विचार / लेख
-प्रकाश दुबे
ऐसी खबर, जो आपकी नजर से संभवत: नहीं गुजरी होगी। बेलगांव-कर्नाटक के लिए बेलगांवी जिले के सुप्रित ईश्वर दिवटे को पुलिस ने हथकड़ी लगाकर अदालत में पेश किया। बेकसूरी के साथ आरोप लगाया कि पुलिस ने हथकड़ी लगाकर प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाई। यदुर गांव के निवासी दिवटे को कर्नाटक उच्च न्यायालय की धारवाड़ खंडपीठ ने दो लाख रुपए मुआवजा देने का आदेश दिया। 5 नवम्बर 2019 को दिवटे को गिरफ्तार किया गया। प्रधानमंत्री ने आपातकाल को याद करते हुए इसी सप्ताह नागरिक स्वतंत्रता सीमित करने की आलोचना की थी। अदालतें कहती हैं कि अभियुक्त को बेडिय़ां पहनाना अनुचित है। निर्देश की बार-बार अनदेखी होती है। कर्नाटक खंडपीठ के न्यायमूर्ति सूरज गोविंदराज ने अदालतों और न्यायाधीशों को भी सजग रहने का संदेश दिया। कहा-अदालतों को अभियुक्त से पूछना चाहिए कि बेडिय़ां तो नहीं पहनाई गई थीं। यदि वह हामी भरता है तब पुलिस से कारण की पूछताछ की जाए ताकि औचित्यका पता लगे। विचाराधीन मामलों के बारे में भी यही प्रक्रिया अपनाई जाए। वाजिब कारण और अनुमति के बगैर हथकड़ी पहनाना पुलिसकर्मी का गैरकानूनी काम है। न्यायाधीश ने कहा-जिम्मेदार पुलिसकर्मी से शासन मुआवजे की राशि वसूल कर सकता है।
मानवाधिकार के नाम पर हर ऐरे गैरे को हथकड़ी से छूट देना? कुछ पुलिसकर्मी इसे अव्यावहारिक मान सकते हैं। पुरानी किसी शिकायत में खोट पाने का अदालत में उल्लेख होते ही पुलिस इन दिनों दूसरे राज्य से व्यक्तियों को पकड़ लाती है। अपने ही सेवानिवृत्त अधिकारी को हिरासत में लेती है। पुलिस के सामने अच्छे अच्छों की नहीं चलती। गाजियाबाद में वकील संजय सिंह के परिवार में शादी की तैयारी के दौरान पुलिस संरक्षण में आए दस्ते ने घर का मुख्य द्वार तोड़ा। पड़ोसी का बेटा हैदराबाद के सरदार वल्लभ भाई पटेल अकादमी में प्रशिक्षु है। वकील ने गाजियाबाद के पुलिस अधिकारी, नगरनिगम आदि से शिकायत की। जाति और वर्तमान सत्ता से निकटता का हवाला दिया। पुलिस अकादमी में प्रशिक्षु अधिकारी की मनमानी की शिकायत की पहुंच तक नहीं मिली। स्थानीय विधायक राज्य में सर्वाधिक वोट से जीता। टूटे गेट को न्याय नहीं मिला। उत्तर प्रदेश में पत्रकार कप्पन सहित अनेक व्यक्तियों की गिरफ्तारी के बाद अब तक जमानत पर रिहाई तक संभव नहीं हुई। पश्चिम बंगाल, बिहार पुलिस के कारनामे सर्वविदित हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति आनंद नारायण मुल्ला ने बरसों पहले पुलिस को अपराधियों का संगठित गिरोह कहा था।
महाराष्ट्र के दर्जनों पल्टीमार विधायकों के पलायन की महाराष्ट्र की खुफिया एजेंसियों को भनक नहीं लगी। पड़ोसी राज्य में होटल से लेकर हवाई अड्डे तक पुलिस मुस्तैद थी।इन दिनों महाराष्ट्र सरकार ही डावांडोल है। महानिदेशक स्तर के संबंधित अधिकारी से पूछताछ कौन करे? वैसे भी संबंधित अधिकारी गृहमंत्री के विधानसभा क्षेत्र के निवासी बताए जाते हैं। कुशलतम प्रशासकों में शामिल दिलीप वलसे पाटील को भी अपनी इस नायाब पसंद पर घोर अफसोस हुआ होगा। बहरहाल इस नतीजे पर पहुंचने की जल्दबाजी न करें कि अधिकारी जानकारी पाने में अक्षम रहा। संभव है अपने वर्तमान से अधिक चमकीले भविष्य की संभावना ने उसका असमंजस तोड़ा हो। अतीत के उदाहरण उठाकर देखिए। अधिकांश ऐसे अफसर जो पुलिस या इससे मिलती जुलती जांच एजेंसियों में जांच, अनुशासन की कार्रवाई या उपेक्षा की आशंका से हैरान थे, उन्होंने नए निजाम से समीकरण बिठाया। पुराने आकाओं को हिरासत में लेने, जांच के नाम पर अदालत की परिक्रमा कराने और बदनाम करने में उत्साह दिखाया। कुछ तो पुरस्कृत होकर निर्वाचित सदनों के आसन की शोभा बढ़ा रहे हैं।
अजीत पवार ने तडक़े शपथ ली, तब भी कानोंकान खबर नहीं लगी। खुफिया पुलिस की कर्णधार रहीं रश्मि शुक्लाने सांसद-विधायकों के फोन टेप किए थे। आजकल वे पुलिस अकादमी में आसीन हैं। रिबैरो और अरविंद इनामदार वाली महाराष्ट्र पुलिस कहीं है? जांच और कार्रवाई के बजाय पुलिस को अब कभी कभार राजनीतिक कारणों में सहभागी होने या न होने के लिए अभय मिलता है। यह धारणा खतरनाक है। पुलिस दल की समस्या पर ध्यान दें। जिनकी वे जांच करते हैं, अकस्मात उनकी सुरक्षा और आदेश पालन की नौबत आ जाती है। क्षेत्रीयता, सत्ता से निकटता जैसे विचार में बंटते पुलिसकर्मी आपसे में भिड़ते हैं। सीबीआई की खींचतान, पंजाब-दिल्ली-हरियाणा पुलिस के आपस में टकराव और अखिल भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों की नियुक्ति में केन्द्र और राज्यों की खींचतान इसी की देन है। प्रधानमंत्री ने राजनीतिक शतरंज के हिसाब से गृह मंत्रालय में मोहरे बिठाए थे। वे तो उत्तर प्रदेश, बिहार,पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में पार्टी की मजबूती के हिसाब से विचार कर रहे थे। लखीमपुर खीरी में किसानों और पत्रकार को कुचलने के बाद राज्य पुलिस को जिस तरह अपनी बदनामी की कीमत पर उठापटक करनी पड़ी, वह अच्छा संकेत नहीं रहा। यह बात और है कि चुनाव में उनके दल को इससे नुकसान नहीं हुआ परंतु दागदार छवि भी सत्ता के प्रभाव को कम करने का कारण बनती है। प्रधानमंत्री को कोई पूर्वाभास नहीं रहा होगा कि दो राज्यमंत्री उनके आभामंडल में इतने छिद्र कर देंगे। इस तरह की स्थिति सिर्फ भाजपा में ही नहीं है। अन्य कई दलों और नेताओं ने जानबूझकर ऐसी परेशानियां आमंत्रित की हैं। कई राज्यों के उदाहरण हैं। निर्वाचित प्रतिनिधियों को पद सौंपकर पुलिस बल को यही संकेत दिया जाता है कि अब तुम्हें पुरातन काल की विवाहिता की तरह परमेश्वर-प्रतिनिधि की सेवा करना है। ऐसे मसले अदालत तक जाते हैं। कुछ ईमानदार अधिकारी न्यायपालिका से उम्मीद रखते हैं। कुछ हताश होने के बाद त्यागपत्र देकर अलग हो जाते हैं। एक दो अपवाद छोडक़र अदालतें इन पचड़ों पर दो टूक निर्णय करना टालती हैं।
समस्या समझने के लिए जांच आयोग बिठाने की जरूरत नहीं है। पुरानी कहावत के मुताबिक (पुलिस का) घोड़ा कमजोर सवार को पटकता है। घोड़ा बाजार में जब दुलत्तीमार बैसाखनंदन बिकने लगते हैं तब उनके घुड़सवार बनने की संभावना प्रबल हो जाती है। यही हो रहा है। आप अवाक होकर मुंह खोले या तो तमाशा देखें या विचार करें। नागरिक होने के नाते अंतत: झेलना आपको है।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)