संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा, हाल हमारा जाने है, जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग तो सारा जाने है
13-Jun-2022 1:12 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा, हाल हमारा जाने है, जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग तो सारा जाने है

तस्वीर : सोशल मीडिया

उत्तरप्रदेश के योगीराज में जिस अंदाज में किसी भी प्रदर्शन में शामिल मुस्लिमों के घरों को जिस तरह सरकारी बुलडोजर आनन-फानन जमींदोज करने में लग जा रहे हैं, वह देखना भी भयानक है। लेकिन देश के लोगों के लिए ही यह नजारा भयानक है, देश का सुप्रीम कोर्ट अभी शायद ठंडी पहाडिय़ों पर गर्मी की छुट्टियां मना रहा है, और वैसे भी जब सुप्रीम कोर्ट काम कर रहा था तब भी उसने बुलडोजरों को रोकने की जहमत नहीं उठाई थी, इसलिए पहाड़ों से जजों के लौट आने के बाद भी लोगों को कोई उम्मीद नहीं करनी चाहिए। और नीचे से लेकर ऊपर तक हिन्दुस्तानी अदालतों में जिस तरह आज की हिन्दुत्ववादी सरकारों के लिए एक बड़ा बर्दाश्त दिखाई पड़ रहा है, वह गजब का है। लेकिन हिन्दुस्तान में लोकतंत्र आज सोशल मीडिया पर लगातार सक्रिय रहने वाले कुछ धर्मनिरपेक्ष और इंसाफपसंद लोगों के मार्फत जिंदा है जो इस बात को जमकर उठा रहे हैं कि किस-किस प्रदेश में भाजपा की सरकारें कौन-कौन से काम साम्प्रदायिक नीयत से कर रही हैं, और किस तरह यह देश एक धर्मराज में तब्दील किया जा रहा है।

सोशल मीडिया के एक नियमित जिम्मेदार लेखक ने अभी कुछ मिनट पहले ही याद दिलाया है कि दो महीने पहले इसी यूपी एक अयोध्या में बरसों से आरएसएस और बजरंग दल के लिए काम कर रहे ब्राम्हण समाज के कई नौजवानों ने मस्जिदों के दरवाजों पर धार्मिक ग्रंथ के फटे पन्ने फेंके, गाली-गलौज की चि_ियां फेंकीं, और कथित रूप से सुअर के मांस के टुकड़े फेंके जिन्हें कि इस्लाम में अपवित्र माना जाता है। योगी की ही पुलिस ने उसी वक्त सात लोगों को गिरफ्तार किया, गिरफ्तारी को दो महीने हो रहे हैं, पुलिस के पास पूरे सुबूत हैं जिनमें सीसी टीवी की रिकॉर्डिंग भी है, लेकिन किसी सरकारी बुलडोजर ने इन लोगों के घरों का रूख नहीं किया। इस तरह के और भी कई जुर्म लोगों ने गिनाए हैं कि साम्प्रदायिक दंगों में जहां हिन्दू शामिल मिले, उनमें से किसी हिन्दू पर ऐसी कार्रवाई नहीं की गई।

चीजों को सही तरीके से सामने रखने के लिए ये मिसालें अच्छी हैं, लेकिन हम इस भेदभाव के बाद भी किसी पर भी बुलडोजरी फैसले के खिलाफ हैं क्योंकि यह सत्ता का पसंदीदा तरीका हो सकता है कि वह जिसे सजा देना चाहे कुछ मिनटों के भीतर उसे जमींदोज कर दे, लेकिन यह लोकतंत्र का तरीका नहीं हो सकता। और भेदभाव बताने के लिए तो ये मिसालें ठीक है क्योंकि ये सत्ता के साम्प्रदायिक चरित्र को उजागर करती हैं, लेकिन विरोध इस पूरे बुलडोजरी मिजाज का होना चाहिए, न कि आज जिन पर यह हमला हो रहा है, महज उन्हें बचाने के लिए। लोकतंत्र में सरकार और संसद से परे अदालत को भी इसलिए बनाया गया है कि जब कभी इनमें से किसी एक संस्था की ताकत इंसाफ के दायरे को पार करने लगे, तो दूसरी संस्थाएं उस पर कुछ कर सकें। इसीलिए बड़ी अदालतों के जजों को हटाने के लिए महाभियोग का प्रावधान किया गया है, सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को भी पलटने के लिए संसद में कानून में संशोधन या नया कानून बनाने का प्रावधान किया गया है। लेकिन सबसे अधिक जरूरत पड़ती है सत्ता की सरकारी बददिमागी को काबू करने के लिए अदालती दखल की, और उसका भी सबसे मजबूत इंतजाम भारतीय लोकतंत्र में किया गया है।

आज हैरानी की बात यह है कि जब देश के बच्चे-बच्चे को यह दिख रहा है कि कई राज्यों की सरकारें घोर साम्प्रदायिक तरीके से काम कर रही हैं, और मुस्लिम समुदाय को घेरकर मारना ही सबसे बड़ी नीयत हो गई है, उसके बाद भी अगर सुप्रीम कोर्ट को यह नौबत दखल देने लायक नहीं लग रही है, तो यह उसकी चेतना को लकवा मार गया दिखता है। देश की सबसे बड़ी अदालत को आज अगर हिन्दुस्तानी सत्तारूढ़ साम्प्रदायिकता को टोकने की भी जरूरत नहीं लग रही है, तो देश के कार्टूनिस्टों ने तो पिछले कुछ दिनों से ऐसे कार्टून बनाने शुरू कर दिए हैं कि सुप्रीम कोर्ट की इमारत तक पहुंचे बुलडोजर उसे गिराने की तैयारी कर रहे हैं। और यह नौबत कार्टूनिस्ट की कल्पना से, उसके तंज से परे भी हकीकत से बहुत दूर नहीं है। हम सुप्रीम कोर्ट के प्रति बहुत रियायत का इस्तेमाल करते हुए उसकी चेतना को लकवा मारने की बात कह रहे हैं, सच तो यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसी चुप्पी अख्तियार कर ली है जो उसकी जरूरत को ही खारिज कर रही है। जब देश के कमसमझ और मामूली लोगों को भी यह दिखे कि सत्ता अभूतपूर्व और ऐतिहासिक दर्जे की बेइंसाफी कर रही है, जुल्म कर रही है, और जुर्म कर रही है, और वैसे में मुल्क में अकेले सुप्रीम कोर्ट को ही यह बात न दिखे, तो उसे क्या कहा जाए?

आज हिन्दुस्तान में निशानों को छांट-छांटकर, धर्म के आधार पर जब निर्वाचित और संविधान की शपथ लेने वाली सरकारों के बुलडोजर जज का काम भी कर रहे हैं, वे बुलडोजज बन गए हैं, तब भी अगर सुप्रीम कोर्ट पहाड़ों पर छुट्टियां मना रहा है, तो क्या उसे लंबी छुट्टी दे देने की नौबत नहीं आ गई है? जहां तक हमें याद पड़ता है कि दिल्ली में बड़े जजों की राह में ट्रैफिक की मामूली दिक्कत भी आ जाने पर घंटे भर के भीतर पुलिस कमिश्नर को कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है, आज तो सुप्रीम कोर्ट के तमाम जजों की अदालतों के कटघरे भी इन बुलडोजरों के लिए छोटे और कम पड़ेंगे। सुप्रीम कोर्ट की इस रहस्यमय चुप्पी के चलते अब सरकारी जुल्म ने अदालतों की जगह ले ली है, अपने आपको हाशिए पर धकेलने वाली यह भारतीय लोकतंत्र की अकेली संस्था बन रही है।
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