विचार / लेख

अभी तक डाकिया नहीं आया!
18-Jun-2022 3:00 PM
अभी तक डाकिया नहीं आया!

-द्वारिका प्रसाद अग्रवाल

उन दिनों संचार के साधन बहुत कम थे, पत्रों के माध्यम से जानकारियाँ दूर-सुदूर आती-जाती थी। भारतीय डाक सेवा का जाल पूरे देश में फैला था, असंख्य डाक कार्यकर्ता चि_ियों को एक से दूसरे स्थान पर ले जाते थे और खाकी पोशाक में लाखों डाकिए राह तकती अंखियों तक उनके स3देश पत्र पहुँचाते थे। डाकिया के समय से तनिक देर हो जाए तो लोगों में बेचैनी सी होने लगती- ‘क्या बात है ? अभी तक डाकिया नहीं आया!’

महानगर, नगर, कस्बा हो या गाँव, पोस्ट ऑफिस सबका सहारा हुआ करता था। मनीआर्डर के सहारे लाखों लोगों का भरण-पोषण जुड़ा हुआ था, तार के जरिए अति महत्व के सन्देश शीघ्रता से मिल जाते थे, वैसे, तार आना अक्सर किसी अप्रिय घटना के समाचार की संभावना से भी जुड़ा रहता था। तार आने पर लोगों के मन में सबसे पहले यह भाव आता- ‘तार आया, न जाने क्या हो गया?’

लिफाफा पच्चीस पैसे में, अंतर्देशीय पत्र पन्द्रह पैसे में और पोस्टकार्ड पांच पैसे में मिलता था। परिवारों के रिश्ते, दु:ख-सुख के समाचार, पति-पत्नी के उलाहने, प्रेमियों के दर्द, कवियों की कविताएँ, लेखकों के लेख, सरकारी आदेश और व्यापारिक प्रपत्र उन्हीं लिफाफों की मदद से हस्तांतरित होते थे। लिफाफे का उपयोग आवश्यक होने पर ही किया जाता था क्योंकि वह महँगा था, आम तौर पर सस्ते होने के कारण कार्ड सबसे अधिक लोकप्रिय थे। पोस्टकार्ड का बहुआयामी उपयोग होता था, जैसे, सामान्य सूचनाओं का आदान-प्रदान, व्यापारिक कामकाज एवं भाव-ताव, विवाह संबंध की बातचीत, आवागमन की सूचना, साहित्यकारों की रचनाओं की स्वीकृति, अस्वीकृत रचनाओं की बुरी खबर, लाल स्याही से भरपूर राम राम राम राम का लिखित जप, पत्रप्रेषण से देवी-देवताओं की कृपा के आगमन की सूचना और वैसे ही पत्र अपने परिचितों को लिखकर न भेजने पर भीषण आर्थिक हानि और पुत्रशोक होने की धमकी, शोक संदेश जिसके कार्ड का एक कोना फटा रहता था, आदि-आदि।

पत्र लिखना अब इतिहास की बात हो गई, मोबाइल फोन ने उस अद्भुत विधा को एक किनारे लगा दिया। याद है आपको वे मधुर गीत- ‘फूल तुम्हें भेजा है खत में, फूल नहीं मेरा दिल है, प्रियतम मेरे मुझको लिखना, क्या ये तुम्हारे काबिल है ?‘ इस गीत की मधुरता में आप खो सकते हैं परन्तु इसे ‘फील’ केवल वे कर सकते हैं जिन्होंने अपनी किशोरावस्था में ऐसे पत्र किसी को लिखे हों।

गाँव-खेड़े में अनपढ़ लोग पोस्टमेन से आग्रह करके पत्र लिखवाते थे, सदाशयी पोस्टमैन उनकी मदद करते थे और स्वयं उस पत्र को पोस्ट भी कर देते थे। एक मधुर गीत की आपको याद दिलाता हूँ, जरा विरहिणी की पीड़ा को महसूस करिए-

‘खत लिख दे सांवरिया के नाम बाबू

कोरे कागज पे लिख दे सलाम बाबू

वे जान जाएंगे पहचान जाएंगे।

कैसे होती है सुबह से शाम बाबू

वे जान जाएंगे पहचान जाएंगे।

लिख दे...न !’

अब जिक्र निकल गया है तो पत्र लिखने और पढऩे की ‘फीलिंग’ से जुड़ा हसरत जयपुरी का लिखा यह मर्मस्पर्शी गीत आपको याद दिला दूँ-

‘मेहरबां लिखूँ , हसीना लिखूँ या दिलरुबा लिखूँ , हैरान हूँ कि आपको इस खत में क्या लिखूँ ?’

(आत्मकथा का एक अंश है यह)

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