संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कुदरत की दो तबाहियों के बीच इंसानों की लाई तबाहियों का सिलसिला..
05-Jul-2022 5:19 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  कुदरत की दो तबाहियों के बीच इंसानों की लाई तबाहियों का सिलसिला..

उत्तराखंड और आसपास के पहाड़ी इलाकों से आए दिन पहाड़ धसकने से हादसों की खबरें आ रही हैं। उत्तराखंड प्रमुख हिन्दू तीर्थस्थानों की वजह से तीर्थयात्रियों से भरा रहता है, और खतरे उठाकर भी लोग जान देने की कीमत पर भी वहां जाते हैं। कुछ साल पहले की वहां की विकराल बाढ़ में हजारों से लेकर दसियों हजार तक लोगों के मरने की आशंका थी, जिनमें से हजारों का तो कुछ पता भी नहीं चला है। लेकिन अब वहां सडक़ों को चौड़ा किया जा रहा है, ताकि अधिक गाडिय़ां आ-जा सकें, ट्रैफिक की रफ्तार बढ़ सके। नतीजा यह है कि पहाड़ों को काटकर सडक़ें निकाली जा रही हैं, और उस इलाके का नक्शा ही बदला जा रहा है, बड़ी संख्या में पेड़ भी गिर रहे हैं, और यह जाहिर है कि पेड़ों की जड़ें हटने से मिट्टी भी खोखली होगी, और अगली बारिशों में भूस्खलन का खतरा और बढ़ेगा। और यह सब खतरे तो उस हालत में भी बढ़ रहे हैं जिस हालत में पिछली विनाशकारी बाढ़ जैसी नौबत न भी आए। सवाल यह है कि पर्यटन और तीर्थ, इन दोनों को ढोने की कितनी क्षमता उत्तराखंड या अड़ोस-पड़ोस के पहाड़ी इलाकों में है? उत्तराखंड और हिमाचल की दिक्कत यह है कि जब कभी किसी वजह से सैलानियों का कश्मीर जाना नहीं हो पाता है, वे इन दो प्रदेशों की तरफ रूख करते हैं, और यहां पर्यटन के महीनों में पानी की भारी कमी होने लगी है, और स्थानीय लोग पर्यटन की कमाई के बावजूद उससे थकने लगे हैं।

जो इलाके पर्यावरण के हिसाब से नाजुक मिजाज हैं, जहां खतरे कुछ अधिक रहते हैं, उन्हें लेकर बार-बार यह बात उठती है कि वहां पर पर्यटन और दूसरे किस्म की आवाजाही, कारोबार और निर्माण, इन सभी की सीमा तय होनी चाहिए। जिस तरह 2013 में केदारनाथ में आई बाढ़ ने यह साबित कर दिया था कि उसके सामने इंसानों के बनाए हुए ढांचों और सरकार के किसी भी इंतजाम की कोई अहमियत नहीं है, वैसी नौबत दुबारा आ सकती है, और ऐसा कोई भी विनाश प्राकृतिक नहीं रहने वाला है, मानव निर्मित रहने वाला है। पर्यावरण के जानकार लोग पहाड़ी इलाकों में डीजल-पेट्रोल की गाडिय़ों की आवाजाही, उनसे होने वाले प्रदूषण के खतरों से आगाह करते ही रहते हैं। उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्यों में बांध की परियोजना और पनबिजली योजना भी जमीनी हालात को खतरनाक बनाते जा रही हैं। इनके बारे में भी जानकार विशेषज्ञ लगातार चेतावनी देते हैं, लेकिन पांच-पांच बरस के लिए आने-जाने वाली सरकारों से सैकड़ों बरस के पडऩे वाले फर्क की फिक्र की उम्मीद नहीं की जा सकती। इस तरह देखें तो पहाड़ी इलाके कुदरत की कभी-कभी की मार से परे सरकार की योजनाओं, और इंसानों की तीर्थ और पर्यटन की हसरतों, इन दोनों के शिकार होते चल रहे हैं। इन्हीं सब हालात को देखते हुए कई बरस पहले नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल उत्तराखंड सरकार और उसकी उद्योग और प्रदूषण की संस्थाओं को बुरी तरह फटकार लगा चुका है, लेकिन बड़ी-बड़ी योजनाओं से सत्ता के बड़े-बड़े दो नंबरी हित जुड़े होते हैं, और कुदरत वहां प्राथमिकता नहीं रह जाती है। पहाड़ और जंगल काट-काटकर विकास के नाम पर इतने तरह के निर्माण होते हैं, कि पहाड़ी नदियों को बदला हुआ रास्ता नहीं सूझता, और आए दिन भूस्खलन से हादसे होते जा रहे हैं।

अब ऐसे में एक बड़ा खतरा बाकी ही है। दुनिया के पर्यावरण विशेषज्ञ यह कह रहे हैं कि उत्तराखंड के और ऊपर, हिमालय के ग्लेशियर दुनिया के कई दूसरे इलाकों के ग्लेशियरों की तरह तेजी से पिघल रहे हैं, या और तेजी से पिघलने जा रहे हैं। इसलिए ग्लेशियर पिघलने से पहाड़ी नदियों की बाढ़ एक अलग खतरनाक नौबत ला सकती है, जिस पर इंसानों का कोई काबू भी नहीं रहेगा। इंसान अपनी तरफ से पहाड़ों को बड़ी-बड़ी गाडिय़ों से पाटकर, पर्यटन के बाद छोड़े गए कचरे से पाटकर एक अलग खतरा खड़ा कर रहे हैं, और धरती पर गर्मी बढऩे से ग्लेशियरों के पिघलने से होने वाला खतरा एक अलग खतरा है। पहाड़ों पर विकास के नाम पर जिस तरह विस्फोटक लगा-लगाकर चट्टानों को उड़ाया जा रहा है, उनसे भी जमीन के भीतर के पत्थर-मिट्टी के ढांचों में दरार आ रही है, और इससे होने वाले खतरे आंखों से दिख भी नहीं रहे हैं।

कुल मिलाकर एक बात कही जा सकती है कि पांच बरस की निर्वाचित सरकारों से पांच लाख बरस पुरानी धरती के अगले पचास बरस की फिक्र की उम्मीद ही जायज नहीं है। और हाल के बरसों में केन्द्र और राज्य सरकारों ने जिस तरह नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के खिलाफ बागी तेवर दिखाए हैं, उसका लगाया हुआ जुर्माना तक जमा नहीं किया है, वह अपने आपमें एक बहुत खतरनाक नौबत है। हर प्रदेश सत्ता पर काबिज नेताओं की कमाई की नीयत के शिकार हैं, और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल जिस मकसद से बनाया गया था, उसे शिकस्त देने पर हर कोई आमादा हैं। यह सिलसिला इस धरती को जाने कहां ले जाकर छोड़ेगा। सत्ता पर बैठे लोगों के हाथों पर्यावरण के अधिक फैसले कभी भी नहीं दिए जा सकते। लेकिन इस सिलसिले को कोई कैसे बदलेगा, यह रास्ता भी नहीं सूझता है।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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