संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : भाजपा से परहेज तो ठीक है, लेकिन शिवसेना का विभाजन लोकतंत्र का पतन नहीं है...
08-Jul-2022 3:54 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : भाजपा से परहेज तो ठीक है, लेकिन शिवसेना का विभाजन लोकतंत्र का पतन नहीं है...

महाराष्ट्र में शिवसेना की फजीहत और बेइज्जती खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही है। ऐसा भी नहीं है कि शिवसेना के इतिहास में कभी छोटे-मोटे बागी हुए ही न हों, लेकिन इस पैमाने पर बगावत का बुरा सपना तो कभी बाल ठाकरे ने भी नहीं देखा होगा, और न ही उद्धव ठाकरे या उनके बेटे ने। एक वक्त था जब उद्धव ठाकरे के चचेरे भाई राज ठाकरे पार्टी और परिवार से अलग हुए, उन्होंने अपना अलग राजनीतिक दल बनाया, लेकिन वे भी कुछ साबित नहीं कर पाए। अब जब शिवसेना एक पूरी तरह अप्राकृतिक गठबंधन में सरकार चला रही थी, और अपने से वैचारिक अलग ध्रुव पर बैठी कांग्रेस और एनसीपी के साथ गठबंधन में थी तो उसमें उसके इतिहास की सबसे बड़ी और सबसे बुरी बगावत हुई, और आज की तारीख में शिवसेना किनारे लग गई दिखती है। ताजा खबर के मुताबिक भाजपा के साथ मिलकर सरकार बना लेने वाले कल तक के शिवसैनिक एकनाथ शिंदे के साथ नवी मुम्बई के शिवसेना पार्षद भी आ गए हैं। इसके पहले शिंदे के गृहनगर ठाणे के 67 में से 66 शिवसेना पार्षदों ने शिंदे का दामन थाम लिया था। अभी मुख्यमंत्री शिंदे और उपमुख्यमंत्री देवेन्द्र फडनवीस के मंत्रिमंडल का विस्तार होना बाकी है, और उसके बाद हो सकता है कि रही-सही उद्धव-सेना में और टूट-फूट हो जाए। शिंदे-सेना का दावा है कि शिवसेना के 18 में से 12 सांसद उनके साथ आ सकते हैं। इस तरह उद्धव ठाकरे की शिवसेना आज अपने अस्तित्व की सबसे कमजोर पार्टी दिख रही है, और उसमें टूट-फूट जारी ही है।
 
बहुत से लोग जिन्हें भाजपा से रासायनिक परहेज है, उन्हें पहले दिन से यह बात खटक रही थी कि केन्द्र सरकार की तमाम ताकत को मिलाकर भाजपा ने महाराष्ट्र में एक गठबंधन सरकार को गिराया। लेकिन सच तो यह है कि यह गठबंधन पहले ही दिन से अस्वाभाविक था, और इसके भागीदार अटपटे हमबिस्तर थे। वैसे तो लोकतंत्र में किसी भी तरह के अस्वाभाविक और अटपटे गठबंधन को अलोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह लोकतांत्रिक व्यवस्था को जारी रखने के लिए बनाना कई बार मजबूरी भी रहती है। लेकिन यह समझने की जरूरत है कि महाराष्ट्र में भाजपा की किसी संभावित साजिश से परे भी शिवसेना के भीतर एक बगावत की जमीन बनती चल रही थी, और अब बागियों के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद वह दरार और चौड़ी, और गहरी होती चल रही है। शिवसेना, एनसीपी, और कांग्रेस की गठबंधन सरकार एक बड़ा ही अटपटा इंतजाम था, जिसमें सबसे अधिक असुविधा परंपरागत शिवसैनिक महसूस कर रहे थे। उनकी पूरी जिंदगी कांग्रेस के खिलाफ सडक़ की लड़ाई लड़ते गुजरी थी, और अब वे अचानक कांग्रेस के साथ भागीदार बनकर सरकार चला रहे थे। दूसरी तरफ जो भाजपा धार्मिक आधार पर शिवसेना की एक स्वाभाविक भागीदार थी, वह भाजपा विपक्ष में थी, और वोटरों के सामने तस्वीर यह बन रही थी कि हिन्दू भागीदार को धोखा देकर शिवसेना सोनिया गांधी की कांग्रेस के साथ मिल गई है, जिसे बाल ठाकरे ने कभी सिवाय हिकारत के नहीं देखा था। महाराष्ट्र के शिवसेना नेताओं और कार्यकर्ताओं का ऐसा मानना है कि आने वाले स्थानीय चुनावों को लेकर शिवसैनिक बहुत दुविधा में थे क्योंकि मुख्यमंत्री तो उनका था, लेकिन वैचारिक रूप से वे इस सरकार के भागीदारों के खिलाफ थे। उन्हें समझ नहीं पड़ रहा था कि वे किस तरह वोटरों के सामने अपनी बात रखनी होगी। ऐसी दुविधाओं के चलते हुए शिवसेना का एक बड़ा तबका एक बड़ी स्वाभाविक तकलीफ से गुजर रहा था, और उसकी आशंकाएं बेबुनियाद नहीं थीं। भाजपा या केन्द्र सरकार का जो भी असर रहा होगा, उससे परे भी एकनाथ शिंदे और उनके साथियों की उद्धव ठाकरे से बगावत के ठोस राजनीतिक कारण थे, और चुनावी आशंकाएं थीं जिनके चलते शिवसेना में उनका रहना मुश्किल भी हो रहा था। जब आने वाले चुनावों में लोगों को अपनी परंपरागत जमीन खोने का खतरा दिखता है, तो फिर वे दलबदल से लेकर बगावत तक किसी भी बात पर उतारू हो सकते हैं, और शिवसेना की बगावत के पीछे यह भी एक वजह रही।

कुछ लोगों ने इस बात को लिखा है कि महाराष्ट्र में इस गठबंधन की सरकार को गिराकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी पार्टी ने 2024 के चुनाव के लिए एक एजेंडा सेट किया है कि वे वंशवाद के खिलाफ हैं। महाराष्ट्र का यह गठबंधन तीन परिवारवादी पार्टियों का मेल था, और कांग्रेस, शिवसेना, और एनसीपी ये सब एक परिवार पर टिकी पार्टियां हैं, और इन्हें एक साथ खारिज करवाकर भाजपा ने महाराष्ट्र में जो फेरबदल करवाया है, उसका संदेश बाकी देश में भी जा सकता है। इसी तरह ऐसा भी कहा जा रहा है कि भाजपा तेलंगाना में मुख्यमंत्री के.चन्द्रशेखर राव को भी वंशवादी करार देकर खारिज करवाना चाहते हैं, और इसी के चलते हुए अभी जब मोदी भाजपा की राष्ट्रीय बैठक में हैदराबाद पहुंचे तो केसीआर ने उनसे सीधा टकराव लिया। केसीआर का बेटा उनका मंत्री है, और उनकी बेटी सांसद रह चुकी है, और अभी विधायक है, और उनका भतीजा भी ताकतवर वित्तमंत्री है। इसलिए ऐसा माना जा रहा है कि अगले चुनाव में मोदी वंशवाद को एक बड़ा मुद्दा बना सकते हैं, जिसके निशाने पर लालू यादव से लेकर मुलायम तक के परिवार भी आ जाएंगे, और अपने भतीजे को आगे बढ़ाती ममता बैनर्जी भी आ जाएंगी। वंशवाद को आज भाजपा बड़े मुद्दे की तरह पेश नहीं कर रही है, क्योंकि अगर उसका मकसद 2024 में इसे मुद्दा बनाना है, तो वह इसे वक्त के पहले खर्च करना नहीं चाहेगी।

महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार आने से जिन लोगों को दुख और तकलीफ है, उनके लिए तो शिवसेना के पतन के महत्व को समझ पाना आज कुछ मुश्किल होगा। लेकिन अभी पिछली सरकार तक का दौर अगर देखें, तो यही शिवसेना वहां जितनी साम्प्रदायिक थी, उसने यूपी-बिहार के लोगों के खिलाफ जिस तरह का हिंसक अभियान छेड़ा हुआ था, वह मुम्बई की सडक़ों पर जिस तरह का बाहुबल का राज करते आई थी, उन सब बातों को एक बार फिर याद करके देखना चाहिए, और यह सोचना चाहिए कि इस गठबंधन सरकार के पहले तक की शिवसेना का पतन क्या सचमुच ही लोकतंत्र के लिए किसी तरह का नुकसान है? कुनबापरस्ती से परे भी अधिकतर ऐसे मुद्दे थे जो शिवसेना को एक अलोकतांत्रिक पार्टी साबित करते आए हैं, उसका घोर मुस्लिमविरोधी चेहरा हमेशा सबके सामने रहा है, और लोगों को याद रखना चाहिए कि बाल ठाकरे ने बाबरी मस्जिद गिराने का दावा करते हुए कहा था कि उसे शिवसैनिकों ने गिराया है। इसलिए अगर महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना का एक पतन हो रहा है, तो उसे लोकतंत्र का एक पतन मान लेना सही नहीं होगा, और कांग्रेस और एनसीपी को अगले चुनाव तक वैचारिक रूप से ईमानदार एक गठबंधन की कोशिश करनी चाहिए, जिसमें शिवसेना की कोई जगह नहीं हो पाएगी। पार्टियों में विभाजन कोई बहुत ही अनहोनी बात नहीं रहती है, एनसीपी कांग्रेस से ही अलग होकर बनी थी, और ममता बैनर्जी ने भी कांग्रेस से अलग होकर अपनी पार्टी बनाई थी। इसलिए महाराष्ट्र में शिवसेना का विभाजन कोई बहुत बड़ा खतरा नहीं है, बल्कि यह वैचारिक ईमानदारी के आधार पर लोगों को दुबारा घर बसाने या पड़ोसी छांटने का एक मौका है।
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