विचार / लेख

मंदिर-मस्जिद सबके लिए खुले क्यों न हों?
06-Jul-2022 11:45 AM
मंदिर-मस्जिद सबके लिए खुले क्यों न हों?

बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक

मद्रास उच्च न्यायालय ने अभी-अभी एक फैसला दिया है, जिसका स्वागत और पालन सभी धर्मों के लोगों को क्यों नहीं करना चाहिए? यदि कोई व्यक्ति अपने धर्म के अलावा किसी धर्म के मंदिर, मस्जिद, गिरजे या गुरुद्वारे में जाना चाहे तो उसे क्यों रोका जाना चाहिए? मद्रास उच्च न्यायालय ने उस याचिका को रद्द कर दिया है, जिसमें मांग की गई थी कि कन्याकुमारी के एक मंदिर में उन लोगों को न जाने दिया जाए, जो हिंदू नहीं हैं। इस आदिकेशव पेरुमल मंदिर में 6 जुलाई को कुंभाभिषेक समारोह संपन्न होना है। याचिकाकर्ता का आग्रह था कि यदि इस अवसर पर गैर-हिंदुओं को मंदिर में जाने दिया गया तो उस समारोह की पवित्रता नष्ट हो जाएगी।

दो न्यायाधीशों, पी.एन. प्रकाश और आर. हेमलता ने उसकी याचिका रद्द करते हुए यह सबल तर्क दिया कि कई हिंदू नागोर दरगाह और वेलंकन्नी गिरजे में अक्सर जाते हैं या नहीं? हिंदू मंदिरों में के.जी. येसुदास के भजन गाए जाते हैं या नहीं? उन जजों ने ये तो एक-दो उदाहरण दिए हैं। देश में ऐसे सैकड़ों-हजारों मंदिर और तीर्थ आदि हैं, जहां सभी धर्मों के लोग बराबर जाते रहते हैं। मेरा कहना यह है कि यदि ईश्वर सभी मनुष्यों का एक ही पिता है तो यह भेदभाव कैसा? मैंने तो भारत में ही नहीं, दुनिया के कई ईसाई, मुस्लिम और बौद्ध राष्ट्रों में देखा है कि उनके पूजा-स्थल सबके लिए खुले होते हैं।

काबुल के लोकप्रिय सांसद बबरक कारमल, जो बाद में राष्ट्रपति बने, वे आग्रहपूर्वक मुझे दक्षिण एशिया के सबसे प्राचीन मंदिर ‘आसामाई’ में ले गए थे। 1969 में जनसंघ के बड़े नेता श्री जगनाथराव जोशी और दिल्ली के महापौर श्री हंसराज गुप्त मुझे भाषण देने के लिए लंदन के एक बड़े चर्च में ले गए थे। वहां आरएसएस की शाखा लगा करती थी। रोम, पेरिस और वाशिंगटन के गिरजाघरों में मुझे जाने से किसी ने कभी रोका नहीं। वेटिकन और वाशिंगटन के गिरजों में पादरियों ने आग्रहपूर्वक मेरे भाषण भी करवाए।

राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के मेहमान के तौर पर हम जब बगदाद पहुंचे तो पीर गैलानी की प्रसिद्ध दरगाह में जाने से किसी अरब सज्जन ने मुझे रोका नहीं। हां, दिल्ली के एक इमाम जो वहां थे, उन्होंने मुझसे जरुर पूछा कि आप उस दरगाह में क्या कर रहे थे? मैंने कहा आप अरबी में इबादत कर रहे थे और मैं संस्कृत में मंत्रपाठ कर रहा था। दोनों में कोई अंतर नहीं है। इसी तरह चीन और जापान के बौद्ध मंदिरों में जाने से मुझे किसी ने रोका नहीं।

सूरिनाम, गयाना, मोरिशस और अपने अंडमान-निकोबार में मैंने ऐसे कई परिवार देखे हैं, जिनमें पति तो पूजा करता है और उसकी पत्नी नमाज़ पढ़ती है या ‘प्रेयर’ करती है। ये लोग सच्चे आस्तिक हैं लेकिन जो भेदभाव करते हैं, वे जितने आस्तिक हैं, उससे ज्यादा राजनीतिक हैं। वे दूसरों के तो क्या, अपने ही मजहब में अपना संप्रदाय अलग खड़ा कर लेते हैं और उसके जरिए अंधभक्तों को अपने जाल में फंसाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं।

ये मजहब के दावेदार, साधु-संत और पादरी भगवान, अल्लाह और गॉड की बजाय खुद को पुजवाने में ज्यादा चतुराई दिखाते हैं। यूरोप में लगभग एक हजार साल तक इनका ऐश्वर्य और रूतबा बादशाहों से भी ज्यादा रहा है। कुछ इस्लामी देशों में अब भी प्रधानमंत्रियों से ज्यादा ताकतवर उनके इमाम और आयतुल्लाह आदि होते हैं। खैर है, कि भारत में ऐसा बहुत कम हुआ है। (नया इंडिया की अनुमति से) 

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news