विचार / लेख
-अशोक पांडे
सच कहूँ तो खुद को असफल मानता हूँ लगातार। व्यक्ति ही नहीं पीढ़ी के रूप में असफल। 16-17 की उम्र में निजीकरण के खिलाफ शहर की गली-गली में प्रचार कर रहे थे। असफल हुए। साम्प्रदायिकता के खिलाफ तीसेक साल से लड़ रहे हैं, असफल हुए। परिवार के मोर्चे पर तो खैर बुरी तरह असफल हुए। नौकरी की, बस की। असफल हुए और बाहर निकल आए।
जब देश अन्ना आंदोलन के पीछे पागल था लगभग अकेले हम कुछ लोग बता रहे थे कि इसके पीछे बहुत बड़ी चाल है। लोगों को समझा पाने में असफल हुए। जब देश गुजरात मॉडल के पीछे लहालोट था, हम उसकी बखिया उधेड़ रहे थे लेकिन समझा पाने में असफल हुए। मजेदार यह कि उस दौर में अन्ना आंदोलन की जय करने वाले और गुजरात मॉडल का प्रचार करने वाले लोगों में से कुछ अचानक विरोधी बन गए और अब वही विरोध के प्रतिनिधि माने जाते हैं-हमें असफल होना था, असफल हुए!
अब भी क्या कर रहे हैं? दिन रात इतिहास से वर्तमान पर तथ्य-तर्क बताने की कोशिश कर रहे हैं, असफल हैं। कश्मीर पर बोलता-लिखता हूँ तो दोस्त चिंतित हो जाते हैं, पर लिखने-बोलने का असर कितना है? घृणा के पाँच लाख ग्राहक हैं तो तथ्य के पाँच हजार भी मुश्किल से।
बाकी लेखन वगैरह की सफलता-असफलता पर बात करना ही बेकार है। लेखन अपने आप में एक असफल विधा है। तारीफ वगैरह मिल जाती है पर जो ख्वाब देखा था वह नजर से दूर होता जाता है।
दाल-रोटी का जुगाड़ एक सतत संघर्ष है ही। दो वक्त खाने का अब तक चैन से मिल रहा है उसे सफलता मानकर ख़ुश हो लेने के अलावा चारा क्या है?