संपादकीय
राजस्थान में एक हिन्दू दर्जी की एक सोशल मीडिया पोस्ट को लेकर जिस तरह दो मुस्लिमों ने गला काटकर हत्या की है, और उसे मोहम्मद पैगंबर का कथित अपमान करने वाली नुपूर शर्मा के समर्थन के खिलाफ किया गया बताया है, उससे चारों तरफ खलबली मची हुई है। सोशल मीडिया पोस्ट को लेकर इतनी हिंसक कार्रवाई शायद पहली बार हुई है, और शायद पहली बार ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का नाम लेकर धमकी देते हुए इस तरह वीडियो जारी हुआ है। लेकिन इन तमाम बातों पर हम कल लिख चुके हैं, और आज इससे जुड़े हुए एक पहलू पर लिखने की वजह केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के एक बयान से आई है, जिन्होंने यह सवाल उठाया है कि मदरसों में छोटे बच्चों को यह पढ़ाया जाता है कि ईशनिंदा (अल्लाह की निंदा), की सजा सिर काटना है। उन्होंने यह भी कहा कि मुस्लिम कानून कुरान से नहीं आता है, वह बाद के राजाओं के समय इँसानों का लिखा हुआ जो सिर काटने की सजा लिखता है। आरिफ मोहम्मद खान ने इस पर अफसोस जाहिर किया कि यह कानून बच्चों को मदरसों में पढ़ाया जा रहा है। उन्होंने कहा कि पांच-छह बरस की उम्र से ही ऐसा कानून मदरसों में पढ़ाया जाता है, और अगर बच्चे उससे प्रभावित होते हैं, और उसके मुताबिक काम करते हैं, तो फिर वे अपने धर्म की रक्षा के नाम पर कोई भी काम करने को तैयार हो सकते हैं। उन्होंने यह राय भी जाहिर की कि चौदह बरस की उम्र तक बच्चों को सामान्य शिक्षा ही देनी चाहिए, और यह उनका मौलिक अधिकार भी है। उन्होंने कहा कि इस उम्र के पहले उन्हें कोई विशेष शिक्षा नहीं देनी चाहिए। उन्होंने कहा कि मदरसों में क्या पढ़ाया जा रहा है, इसकी फिर से जांच होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि कुरान ऐसी सजा नहीं सुझाता, यह बाद के लोगों ने लिखा है।
आज देश राजस्थान के इस ताजा धार्मिक हमले को लेकर विचलित है, इसलिए ऐसे हमलावरों की सोच के हर पहलू पर चर्चा हो रही है। आरिफ मोहम्मद खान भाजपा के बनाए हुए राज्यपाल हैं, और उनका नाम अभी कुछ दिन पहले तक राष्ट्रपति पद के संभावित एनडीए उम्मीदवार के लिए भी खबरों की अटकलों में था। लेकिन भाजपा से उनके संबंधों की वजह से उनकी बात का वजन कम नहीं होता। मदरसों के खिलाफ हिन्दूवादी ताकतों की सोच के पीछे उनकी बदनीयत हो सकती है, लेकिन एक जाहिर सा दूसरा सवाल यह भी है कि क्या आज के जमाने में गरीब मुस्लिम बच्चों को बचपन से ही मदरसों में धर्म की शिक्षा देना, और उन्हें सामान्य औपचारिक स्कूली शिक्षा से दूर रखना कोई जायज बात है? ईसाई स्कूलों में भी बच्चों को धार्मिक पाठ पढ़ाए जाते हैं, या उनसे धार्मिक प्रार्थना करवाई जाती है। कुछ दूसरे अल्पसंख्यक धर्मों के स्कूलों में भी ऐसा होता होगा क्योंकि उनका दर्जा ही धार्मिक अल्पसंख्यक आधार पर बने हुए शैक्षणिक संस्थान है। ऐसे किसी भी स्कूल-कॉलेज में अगर बच्चों को आज की बाकी औपचारिक शिक्षा से परे सिर्फ धर्म पढ़ाया जाएगा, तो वह उन बच्चों की जिंदगी खराब करने के अलावा और कुछ नहीं रहेगा। मुस्लिम मदरसों को धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यक होने के नाते मर्जी का पाठ्यक्रम पढ़ाने की छूट मिली भी हो, तो भी उस तबके के गरीब बच्चों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए सरकार को यह सोचना होगा कि क्या उन्हें सिर्फ इसी तरह की शिक्षा देना जायज है?
भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के अधिकारों को लेकर धर्मनिरपेक्ष ताकतें लगातार सक्रिय रहती हैं। इनमें ऐसे राजनीतिक दल भी रहे जिन्होंने शाहबानो के वक्त एक अकेली मुस्लिम महिला के हकों के खिलाफ अड़े हुए मुस्लिम दकियानूसी मर्दों के वोटर-बाहुबल के सामने समर्पण कर दिया था, और संसद में नया कानून बनाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया था। फिर धार्मिक आधार पर ही इस तबके को कई तरह की छूट देने का सिलसिला भी चले आ रहा था जिसकी कुछ बातों को केन्द्र की मोदी सरकार ने बदला है। इसमें मुस्लिम महिला के अधिकार बढ़ाने के लिए तीन तलाक के खिलाफ बनाया गया कानून है। मोदी सरकार की दूसरी कई नीतियों के चलते हुए तीन तलाक के कानून को भी मुस्लिम विरोधी करार दिया गया जबकि इससे मुस्लिम महिला के अधिकार बढ़ रहे थे, और मुस्लिम पुरूष के अधिकार कम हो रहे थे। देश की धर्मनिरपेक्ष ताकतें मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय का साथ देते हुए मुस्लिम महिला के अधिकारों को अलग से देखने से कई बार कतराती भी हैं, क्योंकि वह इसे मुस्लिम समाज के भीतर का मुद्दा मानती हैं। अब हिन्दू समाज में भी बाल विवाह से लेकर सतीप्रथा तक बहुत सी बातें समाज के भीतर की थीं, लेकिन समाज के भीतर का कोई सुधार इन बातों को खत्म नहीं कर पा रहा था, और आखिर में देश की सरकार को कानून बनाकर ही हिन्दू समाज की इन रूढिय़ों को खत्म करना पड़ा था। तमाम कानून के बावजूद आज भी बाल विवाह बड़े पैमाने पर चल रहा है, और कानून भी उसे नहीं रोक पा रहा है। ऐसे में मदरसों को लेकर अगर उनमें धर्म शिक्षा से परे औपचारिक शिक्षा की बात होती है, तो उसे मुस्लिम समुदाय के धार्मिक मामलों में दखल नहीं मानना चाहिए। ऐसे मदरसे दुनिया में एक ऐसी पीढ़ी ला रहे हैं जो कि धार्मिक व्यवस्था पर परजीवी की तरह टिकी रहेगी, और आधुनिक दुनिया में अधिक आगे बढऩे के लायक नहीं बनेगी। किसी तबके को धार्मिक अल्पसंख्यक आधार पर शिक्षा के ऐसे धार्मिक अधिकार को देने का एक मतलब यह भी है कि उस धर्म की एक पीढ़ी के बहुत से लोगों को हमेशा के लिए पिछड़ा बना देना। यह सिलसिला उस समुदाय के साथ भी बेइंसाफी है, और बच्चों की उस पीढ़ी के साथ तो बेइंसाफी है ही जो कि अपना फैसला खुद नहीं ले पाती।
चाहे स्कूल-कॉलेज हो, चाहे किसी दूसरे धर्म से जुड़े हुए ऐसे तथाकथित सांस्कृतिक संगठन हों जो कि धार्मिक आधार पर बच्चों के दिमाग में जहर भरते हैं, कट्टरता भरते हैं, उन सब पर रोक लगानी चाहिए। आज देश में कई तरह की धार्मिक कट्टरता एक-दूसरे की प्रतिक्रिया में बढ़ती चली जा रही हैं, इस पर रोक लगाने के लिए भी पढ़ाई-लिखाई में से धर्म की भूमिका कम करने की जरूरत है। और सिर्फ धार्मिक पढ़ाई तो एक पीढ़ी के भविष्य को बर्बाद कर देने के अलावा कुछ नहीं है, और ऐसे लोग अपने धार्मिक स्थानों पर दान पर पलने वाले लोग बनकर रह जाते हैं, जिन्हें किसी धार्मिक फतवे से किसी हिंसा में झोंक देना आसान रहता है। इसलिए देश के तमाम शैक्षणिक संस्थानों को धार्मिक शिक्षा से अलग करने की जरूरत है, और जब व्यापक स्तर पर ऐसा किया जाएगा तो समझ आएगा कि इससे सिर्फ मदरसे प्रभावित नहीं होंगे, बल्कि दूसरी धर्मों के शैक्षणिक संस्थान भी प्रभावित होंगे, उनकी पढ़ाई की किताबें भी प्रभावित होंगी। फिलहाल तो राजस्थान की इस ताजा हिंसा को देखते हुए इस बात की जांच की जरूरत है कि क्या मदरसों में ईशनिंदा पर गला काटने की सजा सिखाई जा रही है?
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