसका नतीजा यह होता है कि गरीबों को जरूरत के वक्त अस्पताल नसीब नहीं होते।
कुल मिलाकर सीएसई की इस रिपोर्ट के बाद ऐसा लगता है कि गरीब तबके में भी इस जागरूकता की जरूरत है कि वह अपनी सीमित कमाई को शराब और गुटखा जैसी चीजों पर बर्बाद न करे, और अपने बच्चों के, परिवार के खानपान को बेहतर बनाने की कोशिश करे। गर्भवती महिला से लेकर कमउम्र के बच्चों तक कमजोर खानपान का ऐसा बुरा असर होता है जो कि अगली पीढिय़ों तक जारी रहता है। इसके साथ-साथ संपन्न तबके को भी समझ देने की जरूरत है। अब इससे ज्यादा हम क्या कहें, सभी लोग समझदार हैं।
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