विचार / लेख

अभी भी वक्त है कि सरकारें चेत जाएं...
18-Jun-2022 2:30 PM
अभी भी वक्त है कि सरकारें चेत जाएं...

-पुष्य मित्र

असली मसला बेरोगजारी का है। जिसका गुस्सा कभी आरआरबी के गलत रिजल्ट के बहाने निकल जाता है, तो कभी सेना की नौकरी में ठेका प्रथा शुरू करने के फैसले के विरोध में। यह उन लाखों युवाओं का गुस्सा है जो लंबे समय से दबा है। जो हर छोटे-बड़े शहरों में एक छोटे से कमरे में बंद होकर सरकारी नौकरी की तैयारी करते हैं। फिर चाहे वह कोई भी नौकरी हो, एसएससी की, रेलवे की या सेना की। वे हर जगह कोशिश करते हैं, क्योंकि आजादी के बाद के वर्षों के अनुभव ने भारत के लोगों को यही सिखाया है कि अगर भविष्य सुरक्षित करना है तो किसी न किसी तरह सरकारी नौकरी हासिल कर लो।

ये लोग बहुत आम घरों के लडक़े हैं। इनके अभिभावकों के पास इतना पैसा नहीं था कि ये किसी प्राइवेट इंजीनियरिंग या मेडिकल कालेज में जा पाते। न इनमें इतनी मेधा थी कि गरीबी के दुष्चक्र को तोडक़र मेहनत के दम पर कोई बड़ी सफलता हासिल कर लेते। लिहाजा पटना, दिल्ली, इलाहाबाद, भागलपुर, आरा, पूर्णिया जैसे शहरों के सीलन भरे छोटे कमरे में पैक होकर ये तपस्या करते रहते हैं।

आजकल शाम के वक्त आप गांधी मैदान जायें तो ऐसे सैडक़ों लडक़े-लड़कियां मिलेंगे तो सेना और पुलिस की नौकरी की तैयारी के लिए हाई जंप और लांग जंप करते दिखेंगे। गर्दनीबाग हाईस्कूल के मैदान में भी ऐसे युवा खूब जुटते हैं। दूसरे शहरों में भी ऐसे कई ठिकाने होंगे। ये जुटे रहते हैं। इसके बावजूद कि मुश्किल से इनमें से किसी एक को सरकारी नौकरी मिलती होगी फिर भी।

उम्मीद इनके भरोसे की डोर होती है। ये टकटकी लगाये वेकेंसी की राह देखते रहते हैं। घर से कह कर आते हैं कि दो साल का खर्च दीजिये, नौकरी हासिल करके लौटेंगे। मगर नौकरियां पंचवर्षीय योजना में बदल जाती हैं। फिर भी ये किसी न किसी तरह उम्मीद को टिकाये रहते हैं। इनके मानसिक तनाव का आप और हम अंदाजा नहीं लगा सकते।

इसी वजह से जब नौकरी से जुड़ी किसी सरकारी फैसले के विरोध में, जिस फैसले में युवाओं का हित कम और झांसे बाजी अधिक होती है, ये सडक़ पर उतर आते हैं। और फिर जगह-जगह बेरोजगारी का फ्रस्ट्रेशन दिखने लगता है। तोडफ़ोड़, आगजनी, पथराव। हम और आप इन्हें शांति की सलाह दे सकते हैं, जो उचित ही है। मगर इनका तनाव इतना गंभीर है कि ये समझते नहीं। कल बीबीसी की एक रिपोर्ट देख रहा था, इसमें एक युवा कह रहा था, हम शांति से आंदोलन कर सकते हैं, मगर क्या सरकारें शांतिपूर्ण आंदोलन को नोटिस करती हैं?

यह बड़ा सवाल है। सरकारें भी हिंसक आंदोलन पर सक्रिय होती हैं। वरना शांतिपूर्ण आंदोलन होते रहते हैं जंतर मंतर पर। खैर, फिर भी रास्ता गांधी का ही अच्छा है और किसान आंदोलन ने यह साबित किया है। उचित सलाह यही है कि आंदोलन शांतिपूर्ण हो।

मगर सबसे बड़ा सवाल यह है कि सरकार बेरोजगारी के मसले को ठीक से एड्रेस क्यों नहीं करती। अभी कल की तारीख में देश की बेरोजगारी दर 7.5 फीसदी है, बिहार की मई की बेरोजगारी दर 13.3 फीसदी। हालांकि वास्तविक बेरोजगारी इससे कहीं अधिक बड़ी है। युवाओं के पास कोई काम नहीं है। सरकारी विभागों में पद खाली हैं, मगर सरकार की इन्हें भरने में कोई दिलचस्पी नहीं है। सरकारों ने लगभग तय कर लिया है कि रोजगार देना, नौकरी देना इनका काम नहीं है।

ये इसलिए कहते हैं कि युवा आत्मनिर्भर बनें। पकौड़ा तलें। अपनी रोजी रोटी खुद कमायें। स्टार्टअप योजना का लाभ लें। मगर स्टार्टअप के आंकड़े टटोलिये, कितने फीसदी युवा सफल होते हैं। मुश्किल से एक परसेंट, बाकी 99 असफल होकर तनाव झेलते हैं। कह देना आसान है कि आत्मनिर्भर बन जाइये। मगर आज की तारीख में यह इतना भी आसान नहीं।

इसलिए सरकारों को बेरोजगारी के मसले पर संवेदनशीलता से विचार करना चाहिए। देश के युवा इस वक्त भीषण तनाव में हैं। उन्हें तनाव से बाहर निकालना जरूरी है। जो दृश्य नजर आ रहे हैं, उसका इशारा यही है कि देश 1974 के इमरजेंसी आंदोलन जैसे आंदोलन की तरफ बढ़ रहा है। यह बड़े विस्फोट का रूप ले सकता है।

ऐसा न हो, यही सबके हित में है। क्योंकि अराजकता कभी अच्छी नहीं होती। मगर इस अराजकता के दोषी सिर्फ युवा नहीं। सरकारें उनसे कहीं अधिक दोषी हैं। क्योंकि वे अपनी जिम्मेदारी से हाथ झटक रही हैं। उन्हें झांसा दे रही हैं। उनके लिए कुछ कर नहीं रहीं। अभी भी वक्त है कि सरकारें चेत जायें और युवाओं के मसले पर गंभीरता से विचार करें। यही इस वक्त का सबसे बड़ा संदेश है।

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