राष्ट्रीय
गणेश भट्ट
नई दिल्ली, 26 जून | केंद्रीय विश्वविद्यालय बीएचयू के वैज्ञानिकों ने तीन दशकों की मेहनत के उपरांत मेडिकल रिसर्च के क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर एक बड़ी कामयाबी हासिल की है। यहां वैज्ञानिकों ने बिना लक्षण वाले कालाजार (लीशमैनियासिस) रोगियों की पहचान का एक नया तरीका खोज निकाला है, जो विश्वसनीय और किफायती है।
आंत का लीशमैनियासिस घातक है और मृत्यु का कारण बन सकता है। यह गंभीर रक्तस्राव, संक्रमण और चेहरे को विकृत (कुरूप) भी कर सकता है। भारत, इथियोपिया, ब्राजील, सूडान और बांग्लादेश में रहने वाले लोग इसके शिकार हो जाते हैं। शुरुआत में इसके एसिम्प्टोमैटिक होने से यह बीमारी सभी लोगों में फैल जाती है। इसका पता लगाना अब तक महंगा और बहुत जटिल रहा है। हालांकि नई रिसर्च से यह काफी सरल हो सकेगा।
भारत में हुआ यह शोध इस विषय पर विश्वभर में अब तक की अनोखी व नई रिसर्च है। भारत के वैज्ञानिकों का यह शोध कार्य अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया है व यह प्रतिष्ठित शोध पत्रिका क्लीनिकल एंड ट्रांसलेशनल इम्यूनोलॉजी के नवीनतम अंक में प्रकाशित हुआ है।
भारत में कालाजार फैलाने वाली रोगवाहक एक मक्खी 'फ्लैबोटामस अर्जेटाइप्स' है। अधिकांश मामलों में रोगियों में शुरुआती लक्षण नहीं दिखाई देते। यह रोग एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलने वाला है, जिसके कारण यह रोग कई लोगों में फैल जाता है। इससे आंतरिक रक्तस्राव और चेहरा भी कुरूप हो सकता है। यह मक्खी छोटे कीड़े के आकार की होती है। इसका आकार मच्छर का एक चौथाई होता है। इस मक्खी के शरीर की लंबाई 1.5 से 3.5 मिमी होती है।
वयस्क मक्खी रोएंदार होती हैं, जिसके सीधे पंख आयु के अनुपात में छोटे-बड़े होते हैं। इसका जीवन अंडे से शुरू होता है तथा लार्वा, प्यूपा के स्तर से होते हुए व्यस्क के रूप में पनपते हैं। इस पूरे चक्र में लगभग एक महीना लग जाता है, तथापि तापमान तथा अन्य भौगोलिक परिस्थितियों पर इसका विकास निर्भर करता है। इन मक्खियों के लिए आपेक्षिक उमस, गरम तापमान, उच्च अवमृदा पानी, घने पेड़ पौधे लाभकारी होते हैं।
बीएचयू के वैज्ञानिक डॉ. राजीव कुमार ने बताया कि शोध दल ने कालाजार के प्रभाव के क्षेत्र में रहने वाले व्यक्तियों के तीन समूहों (अकैलक्षणिक कालाजार व्यक्तियों, काला-जार रोगियों और स्वस्थ व्यक्तियों) से एकत्र किए गए रक्त के नमूनों पर ट्रांसक्रिप्टोमिक अध्ययन किया और एम्फिरेगुलिन नामक एक बायोमार्कर की पहचान की, जो अलक्षणिक व्यक्तियों की पहचान में मदद करेगा। अलक्षणिक कालाजार संक्रमण वाले व्यक्ति नैदानिक लक्षण नहीं दिखाते हैं। यह अणु एम्फायरगुलिन न केवल सूजन और ऊतक क्षति को रोकता है, बल्कि उन्हें सक्रिय रोग वाले व्यक्तियों से भी अलग कर सकता है।
डॉ. सिद्धार्थ शंकर के मुताबिक, कालाजार में अनियमित बुखार, वजन कम होना, प्लीहा और यकृत का बढ़ना और एनीमिया शामिल हैं। ज्यादातर मामले ब्राजील, पूर्वी अफ्रीका और भारत में होते हैं। दुनियाभर में सालाना अनुमानित 50,000 से 90,000 नए मामले सामने आते हैं, जिनमें से केवल 25 प्रतिशत से 45 प्रतिशत डब्ल्यूएचओ को रिपोर्ट किए जाते हैं। अलैक्षणिक व्यक्ति बीमारी का कोई लक्षण नहीं दिखाते, लेकिन परजीवी को अपने शरीर में संयोजित किए रहते हैं, जो कालाजार के फैलाव में मदद कर सकता है। इसिलिए यह शोध कालाजार अनुसंधान के क्षेत्र में विशेष रूप से भारत सरकार के उन्मूलन कार्यक्रम के आलोक में बहुत दिलचस्प खोज है।
अपनी इस नई व महत्वपूर्ण रिसर्च के बारे में आईएएनएस को बताते हुए बीएचयू ने कहा कि बिना लक्षण वाले कालाजार रोगियों की पहचान करने का एक नया तरीका खोजा गया है। बीएचयू के वैज्ञानिकों द्वारा खोजा गया यह नया तरीका वैश्विक स्तर पर भी स्वीकार्य, विश्वसनीय और किफायती हो सकता है।
इस अध्ययन का नेतृत्व सीनियर रिसर्च फेलो सिद्धार्थ शंकर सिंह ने प्रो. श्याम सुंदर विशिष्ट प्रोफेसर, मेडिसिन विभाग, चिकित्सा विज्ञान संस्थान और डॉ. राजीव कुमार, सीईएमएस, आईएमएस-बीएचयू के मार्गदर्शन में किया।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के मुताबिक, यह नई रिसर्च स्थानिक क्षेत्र में रोग का बेहतर प्रबंधन करने में मदद करेगी। पिछले तीन दशकों से कालाजार अनुसंधान के क्षेत्र में कार्यरत देश के अग्रणी वैज्ञानिक प्रो. श्याम सुंदर ने कहा कि हम भारत सरकार के कालाजार उन्मूलन कार्यक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने शोध कार्य को आगे बढ़ा रहे हैं और यह खोज उस दिशा में एक बड़ा कदम है। (आईएएनएस)