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गोपी चंद नारंग जिन्हें भारत और पाकिस्तान दोनों ने सम्मान दिया
17-Jun-2022 3:49 PM
गोपी चंद नारंग जिन्हें भारत और पाकिस्तान दोनों ने सम्मान दिया

photo credit Indian History Pictures

-अतहर फारूकी

 

उर्दू के जानेमाने साहित्यकार और आलोचक प्रोफेसर गोपी चंद नारंग ने बुधवार रात लगभग 10 बजे अमेरिकी प्रांत नॉर्थ कैरोलाइना के एक शहर में अंतिम सांस ली। उनकी मौत यूं तो एक आलिम (बुद्धिजीवी) की मौत थी जो बकौल एक फिलॉसफर एक आलम (दुनिया) की मौत होती है। मगर गोपी चंद नारंग ने जिस तरह की जिंदगी जी है, ये उनकी एक यात्रा का समापन और दूसरी अनंत यात्रा का आरंभ है, और ये मातम का नहीं बल्कि जश्न का वक्त है।

पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज गुट) के सांसद इरफान सिद्दीकी ने उनकी मौत पर गुरुवार को देश की संसद में उन्हें श्रद्धांजलि दी।

उन्होंने कहा, ‘हमारे यहां अपने शायरों, अपने लिखनेवालों को लोग बहुत कम जानते हैं। लिहाज़ा गोपी चंद नारंग के बारे में भी मालूमात नहीं है। लेकिन उर्दू अदब और उर्दू आलोचना की जितनी सेवा गोपी चंद नारंग ने की, शायद पाकिस्तान के अंदर भी उतनी सेवा किसी ने नहीं की।’

‘वो जिस तरह भारत के अंदर साहित्यिक परंपरा के रखवाले थे, पाकिस्तान के अंदर भी उनकी बड़ी कद्र थी। वो पाकिस्तान हमेशा आया करते थे और यहां के सम्मेलन और संगोष्ठियों में शरीक होते थे। गोपी चंद का जाना उर्दू अरब का एक बड़ा नुकसान है।’

बलूचिस्तान में हुआ जन्म
गोपी चंद नारंग का जन्म 11 फरवरी, 1931 को ब्रिटिश इंडिया के दुकी में हुआ था जो कि अब पाकिस्तान के बलूचिस्तान में है।

उर्दू में ऐसा कोई सम्मान नहीं है जो उन्हें न मिला हो। उनके बारे में कहा जाता है कि उन्हें केवल वही सम्मान नहीं मिले जिसकी ज्यूरी में वो ख़ुद थे जिसमें ज्ञानपीठ सबसे ऊपर है जिसकी उर्दू ज्यूरी के वो सर्वेसर्वा थे।

मगर ज्ञानपीठ वालों का मूर्तिदेवी अवार्ड भी उन्हें मिला। उन्हें साहित्य अकादमी की सबसे बड़ी फेलोशिप मिली, उन्हें पद्मभूषण सम्मान भी मिला।

पाकिस्तान का सबसे बड़ा अवार्ड सितारा-ए इम्तियाज भी उन्हें मिला।

भारत और पाकिस्तान दोनों से मिला सम्मान
वो उर्दू के पहले ऐसे स्कॉलर थे जिन्हें भारत और पाकिस्तान दोनों देशों से नागरिक सम्मान मिला। उन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड मिला और फिर बरसों बाद वो साहित्य अकादमी के अध्यक्ष भी बने। ये संस्था भारत की 24 भाषाओं में साहित्य के विकास के लिए काम करती है।

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी जैसे बड़े विश्वविद्यालयों ने उन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधियां दीं। उन्होंने कई बरसों तक जामिया मिल्लिया इस्लामिया और दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाया। गोपी चंद नारंग जामिया उर्दू विभाग के पहले प्रोफ़ेसर थे।

यह भी याद रखना चाहिए कि जिस समय गोपी चंद नारंग साहब जामिया मिल्लिया इस्लामिया के उर्दू विभाग में प्रोफेसर बने, ठीक उसी समय जामिया के हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर मुजीब रिजवी थे। इसे जामिया की गंगा-जमनी तहजीब की एक शानदार मिसाल के तौर पर भी देखा जाता है।

रिटायरमेंट के बाद वो जामिया और दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर एमिरेट्स भी बनाए गए। उन्होंने सेंट स्टीफेन्स कॉलेज, दिल्ली यूनिवर्सिटी से अपने टीचिंग करियर का आगाज किया।

फिर वह दिल्ली यूनिवर्सिटी के ही डिपार्टमेंट ऑफ उर्दू में रीडर बने। वहां से वो यूनिवर्सिटी ऑफ विस्कॉन्सिन और फिर मैडिसन गए। उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ मिनेसोटा और ऑस्लो यूनिवर्सिटी में भी छात्रों को पढ़ाया।

मैडिसन में रहने के दौरान नोबेल पुरस्कार विजेता हर गोबिंद खुराना उनके बहुत अच्छे दोस्त बन गए थे। जब खुराना एमआईटी जा रहे थे तो उन्होंने नारंग साहब से भी साथ चलने को कहा।

खुराना साहब के इस ऑफर पर नारंग साहब ने जो कहा उसकी मिसाल लोग आज भी देते हैं।
उस वक्त नारंग साहब ने खुराना साहब से कहा था, ‘आपकी प्रयोगशाला एमआईटी में है और मेरी भारत में।’

भारत ने नहीं किया मायूस
भारत ने भी नारंग को मायूस नहीं किया। गोपीचंद नारंग ने जब हरगोविंद खुराना से कहा था कि भारत उनकी प्रयोगशाला है तो उनके जेहन में दूसरे कामों के अलावा दिल्ली की करखंदारी भाषा पर काम करना भी रहा होगा।

इस भाषा में उन्हें शुरुआत से ही दिलचस्पी थी। दिल्ली की उर्दू की करखंदारी बोली पर उनका काम महत्वपूर्ण था जिससे अब शायद बहुत कम लोग परिचित होंगे।

भाषा विज्ञान का उर्दू में वह आरम्भिक दौर था। बाद में नारंग ने उर्दू साहित्य पर अधिक ध्यान दिया। उर्दू साहित्य में टीका को एक पूर्ण शाखा बनाने में गोपी चंद नारंग का अहम किरदार था। उन्होंने उर्दू के 400 साल लंबे सांस्कृतिक इतिहास को अपने शोध का अहम बिंदु बनाया।

उर्दू साहित्य की भारतीय जड़ों की तलाश
अपनी जिंदगी के आखिरी पच्चीस सालों से ज्यादा का वक्त उन्होंने उर्दू साहित्य की भारतीय जड़ों की तलाश में गुजार दिए।

उर्दू किस्सों से माखूज उर्दू मसनवियां (2002), उर्दू गजल और हिंदुस्तानी जेहन-ओ-तहजीब (2002), गालिब : मानी आफरीनी (2013) इस सिलसिले की महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं।

91 साल की जिंदगी में गोपी चंद नारंग को कम से कम 10 बड़े सम्मान मिले और दुनिया की छह बड़ी फेलोशिप मिली। उन्होंने सात जगहों पर पढ़ाने का काम किया और उन्होंने 70 से अधिक किताबें लिखीं जिनमें से आठ अंग्रेजी जुबान में, सात हिंदी में और 50 से अधिक उर्दू भाषा में थीं। उनकी किताबों का दुनिया की कई जुबानों में अनुवाद तो हुआ ही, खुद गोपी चंद नारंग पर करीब 30 किताबें लिखी गईं हैं। इससे ज्यादा की कामना किसी लिखनेवाले से करना शायद नाइंसाफी होगी।

उर्दू के चाहने वालों ने भी उन्हें खूब मोहब्बत और इज्जत दी। इतनी मोहब्बत और इज्जत भारत में उर्दू के दूसरे लिखने वालों को कम ही नसीब हुई है।

गोपी चंद नारंग ने अपनी पूरी जिंदगी उर्दू को सांप्रदायिकता की कैद से निकालने में लगा दी। वो कहा करते थे, ‘जुबान एडजस्ट कर लेगी और वो जिंदा रहेगी, दरिया की तरह जो अपने किनारे बदलता रहता है।’ (bbc.com/hindi)

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