संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सत्यपाल मलिक के अपने बारे में इतने बड़े-बड़े दावे, कसौटी पर कसने की जरूरत
14-Jun-2022 4:03 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सत्यपाल मलिक के अपने बारे में इतने बड़े-बड़े दावे, कसौटी पर कसने की जरूरत

जम्मू कश्मीर के राज्यपाल रहते हुए खबरों में अधिक आने वाले सत्यपाल मलिक बड़ा खुलकर बोलते हैं, और इस वजह से वे हाल के बरसों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के घरेलू आलोचक की तरह भी स्थापित हुए हैं। अब  अपने मुखर होने की वजह से, या किसी और वजह से, सत्यपाल मलिक पिछले बरसों में लगातार अलग-अलग प्रदेशों के राज्यपाल बनाए जाते रहे। 2018 से अब तक, ठीक चार बरस में वे ओडिशा, बिहार, जम्मू-कश्मीर, गोवा, और मेघालय के राज्यपाल रहे। चार बरस में पांच राजभवनों में बसाए गए शायद वे देश के अपने किस्म के अकेले राज्यपाल हैं। और मोदी के आलोचना के अलावा और तो कोई वजह ऐसी दिखती नहीं है कि वे लगातार और धीरे-धीरे कम महत्वपूर्ण राज्यों में भेजे गए, और अब वे आखिरी के चार महीने मेघालय में हैं जिसके बारे में देश के बाकी हिस्से को शायद यह भी याद नहीं होगा कि वहां का राजभवन किस शहर में है।

ऐसे सत्यपाल मलिक अभी दो दिन पहले राजस्थान में अंतरराष्ट्रीय जाट संसद में हिस्सा लेने पहुंचे थे, और उन्होंने अपने आम बागी तेवरों के मुताबिक अपनी ही पार्टी की केन्द्र सरकार पर जमकर हमला बोला। उन्होंने कहा कि देश के एयरपोर्ट, रेलवे स्टेशन, बंदरगाह, सरकार के दोस्त अडानी को बेचे जा रहे हैं, हमें देश को बिकने से रोकना होगा। उन्होंने कहा जब सब बर्बाद हो रहे हैं तो प्रधानमंत्री बताएं कि ये लोग मालदार कैसे हो रहे हैं? उन्होंने बड़ी संख्या में पहुंचे किसानों का यह भी आव्हान किया कि अडानी ने फसल सस्ते दाम पर खरीदने और महंगे दाम पर बेचने के लिए पानीपत में बड़ा गोदाम बनाया है, अडानी का ऐसा गोदाम उखाड़ फेंको, डरने की जरूरत नहीं है, मैं आपके साथ जेल चलूंगा, अंबानी और अडानी मालदार कैसे हो गए हैं, जब तक इन लोगों पर हमला नहीं होगा, तब तक ये लोग रूकेंगे नहीं।

सत्यपाल मलिक ने खुद के बारे में कहा कि किसान आंदोलन के दौरान वे अपना इस्तीफा जेब में लेकर प्रधानमंत्री से मिलने गए, उन्हें समझाया कि किसान कानून हटा दे, तब वह नहीं माने, बाद में प्रधानमंत्री को समझ आया, और उन्होंने किसानों से माफी मांगी, कानून वापस ले लिए। सत्यपाल मलिक ने कहा- मेरे तो राज्यपाल के तौर पर चार माह बचे हैं, जेब में इस्तीफा लेकर घूमता हूं, मां के पेट से गवर्नर बनकर नहीं आया था, चार महीने में ही किसानों के हक के लिए पूरी ताकत से मैदान में उतर जाऊंगा।

उनकी बातों को खुलासे से यहां पर लिखना इसलिए जरूरी था कि उन बातों को लेकर ही यहां आज की बात की जा रही है। यह बात तो ठीक है कि पिछले बरसों में घरेलू ऑडिटर की तरह या घर के भीतर के चौकीदार की तरह सत्यपाल मलिक ने कई बार सीधे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को निशाने पर लिया है, और जाने वे कौन सी रहस्यमय वजहें हैं जिनकी वजह से ये छोटे-छोटे राज्यों में भेजे तो गए, लेकिन फिर भी राज्यपाल बने रहे। ऐसे में सवाल यह उठता है कि वे अगर मोदी सरकार के कृषि कानूनों की तरह गंभीर मुद्दों पर गंभीर खामियां देखते हैं, तो वे राजभवनों से चिपके हुए क्यों हैं? एक तरफ तो वे लोगों के साथ जेल जाने को तैयार होने का दावा कर रहे हैं, दूसरी तरफ वे किसानों को कानून तोडक़र अडानी का गोदाम उखाडक़र फेंकने को कह रहे हैं, लेकिन साथ-साथ वे राजभवन में अपनी तैनाती के आखिरी दिन तक वहां बने भी रहना चाहते हैं। अब मेघालय का राज्यपाल होना जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल होने की तरह का तो है नहीं कि वे प्रदेश को मंझधार में छोडक़र निकल नहीं सकते। जब चार महीने बाद वे किसानों के साथ सडक़ों पर आने पर आमादा हैं, तो चार महीनों के लिए राजभवन का यह मोह कैसा? वे इसके पहले भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ भाजपा के भीतर से सबसे कटु आलोचना करने वाले एक-दो लोगों में शामिल रहे हैं, और सार्वजनिक रूप से, कैमरों के सामने उन्होंने बहुत कड़वी, निजी और गोपनीय बातें उजागर की हैं, और किसी भी बात का सरकार ने कोई खंडन नहीं किया है। ऐसी गंभीर तनातनी के चलते हुए उनका आलोचक भी बने रहना, और राजभवन में भी बने रहना कुछ विरोधाभासी लगता है। सार्वजनिक जीवन में जो लोग रहते हैं, वे अगर अपनी खुद की कही हुई बातों के गंभीर विरोधाभास में बरसों से, लगातार और नियमित रूप से ऐसे उलझे रहते हैं, तो उन्हें अपनी नीयत को लोगों के सामने साफ-साफ रखना चाहिए। वे अपनी नीयत का दावा करते हैं, लेकिन राज्यपाल के पद पर इन्हीं नरेन्द्र मोदी द्वारा की गई तैनाती के आखिरी दिन तक बने भी रहना चाहते हैं, जो कि नीयत की ईमानदारी से परे की बात है, और सरकार द्वारा तय की गई नियति का पूरा मजा उठाने की बात भी है।

केन्द्र सरकार चाहे तो सत्यपाल मलिक को हटा भी सकती थी, लेकिन उसे भी शायद एक अभूतपूर्व टकराव और कड़वाहट का खतरा दिख रहा होगा। शायद इसलिए मोदी सरकार मलिक के कार्यकाल को पूरा हो जाने देना चाहती है, जो कि खुद मलिक के मुताबिक चार महीने बाकी है। लेकिन हम सार्वजनिक जीवन के प्रमुख लोगों से इस नैतिकता की उम्मीद करते हैं कि वे प्रधानमंत्री पर अगर अडानी-अंबानी को लेकर इतनी बड़ी तोहमतें लगा रहे हैं, तो वैसे प्रधानमंत्री की दी गई कुर्सी पर उन्हें बने भी नहीं रहना चाहिए, और सत्ता-प्रतिष्ठान से बाहर आकर सडक़ की लड़ाई लडऩी चाहिए। हम इस बात को भी नैतिक बेईमानी पाते हैं कि वे किसानों को तो अडानी का गोदाम गिराकर बिना डरे जेल जाने का आव्हान कर रहे हैं, लेकिन खुद अगले चार महीने कानून से हर किस्म की हिफाजत पाते हुए राजभवन में बने रहना चाहते हैं। उनकी की गई आलोचना कम अहमियत नहीं रखती, लेकिन उनके कहने और करने के बीच एक फासला दिख रहा है, जिसे उन्हें खुद ही पाटना चाहिए। अगर उन्हें यह लग रहा है कि देश बेचा जा रहा है, प्रधानमंत्री के करीबी लोग उसे खरीद रहे हैं, तो ऐसी सरकार का राज्यपाल रहे बिना उन्हें सडक़ से इस बात को उठाना चाहिए। महज यह कहना कि वे मां के पेट से गवर्नर बनकर नहीं आए थे, काफी नहीं है, होना तो यह चाहिए कि वे उम्र के इस पड़ाव पर यह भी साबित करे कि किसी की अर्थी राजभवन से निकले, या किसान आंदोलन के धरना स्थल से, उनके धर्म के हर किसी को विलीन तो उन्हीं गिने-चुने पांच तत्वों में होना है। चार महीने बाद आंदोलन में शरीक होने की बात फिजूल की है, अगर उन्हें देश आज इस खतरनाक मुहाने पर दिख रहा है। सत्यपाल मलिक को अपनी नीयत के सत्य को साबित करना चाहिए, वरना उनकी बातों का कोई वजन नहीं रह जाएगा।
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